ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लैटफॉर्म्स जैसे अमेज़न प्राइम, नेटफ्लिक्स, हॉट स्टार आदि ने इंटरनेट के ज़रिए सीधे दर्शकों तक पहुंच बनाकर मनोरंजन जगत में एक तरह की क्रांति ला दी है। हालांकि इन प्लैटफॉर्म्स पर स्ट्रीम होने वाले कंटेंट को देखें तो हम पाएंगे की अधिकतर वेब सीरीज़ में हिंसा, स्त्री शोषण, गाली जैसी चीज़ें सामान्य रूप से मौजूद हैं। यहां स्ट्रीम होने वाला भारतीय वेब सीरीज़ के कंटेंट की सफ़लता उसकी कहानी और निर्देशन नहीं बल्कि उसमें शामिल सेक्स सीन्स और मार-पीट की घटनाओं से ही तय हो रही है। पाताल लोक, मिर्ज़ापुर, सेक्रेड गेम्स जैसी कई ऐसी सीरीज़ हैं जिनमें हिंसा और सेक्स सीन्स को हटा दिया जाए तो शायद ही उनमें कोई पुख्ता कहानी बचे।
देखा जाए तो यह उसी बड़ी बहस का हिस्सा है कि आखिरकार सिनेमा का स्वरूप और उद्देश्य क्या हो। इस बारे में निर्देशक और निर्माता अक्सर यह कहते हैं कि समाज जैसा है, वैसा ही उन्होंने अपनी सीरीज़ में दिखाने की कोशिश की है। समाज में हिंसा, मार-काट, यौन हिंसा जैसी घटनाएं होती रहती हैं, इसलिए कहानी में भी इन्हें दिखाते हैं ताकि लोग असलियत से जुड़ पाएं। इस बारे में गीतकार और कॉमिक वरुण ग्रोवर की अलग राय है। वे कहते हैं, “यह पूरी तरह से लेखक और शो निर्माताओं पर निर्भर करता है कि वे वास्तविकता को कलात्मक मूल्यों यानी आर्टिस्टिक एथिक्स के साथ संतुलित करें। कोई भी आराम से यह कहकर निकल सकता है कि लोग गाली देते हैं और यह सब दिखाकर हम वास्तविक समाज को ही दर्शाने की कोशिश रहे हैं। लेकिन मेरा विश्वास है कि इसमें किसी स्तर पर आपकी निजी राजनीति भी शामिल होती है। आपको ज़रूरत है एक ऐसा तरीका खोजने की, जिसमें समाज की सड़ी-गली सोच और स्त्री-द्वेष पर टिप्पणी इस तरह की जाए कि वह ‘ट्रिगरिंग’ न हो।”
और पढ़ें : फ़िल्म रात अकेली है : औरतों पर बनी फ़िल्म जिसमें नायक हावी है न
अमेज़न प्राइम पर स्ट्रीम हो चुकी वेब सीरीज़ मिर्ज़ापुर का दूसरा सीज़न 23 अक्टूबर को रीलीज़ होने वाला है। इसका पहला सीज़न एक ब्लॉकबस्टर साबित हुआ था इसलिए इसके दूसरे सीज़न का इंतज़ार दर्शकों को बेसब्री से था। मिर्ज़ापुर की कहानी उत्तर प्रदेश के एक ज़िले मिर्ज़ापुर में व्यापार, गुंडागर्दी, राजनीति-पुलिस-माफ़िया नेक्सस की कहानी है जिसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। मिर्ज़ापुर की कहानी उन कहानियों में से एक है, जिनमें ग़ैर ज़रूरी सेक्स सीन्स और आवश्यकता से अधिक हिंसा भरी गई है। इसके हर दूसरे सीन और डायलॉग के माध्यम से पितृसत्ता और स्री-द्वेष झलकता है। महिलाओं के किरदार ‘मेल गेज़’ से नियंत्रित हैं। वे पुरुषों की सहयोगी के अलावा कुछ और नहीं हैं। उनके किरदार की कोई आवाज़ नहीं है। वे एक ‘सेक्स सिंबल’ भर हैं। यह सब कुछ भारतीय दर्शक बिना किसी लाग-लपेट के स्वीकार कर रहे हैं क्योंकि हमारी वैचारिकी में यह भरा गया है कि औरत की जगह दिन में केवल रसोई में है और रात में पुरुष के नीचे बिस्तर पर है। वह अपनी इस भूमिका से आज़ाद नहीं हो सकती। वह परिवार की ‘इज़्ज़त तो’ है लेकिन उसकी कोई इज़्ज़त नहीं है।
इस सीरीज़ के पहले सीज़न में पांच महिलाएं हैं और इनमें से एक भी सशक्त-स्वतंत्र किरदार नहीं है, न ही वह सामूहिक रूप से एक मज़बूत स्वर बन पाती है। मिर्ज़ापुर के मालिक ‘कालीन भईया'(पंकज त्रिपाठी) और उनके बेटे (दिव्येन्दु शर्मा) का पूरा साम्राज्य है। असलहे और नशे का व्यापार करते हुए उन्होंने अनेक दुश्मन बना लिए हैं। बीना (रसिका दुग्गल) कालीन भईया की दूसरी बीवी हैं। कालीन भईया अपनी पत्नी को संतुष्ट नहीं कर पाते जिसका वे प्रतिवाद करती हैं। उसके जवाब में पित्तृसत्ता से ग्रस्त जवाब देते हुए वे कहते हैं, “ज़्यादा गर्मी है, चकले पर चढ़ा दें।” असल में, भारत में पुरुष का अहम किसी भी बात पर आहत हो जाता है और हर बात को वह ‘मर्दानगी’ पर सवाल की तरह लेता है। उसे यह स्वीकार करना सबसे कठिन लगता है कि वह एक ‘औरत’ को संतुष्ट नहीं कर पा रहा है।
और पढ़ें : औरतों की अनकही हसरतें खोलती है: लस्ट स्टोरी
मिर्ज़ापुर की कहानी उन कहानियों में से एक है, जिनमें ग़ैर ज़रूरी सेक्स सीन्स और आवश्यकता से अधिक हिंसा भरी गई है। इसके हर दूसरे सीन और डायलॉग के माध्यम से पितृसत्ता और स्री-द्वेष झलकता है।
इस सीरीज की कहानी में महिलाएं एक वस्तु से अधिक कुछ भी नहीं हैं। एक सीन में, जब मुन्ना (दिव्येन्दु शर्मा) कहीं से खीझ कर आता है, बीना उसके कमरे में नौकरानी को भेजती है, यानी सेक्स करने से पहले ‘कंसेंट’ जैसा कुछ महत्वपूर्ण नहीं है। औरत पुरुष की दासी है और यह सब तब और गहरा हो जाता है,जब महिला तथाकथित निचली जाति की हो। पुरुष की किसी भी मनोस्थिति की भुक्तभोगी स्त्री है। अन्य महिला किरदारों में स्वीटी (श्रेया पिलगांवकर), गोलू (श्वेता त्रिपाठी) और डिम्पी (हर्षिता गौर) और शीबा चड्ढा हैं। वे ‘कालीन भईया’ के प्रतिद्वंद्वी गुड्डू( अली फ़ज़ल) और बबलू (विक्रांत मेसी) की संबंधी हैं। गोलू छात्र संघ का चुनाव लड़ती है, लेकिन उसे यह चुनाव उसे इसलिए लड़वाया जाता है ताकि मुन्ना भईया के सामने कोई प्रतिद्वंद्वी हो। बाद में, गुड्डू-बबलू की दुश्मनी और अन्य कारणों से मिलकर गोलू चुनाव के लिए गंभीर हो जाती है लेकिन चुनाव की पूरी रणनीति बबलू ही तैयार करता है, वह गोलू की रक्षा करता है।
और पढ़ें : ‘शकुंतला देवी’ : पितृसत्ता का ‘गणित’ हल करती ये फ़िल्म आपको भी देखनी चाहिए
इस सीरीज में समाज द्वारा गढ़े पारंपरिक पैमानों से हटकर कुछ नहीं दर्शाया गया है यानी पुरूष ही महिला का रक्षक है। शीबा चड्ढा भी अपने लड़कों के हर गलत-सही काम को जायज़ ठहराती हैं और घर के किसी भी फैसले में उनकी कोई भागीदारी नहीं होती। डिम्पी का किरदार बस इतना दिखाया गया है कि कि मुन्ना भईया के आदमी उसे उठाकर ले जाते हैं जहां उसे बचाने के लिए उसके दोनों भाई आते हैं। यानी कुल मिलाकर इस सीरीज के पहले सीज़न में महिलाएं कमज़ोर, रूढ़िवादी, भोली और नाजुक छवि से बाहर नहीं निकल पाती हैं। कुछ जगहों पर स्वीटी के डायलॉग उसके चयन को दर्शाते हैं जहां वह मुन्ना के प्रपोज़ल को नकारकर साफ़ कहती है, “तुम हमसे प्यार करते हो, लेकिन हम तुमसे प्यार नहीं करते।”
इस सीरीज में हिंसा भी कई बार ग़ैर-ज़रूरी लगती है। हर किरदार यूंही गोलियां दागता रहता है, सीरीज़ में हर छोटी बात पर बंदूक निकाल ली जाती है। भारत में ओटीटी प्लैटफॉर्म्स की अधिकतर सीरीज़ में भर-भरकर गालियां हैं। गालियां एक ही लिंग की ओर केंद्रित होती हैं यानी महिला विरोधी। ये सीरीज़ न केवल कई बार वास्तविकता से दूर नज़र आती है, बल्कि दर्शकों के सामने बहुत सारी चीजें रखकर उसका सामान्यीकरण करती हैं। ख़ैर, मिर्ज़ापुर सीज़न 2 आ रहा है, इसके ट्रेलर में स्त्री-केंद्रित गालियों की मात्रा में और इज़ाफा हुआ है। साथ ही, बीना (रसिका दुग्गल) अपने ससुर द्वारा अपने बलात्कार और उसमें निहित पितृसत्ता को स्वर देते हुए कहती दिख रही हैं, शेर की उमर ज़्यादा है, लेकिन शेर अभी बूढ़ा नहीं हुआ है।” परिवार में इज़्ज़त और मान-मर्यादा के नामपर न जाने कितनी ही महिलाओं का शोषण और बलात्कार होता आया है, यह सीरीज़ सभी तरह की ज्यादतियों का सामान्यीकरण करती है।
पितृसत्ता तले दबा यह समाज महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करता है। यह असल में अनजाने में नहीं होता बल्कि इसके पीछे एक बड़ा कारण होता है। इन ऑनलाइन प्लैटफॉर्म्स ने दर्शकों को यह अवसर दिया है कि वे बिना किसी सेंसरशिप के हर तरह का कंटेंट देख पाएं। हालांकि ओटीटी प्लैटफॉर्म्स पर सेंसरशिप की बहस अपने-आप में बेहद व्यापक है और इसके कई पहलु हैं। लेकिन इन प्लैटफॉर्म्स पर दर्शकों को पारंपरिक समाज की गढ़ी हुई की चादर ओढ़कर नहीं रहना पड़ता। इन निर्माताओं और कॉरपोरेट व्यापारियों ने दर्शकों की नब्ज़ पकड़ ली है। भारतीय समाज में हमेशा से सेक्स को लेकर एक अंतहीन चुप्पी रही है। हमारे समाज में व्याप्त रूढ़ीवादी सोच के कारण लोग सेक्स को लेकर खुल नहीं पाते और यह धीरे-धीरे एक कुंठा का रूप ले लेती है। इसी का फ़ायदा ये कॉरपोरेट व्यापारी उठाते हैं। इससे निपटने के लिए भारत में ‘सेक्सुअल रिवोल्यूशन’ की ज़रूरत है, जो हाल-फिलहाल में बढ़ते धार्मिक अतिवाद में तो शायद मुमकिन नहीं है।