इंटरसेक्शनल 5 दलित लेखिकाएं जिनकी आवाज़ ने ‘ब्राह्मणवादी समाज’ की पोल खोल दी !

5 दलित लेखिकाएं जिनकी आवाज़ ने ‘ब्राह्मणवादी समाज’ की पोल खोल दी !

अपने शब्दों और अपनी कला से ये औरतें क्रांति की बयार ला रही हैं। उम्मीद है आनेवाले कल में हम ऐसी कई और दलित लेखिकाओं से वाक़िफ़ होंगे।

साहित्य के क्षेत्र पर हमेशा से अभिजात सवर्णों का वर्चस्व रहा है। पिछड़े वर्गों को कभी पढ़ने लिखने के लिए, अपनी आवाज़ दुनिया तक पहुँचाने के लिए वो अवसर ही नहीं मिला जो ऊंची जातियों को पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता आ रहा है। इसलिए जब हम भारत के साहित्य या भारतीय लेखकों की बात करते हैं तो ऐसा कम ही होता है कि दिमाग़ में किसी दलित लेखक, ख़ासतौर पर लेखिका का नाम आए। पर अब ज़माना बदल रहा है। आज दलित लेखक और कलाकार अपने साहित्य और संगीत के ज़रिए अपनी कहानी पूरी दुनिया के सामने बयां कर रहे हैं। उन सारे अनुभवों और विचारों को व्यक्त कर रहे हैं जिनकी बात करने का मौक़ा ही नहीं मिला। और इनमें से एक बड़ा अंश महिलाओं का है, जिन्हें जातिवाद के साथ पितृसत्ता का भी मुक़ाबला करना पड़ता है। मिलवाते हैं आपको पांच दलित लेखिकाओं से जिनकी बुलंद आवाज़ एक क्रूर समाज का पर्दाफाश करती है, जिसने सदियों से उन्हें शोषित और लांछित किया है।

1. जूपाका सुभद्रा

सुभद्रा का जन्म तेलंगाना के वारंगल में डामरंचपल्ले गांव में हुआ था। जातिवाद की क्रूर सच्चाई से उनका परिचय बहुत छोटी उम्र में हो गया था। वो तब आठ साल की थीं जब स्कूल में एक सवर्ण दोस्त उसके लिए मिठाई लेकर आई थी। दूसरे दिन जब सुभद्रा उसके लिए मिठाई लेकर स्कूल आईं तो उसने उन्हें थप्पड़ मार दिया ये कहकर कि चूंकि वे ‘छोटी’ जात की हैं, वो उनके हाथ से कोई खाने की चीज़ नहीं ले सकतीं।

बड़ी होकर सुभद्रा ने तेलुगु में कविताएं लिखना शुरू कर दिया। उनकी कविताओं में सिर्फ जातिवाद नहीं बल्कि पितृसत्ता और दलित समाज में महिलाओं के शोषण का भी ज़िक्र है। किस तरह बलात्कार के ज़रिए महिलाओं को दबाए रखा जाता है इसका उन्होंने अपनी कविताओं में खुलकर वर्णन किया है। उनकी दो मशहूर कविताएं हैं ‘अय्यो दमक्का’ जिसमें उन्होंने एक शादीशुदा दलित औरत की पीड़ा को बखाना है, और ‘कोंगु’, जो सवर्ण और दलित औरतों के लिए ‘घूंघट’ के अलग अलग मायने की बात करती है।

सुभद्रा मत्तीपोलू लेखिका मंच की स्थापक हैं। ‘मत्तीपोलू’ दलित, बहुजन, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्गों के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला शब्द है। कविताओं के अलावा वे राजनैतिक निबंध, आलोचनाएं और गाने भी लिखती हैं।

2. अरुणा गोगुलामंदा

अरुणा तेलंगाना के एक किसान परिवार की बेटी हैं। वे हैदराबाद विश्वविद्यालय में पी.एच.डी कर रही हैं और तेलुगु और इंग्लिश दोनों में कविताएं लिखती हैं। अरुणा का ये मानना है कि भारत में नारीवाद सिर्फ सवर्ण औरतों तक ही सीमित है और दलित औरतों के लिए नारीवादी आंदोलन में बहुत कम जगह है। वे चाहती हैं वंचित वर्ग की महिलाओं को अपनी आवाज़ उठाने का उतना ही मौका मिले जितना अभिजात वर्ग को मिलता है। अपनी कविता, “देवियों की भूमि में एक दलित औरत” में अरुणा ने हमारे दोगले समाज की पोल खोली है, जहां सवर्ण औरतों को देवी बनाकर पूजा जाता है और दलित औरतों के नसीब में सिर्फ़ लांछन और प्रताड़ना ही रहते हैं।

अपने शब्दों और अपनी कला से ये औरतें क्रांति की बयार ला रही हैं। उम्मीद है आनेवाले कल में हम ऐसी कई और दलित लेखिकाओं से वाक़िफ़ होंगे।

3. सुकीर्तरानी

सुकीर्तरानी तमिल नाडु के वेल्लोर की हैं। उनकी कविताओं की ख़ासियत है औरत के शरीर और उसके अनुभवों का नि:संकोच वर्णन। अपनी यौनिकता को लेकर खुलकर बात करने से सुकीर्तरानी शर्माती नहीं हैं और बड़े क़ायदे से ये दिखाती हैं किस तरह उनका शरीर और उनकी यौनिकता भी जातिवाद के शिकार हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे दिखाना चाहती हैं किस तरह जातिवाद औरतों के शरीर को नियंत्रण करता है। एक कविता ‘आज़ादी का झंडा ‘ में सुकीर्तरानी ऊँची जात के मर्दों द्वारा एक दलित औरत के बलात्कार का व्याख्यान करती हैं। कविता की अंतिम पंक्तियों में वे कहती हैं, “मेरी योनि में घुसाए हुए डंडे के ऊपर फहराया जाएगा मेरी आज़ादी का झंडा, जिसका रंग खून की तरह लाल होगा।’

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4. विजिला चिरप्पड

केरला के कोरिकोड की विजिला मलयालम में लिखती हैं। अपनी कविताओं में वे बताती हैं किस तरह तथाकथित ‘प्रगतिशील’ केरला में भी जातिवाद कूट कूटकर भरा हुआ है। किस तरह वहां कम्युनिस्ट सरकार होने के बावजूद जाति के आधार पर इस तरह का वर्ग वैषम्य मौजूद है। वे दलित औरतों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के बारे में लिखती हैं और उनकी तक़लीफ़ों और दर्द को आवाज़ देती हैं। उनकी कुछ दमदार कविताएं हैं ‘रसोईघर के चिथड़े’ और ‘बंजर’ जिनमें उन्होंने दलित औरतों के साथ होते भेदभाव और उपेक्षा की बात की है।

विजिला केरला के साहित्य उत्सव में भाग ले चुकी हैं और उनकी कविताएं ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा छापी गई हैं।

5. शीतल साठे

पुणे, महाराष्ट्र शीतल कवि के साथ साथ गायिका भी हैं। 2000 की शुरुआत में उन्होंने ‘कबीर कला मंच’ ग्रुप के साथ गाना शुरू किया था। हिंदी और मराठी में उनके गाने ज़्यादातर पिछड़े वर्गों के अधिकारों के लिए और सरकार के ख़िलाफ़ होते हैं। इन गानों में उनकी आंबेडकरवादी विचारधारा के साथ साथ नारीवाद और समाजवाद के आदर्श भी साफ़ नज़र आते हैं। मई 2011 में एंटी-टेररिज्म स्क्वॉड (एटीएस) ने शीतल पर नक्सलवाद फैलाने का इलज़ाम लगाया, जिसकी वजह से उन्हें अपने पति सचिन माली के साथ छिप जाना पड़ा। वे लगभग दो साल छिपी रहीं और अप्रैल 2013 में जाकर महाराष्ट्र विधान भवन के सामने ख़ुद को पुलिस के हवाले कर दिया। इस समय वे आठ महीने प्रेगनेंट थीं! प्रेगनेंट हालत में ही उन्हें गिरफ़्तार किया गया और जून 2013 में जाकर ज़मानत मिली।

उनकी कुछ कविताएं हैं ‘रोहित गया, दलित गया, मर गई है लोकशाही’, जो हैदराबाद यूनिवर्सिटी के रोहित वेमुला की स्मृति में है,और ‘ऐ भगत सिंह तू ज़िंदा है हर एक लहू के कतरे में। ‘ फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन की डॉक्यूमेंटरी ‘जय भीम कामरेड’ में भी शीतल नज़र आई थीं।

अपने शब्दों और अपनी कला से ये औरतें क्रांति की बयार ला रही हैं। कठोर सामाजिक सच्चाइयों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रही हैं। उम्मीद है आनेवाले कल में हम ऐसी कई और दलित लेखिकाओं से वाक़िफ़ होंगे।

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