भारतीय परिवारों में, खासकर छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में, शादियों पर बहुत ज़्यादा खर्च किया जाता है। कई बार लोग इसके लिए कर्ज़ भी लेते हैं। लेकिन इस खर्च में गहरा लैंगिक भेदभाव दिखाई देता है। अगर लड़के की शादी होती है, तो गाजे-बाजे, पटाखों, सजावट और दावत पर खुलकर पैसा बहाया जाता है। वहीं लड़की की शादी में धन का बड़ा हिस्सा दहेज पर खर्च हो जाता है। यह स्थिति भारतीय विवाह संस्था में महिलाओं की ऐतिहासिक असमानता को दिखाती है। आज भी महिलाओं को अपने जीवन से जुड़े बड़े फैसलों में सीमित अधिकार मिलते हैं। उन्हें जीवनसाथी चुनने या पारिवारिक निर्णयों में बराबर की भागीदारी नहीं दी जाती। कई घरों में महिलाओं को नौकरी करने से हतोत्साहित किया जाता है।
इससे उनकी आर्थिक निर्भरता बढ़ती है और विवाह ही उनका मुख्य सहारा बन जाता है। यह भेदभाव रूढ़िवादी सामाजिक परंपराओं से जुड़ा है। पारंपरिक समाज में विवाह के बाद लड़की को अपना घर, परिवार और परिवेश छोड़ना पड़ता है। उसके साथ जीवन भर की आर्थिक असुरक्षा भी जुड़ जाती है। इसके उलट लड़कों को न तो घर छोड़ना पड़ता है और न ही दहेज देना पड़ता है। दहेज जैसी कुरीतियों का दबाव भी केवल लड़की पक्ष पर होता है। किसी भी व्यक्ति के लिए अपना घर और संसार छोड़कर हमेशा के लिए दूसरे घर जाना बेहद पीड़ादायक होता है। लेकिन लड़कियों के लिए यह एक तरह का स्थायी निर्वासन बन जाता है। इसे आज भी रिवाज़ और परंपरा के नाम पर सही ठहराया जाता है।
अगर लड़के की शादी होती है, तो गाजे-बाजे, पटाखों, सजावट और दावत पर खुलकर पैसा बहाया जाता है। वहीं लड़की की शादी में धन का बड़ा हिस्सा दहेज पर खर्च हो जाता है। यह स्थिति भारतीय विवाह संस्था में महिलाओं की ऐतिहासिक असमानता को दिखाती है।
शादी के खर्च में यह असमानता केवल आर्थिक मुद्दा नहीं है। यह पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे का स्पष्ट प्रतिबिंब है। लड़की की शादी में खर्च को अक्सर ‘पूंजी के हस्तांतरण’ यानी दहेज के रूप में देखा जाता है। परिवार अपनी जीवन भर की बचत नकद, सामान या आभूषण के रूप में वर पक्ष को सौंप देता है। उन्हें लगता है कि इससे बेटी का भविष्य सुरक्षित होगा। जबकि यही पैसा बेटी की शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर लगाया जा सकता है। दूसरी ओर, लड़कों की शादी में खर्च उपभोग और दिखावे पर होता है। भव्य बारात, बैंड-बाजा और रोशनी समाज में शान और रुतबा दिखाने का माध्यम बन जाते हैं। मध्य और निम्न-मध्य वर्ग के परिवारों में यह खर्च सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है।
लड़के और लड़की की शादियों के खर्च के पैटर्न
हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच में बेटियों की सुरक्षा को एक केंद्रीय मुद्दा माना जाता है। इसी सोच के कारण बेटियों से जुड़े अधिकतर खर्च उनके “सुरक्षित भविष्य” के नाम पर किए जाते हैं। माता-पिता को यह विश्वास दिलाया जाता है कि जितना अधिक दहेज या सामान दिया जाएगा, ससुराल में बेटी उतनी ही सुरक्षित और सम्मानित रहेगी। हालांकि दहेज एक कुप्रथा ही नहीं हिंसा को बढ़ावा देने वाली शोषणकारी प्रथा है, फिर भी कई माता-पिता इसे अपना कर्तव्य मान लेते हैं। सच यह है कि ज़्यादातर परिवारों के लिए यह कोई पसंद नहीं, बल्कि एक मजबूरी होती है। इसके उलट, समाज में बेटे का जन्म आज भी गर्व का विषय माना जाता है।
बेटे की शादी पर होने वाला खर्च एक “उत्सव” और “यादगार आयोजन” के रूप में देखा जाता है। रिश्तेदारों और परिचितों के बीच इसकी चर्चा गर्व से की जाती है। लड़के और लड़की की शादियों में खर्च के अलग-अलग पैटर्न पितृसत्तात्मक मानसिकता को साफ दिखाते हैं। भले ही दोनों शादियों में काफी पैसा खर्च होता हो, लेकिन खर्च का स्वरूप अलग होता है। खासकर कस्बों, छोटे शहरों और गाँवों में यह अंतर और स्पष्ट दिखता है। लड़कियों की शादी में खर्च तामझाम पर नहीं, बल्कि दहेज पर केंद्रित होता है। वहीं लड़कों की शादी में दिखावा, शोर-शराबा और भव्यता प्रमुख होती है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में बेटे की शादी को अक्सर एक “निवेश” की तरह देखा जाता है क्योंकि शादी के साथ घर में बहू और दहेज दोनों आते हैं। लड़की की शादी में परिवार न सिर्फ दहेज देता है, बल्कि बेटी को भी विदा करता है।
बेटे की शादी पर होने वाला खर्च एक “उत्सव” और “यादगार आयोजन” के रूप में देखा जाता है। रिश्तेदारों और परिचितों के बीच इसकी चर्चा गर्व से की जाती है। लड़के और लड़की की शादियों में खर्च के अलग-अलग पैटर्न पितृसत्तात्मक मानसिकता को साफ दिखाते हैं।
यह विदाई सिर्फ एक रस्म नहीं होती, बल्कि बेटी को नई ज़मीन पर पैर जमाने के साधनों से जोड़ दी जाती है। इसलिए बेटी की शादी में दिखावे से ज़्यादा लेन-देन पर ज़ोर रहता है। इसका उद्देश्य यह भी होता है कि ससुराल में बेटी को ताने न मिलें, उसे तकलीफ़ न दी जाए और परिवार खुद को भविष्य के सामाजिक तानों से बचा सके। इसी वजह से शादी में कई अदृश्य खर्च भी होते हैं, जिनकी खुलकर बात नहीं की जाती। आज भी पितृसत्तात्मक दबाव के कारण लड़की का पिता वरपक्ष के सामने विनीत और झुका हुआ रहता है। बरातियों के स्वागत-सत्कार में खर्च का बड़ा हिस्सा उनकी अपेक्षाओं और मांगों को पूरा करने में चला जाता है। इसके विपरीत, लड़के की शादी में यही खर्च अधिकार और हुक्म में बदल जाता है।
शादियों में लेन देन और लैंगिक असमानता
विवाह में लेन-देन और लड़की की विदाई जैसी कुरीतियां आज भी समाज में समानता को रोकती हैं। लैंगिक समानता का सवाल सीधे तौर पर विवाह की इसी संरचना से जुड़ा है। हमारे समाज में लड़की के जन्म के साथ ही यह मान लिया जाता है कि उसके विवाह में दहेज देना होगा और उसे दूसरे घर विदा करना होगा। इसके उलट, लड़के के जन्म पर खुशी इसलिए मनाई जाती है क्योंकि उसके विवाह से घर में एक नया सदस्य आएगा और दहेज भी मिलेगा। यह सोच परिवार की उस संरचना से जुड़ी है जो निजी संपत्ति पर टिकी हुई है। इसी कारण बेटियों को “पराया धन” और बेटों को “वंश का वारिस” माना जाता है। यह पूरी सोच पूँजी और संपत्ति से जुड़ी हुई है।
आज भी गाँवों में कई परिवार बेटी की शादी के लिए ज़मीन बेच देते हैं, लेकिन उसी ज़मीन में बेटी को हिस्सा नहीं देते। वे विवाह को प्राथमिकता देते हैं, आत्मनिर्भरता को नहीं।
जहां एक परिवार के लिए विवाह खर्च और “विदाई” का माध्यम बनता है, वहीं दूसरे के लिए यह “विजय” और “वर्चस्व” का उत्सव होता है। इसी विवाह व्यवस्था के कारण समाज में लैंगिक समानता स्थापित नहीं हो पा रही है। दहेज जैसी कुरीतियाँ बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का अधिकार पाने से भी रोकती हैं। जब तक विवाह को दो व्यक्तियों के आपसी सहमति और साझेदारी के बजाय दो परिवारों के बीच लेन-देन और शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा जाएगा, आर्थिक असमानता बनी रहेगी। आज भी गाँवों में कई परिवार बेटी की शादी के लिए ज़मीन बेच देते हैं, लेकिन उसी ज़मीन में बेटी को हिस्सा नहीं देते। वे विवाह को प्राथमिकता देते हैं, आत्मनिर्भरता को नहीं। विवाह दो लोगों के साथ रहने का निर्णय होना चाहिए। यह किसी सौदे या दिखावे का उत्सव नहीं होना चाहिए।
लेकिन भारतीय समाज में विवाह को आज भी महिलाओं की सुरक्षा और भविष्य का एकमात्र साधन माना जाता है। इसी कारण महिलाओं को पितृसत्तात्मक नियंत्रण में रखा जाता है। आज भी विवाह संस्था महिलाओं को अवसरों और अधिकारों के मामले में पुरुषों से पीछे रखती है। इसके पीछे रूढ़िवादी सोच और असमान परंपराएँ हैं। समाज में समानता की सभी लड़ाइयों में लैंगिक समानता सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन यह लड़ाई विवाह की इन्हीं परंपराओं के कारण कमजोर पड़ जाती है। यदि लैंगिक समानता को उसके मूल रूप में लाना है, तो विवाह की परंपराओं को बदलना होगा। उनमें सादगी, समानता और सम्मान लाना होगा। स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी से ही एक समतामूलक समाज बन सकता है। भेदभाव पर आधारित कोई भी परंपरा स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं कर सकती।

