“एक मां का दर्द कोई नहीं समझ सकता। मैं एक पीड़ित हूं, मेरी जैसी कई और हैं। असोसिएशन ऑफ पैंरट्स ऑफ डिसअपीर्यड पर्सन्स मेरे और मेरी जैसी कई और मांओं के दर्द से पैदा हुआ है। “
-परवीना एंगर
ये शब्द हैं असोसिएशन ऑफ पैंरट्स ऑफ डिसअपीर्यड पर्सन्स की अध्यक्ष परवीना एंगर के। वह परवीना एंगर जिन्हें कश्मीर की आयरन लेडी के नाम से भी जाना जाता है। पांच बच्चों की मां परवीना एंगर 1990 तक कश्मीर की एक आम महिला ही थी लेकिन 1990 के एक घटनाक्रम ने उनके जीवन के उद्देश्य को ही बदल दिया। 18 अगस्त 1990 को नैशनल सेक्योरिटी गार्ड्स परवीना एंगर के बेटे को उठाकर ले गई। तब उनका बेटा जावेद अहमद एहंगर सिर्फ ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था। अपने बेटे की खोज में परवीना एंगर जो साक्षर भी नहीं थी, जम्मू-कश्मीर की एक जेल से दूसरी जेल, पुलिस स्टेशन, अस्पतालों और मुर्दाघरों में भटकती रही लेकिन कुछ पता न चला। अपने बेटे की खोज में जुटी परवीना एंगर को यह एहसास हुआ कि यह कहानी सिर्फ उनकी नहीं थी। उनकी तरह ही न जाने कितने लोग कश्मीर में अपने गुमशुदा परिजनों की तलाश में दर-ब-दर भटक रहे थे।
अपने बेटे की खोज के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रही परवीना एंगर इस दौरान कई ऐसे लोगों से मिली जो अपने बेटों, पति और पिता की तलाश में भटक रहे थे। उन्हें इन सबका दुख अपने दुख जैसा मालूम हुआ। अपने गुमशुदा परिजनों की तलाश में भटक रहे इन परिवारों ने आपस में मिलना-जुलना शुरू किया। इन पीड़ित परिवारों की अनऔपचारिक मुलाकात ही एपीडीपी की ओर बढ़ाया गया पहला कदम था। ये लोग अपने गायब हुए परिवारजनों के नाम की लिस्ट हाईकोर्ट और ज़िला न्यायालयों की दीवारों पर चिपका दिया करते थे। पुलिस इन लोगों को मारती थी, महिलाएं भी चोटिल होती थी फिर इन लोगों ने परवीना एंगर के घर पर मिलना शुरू किया। इस शुरुआत में परवीना को पहले उनके परिवार का साथ नहीं मिला लेकिन इससे उनकी हिम्मत नहीं टूटी। परवीना एंगर बताती हैं कि जबसे उन्होंने ये कदम उठाया तब से परिवार वालों का व्यवहार उनके प्रति काफी बदल गया। अपने बेटे को खोजने और दूसरे लोगों को हिम्मत देने में जुटी परवीना तब अपने परिवार और अपने बाकी बच्चों पर पूरी तरह ध्यान ही नहीं दे पा रही थी।
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तमाम मुश्किलों के बाद कश्मीर के इन गुमशुदा लोगों और अपने बेटे की तलाश ने ही असोसिएशन ऑफ पैंरट्स ऑफ डिसअपीर्यड पर्सन्स की नींव रखी। परवीना एंगर ने साल 1994 कश्मीर के मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील परवेज़ इमरोज़ और अन्य लोगों के साथ मिलकर एपीडीपी की शुरुआत की। एपीडीपी का मुख्य उद्देश्य गुमशुदा लोगों के परिवारों को हर तरह की मदद मुहैया करवाना है। कई मामलों में घर के मर्द जो इकलौते कमाने वाले होते हैं उनके गुमशुदा होने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो जाती है। इसलिए एपीडीपी गुमशुदा लोगों के परिवारों को न सिर्फ कानूनी बल्कि आर्थिक और मेडिकल मदद भी मुहैया करवाता है। गुमशुदा लोगों की तलाश के लिए परवीना एंगर हर महीने की 10 तारीख को श्रीनगर के प्रताप पार्क में एक विरोध-प्रदर्शन आयोजित करती हैं ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके। उनके इस प्रदर्शन का मकसद खोए हुए परिजनों के दर्द को ज़िंदा रखना भी है।
कश्मीर लाइफ को दिए गए एक इंटरव्यू में परवीना एंगर बताती हैं कि उनका यह सफर इतना आसान नहीं था। लोग अपने गुमशुदा परिजनों के बारे में बात करने से डरते थे। जब वह गुमशुदा लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने जाती तो लोग उनके मुंह पर दरवाज़ा बंद कर देते, उन्हें गालियां सुनने को मिलती लेकिन उन्होंने अपना मिशन जारी रखा। गुमशुदा लोगों के मामले में उनका पहला काम होता था एफआईआर दर्ज करवाना, अगर पुलिस ने गुमशुदगी के मामले में पहले से एफआईआर दर्ज न की हो तो। परवीना एंगर के बेटे को गायब हुए लगभग 30 साल बीत चुके हैं लेकिन वह आज भी उतनी ही शिद्दत से उसे ढूंढने में लगी हुई हैं। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में परवीना कहती हैं, मैं एक बेहद शर्मीली इंसान थी, मैंने कभी घर के बाहर अकेले कदम तक नहीं रखा था लेकिन 1990 में जब मेरा बेटा गायब हुआ, इस घटना ने मेरे जीवन को बदलकर रख दिया। परवीना आज भी मानती हैं कि उनका बेटा ज़िंदा है और कभी न कभी वह उसे ज़रूर ढूंढ निकालेंगी।
कश्मीर लाइफ को दिए गए एक इंटरव्यू में परवीना एंगर बताती हैं कि उनका यह सफर इतना आसान नहीं था। लोग अपने गुमशुदा परिजनों के बारे में बात करने से डरते थे। जब वह गुमशुदा लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने जाती तो लोग उनके मुंह पर दरवाज़ा बंद कर देते, उन्हें गालियां सुनने को मिलती
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परवीना एंगर साल 2005 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भी नामित की जा चुकी हैं। उन्हें सीएनएन-आईबीएन के एक पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था लेकिन उन्होंने यह पुरस्कार मेनस्ट्रीम मीडिया में कश्मीर को लेकर होने वाली कवरेज के आधार पर ठुकरा दिया था। साल 2008 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र की तरफ से अपना केस पेश करना का न्योता भी दिया गया था।
उन्हें साल 2017 में परवेज़ इमरोज़ के साथ नॉर्वे के प्रतिष्ठित राफ्टो पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। पुरस्कार के दौरान उनके द्वारा दिए गए भाषण को एक बेहद भावुक और सशक्त भाषण के रूप में देखा जाता है। अपने भाषण के दौरान उन्होंने कहा था, ‘शुरुआत में मैंने अपने बेटे को हर जगह खोजा, मैं दुख में लगभग पागल हो चुकी थी। लेकिन तब मैंने देखा कि मेरे जैसे कई और लोग थे जो अपने बेटे, अपने पति, अपने भाई को खोज रहे थे इसलिए मैंने और परवेज़ इमरोज़ ने मिलकर एपीडीपी की स्थापना की।’ वह फिलिपिंस, थाईलैंड, इंडोनेशिया, लंदन, कंबोडिया जैसे कई देशों में भी मानवाधिकार के मुद्दे पर बोलने जा चुकी हैं। इतना ही नहीं उन्होंने ऑक्सफर्ड और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में कश्मीर में गायब हुए लोगों के संबंध में लेक्चर भी दिया है।
एपीडीपी के मुताबिक जम्मू-कश्मीर के लगभग 8000 लोग ऐसे हैं जो लापता हैं। कश्मीर में आफ्सपा लागू होने के बाद साल 1990 से लोगों के गुमशुदा होने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक नहीं थमा। यूनाइटेड नेशन डिक्लरेशन ऑन द प्रोटेक्शन ऑफ ऑल पर्सन फ्रॉम इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस (18 दिसबंर, 1992) के मुताबिक इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस मानवाधिकार उल्लंघन की श्रेणी में आता है। यूनाइटेड नेशन के अनुसार इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस का मतलब है किसी शख्स को उसकी मर्ज़ी के बगैर गिरफ्तार करना, हिरासत में लेना या अगवा करना और राज्य द्वारा उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर देना। साल 2007 में भारत ने इंटरनैशनल कंवेशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ ऑल पर्सन फ्रॉम इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस पर हस्ताक्षर तो किया था लेकिन इसे पूरी तरह लागू करने में असफल रहा है। इनफोर्स्ड डिसअपियरेंस के बस कुछ ही मामलों की अब तक जांच हुई है।
परवीना एंगर को कश्मीर की आयरन लेडी के रूप में भी जाना जाता है पर वह कहती हैं कि कश्मीर की हर वो औरत आयरन लेडी है जो अपनों को खोज रही है। उनके मुताबिक यह उनकी अकेले की लड़ाई नहीं है क्योंकि उनकी तरह ही न जाने कितनी ही मांए अपने बेटों का इंतज़ार कर रही हैं। वह हर मामले से खुद को इतना जुड़ा हुआ इसलिए पाती हैं क्योंकि वह गुमशुदा लोगों के अधिकारों के लिए लड़ रही सिर्फ एक एक्टिविस्ट नहीं बल्कि खुद भी एक पीड़ित हैं।
तस्वीर साभार : rafto