श्वेता प्रजापति
भारतीय समाज में शुरूआती दौर से ही धर्म का बोलबाला रहा है| बात चाहे पूजा-अर्चना की हो या अपने कर्तव्य की इन सभी को हमेशा से धर्म से जोड़कर देखा गया है| अब जमाना बदल रहा है लेकिन धर्म का अस्तित्व आज भी जस का तस कायम है| पर जैसे ही धर्म के नाम के आगे मासिक शब्द जुड़ता है तो हमें चुप्पी मार जाती है| इसकी कई वजहें – पहला यह कि इसका ताल्लुक महिलाओं से है जो वैसे ही पितृसत्ता में वर्जित होती है| दूसरा, महिलाओं के ऊपर इस मुद्दे को लेकर शिंकजा सिर्फ चुप्पी से कायम किया जा सकता है, इसलिए इसे गंदी बात बताकर इसपर बात करना भी हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है| क्योंकि समाज इस बात को अच्छी तरह जानता है कि अगर इसपर चर्चा होने लगी तो महिलाओं के ऊपर थोपी गयी तमाम दकियानूसी बातों-आदतों का खंडन हो जायेगा, जिसे पितृसत्ता ने सदियों की मेहनत के बाद ‘मासिकधर्म को गंदी बात’ बताकर महिलाओं के व्यवहार में लाया है| यही वजह है कि मासिकधर्म पर हमारे समाज में चर्चा नहीं होती है। अगर आप मेन्सट्रूएशन, पीरियड या मासिक धर्म इन शब्दों को किसी आदमी या दुनिया के सामने कहेंगी, तो लोग आपको ऐसे देखेंगे जैसे आपने समाज-देश के खिलाफ कोई आतंक वाली बात कह दी हो |
मासिकधर्म पर अचार नहीं विचार खट्टे है
एक औरत के शरीर में हर महीने होने वाले इस हार्मोनल चेंज का दुनिया में इतना भौकाल मचता है जैसे ये कोई पाप हो। बेचारी औरत को पूरी दुनिया से हर वक़्त इसे छिपाना पड़ता है। पीरियड्स या मासिकधर्म को इतनी अतरंगी चीज़ बनाने के पीछे कुछ कारण हमारी सोच भी है। कुछ लोग इसे ‘बीमारी’ मानते हैं, तो कोई इस वक़्त में औरत को ‘अछूत’ कहता है।
मासिकधर्म पर हमारे समाज में चर्चा नहीं होती है।
महिलाओं का मासिकधर्म या माहवारी एक सहज वैज्ञानिक और शारीरिक क्रिया है। किशोरावस्था से शुरू होने वाली यह नियमित मासिक प्रक्रिया सामान्य तौर पर अधेड़ावस्था तक चलती रहती है। लेकिन भारत के ज्यादातर हिस्सों में मासिकधर्म के दौरान महिलाओं पर लगाई जाने वाली सामाजिक पाबंदियों और अछूतों जैसे व्यवहार की वजह से हर महीने तीन-चार दिनों का यह समय किसी सजा से कम नहीं है। माहवारी के दौरान महिलाएं न तो खाना पका सकती हैं और न ही दूसरे का खाना या पानी छू सकती हैं। उनको मंदिर और पूजा-पाठ से भी दूर रखा जाता है। कई मामलों में तो उनको जमीन पर सोने के लिए मजबूर किया जाता है। यहां तक की महिलाओं को घर से बाहर उन्हें अलग स्थान पर रहना पड़ता है। मासिकधर्म पर समाज की ऐसी सोच अचार से भी ज्यादा खट्टे है। इसके पीछे आम धारणा यह है कि इस दौरान महिलाएं अशुद्ध होती हैं और उनके छूते ही कोई चीज अशुद्ध या खराब हो सकती है।
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मासिकधर्म पर कुछ अलग सोच भी है हमारे समाज में
जहाँ एक ओर हमारे समाज में मासिकधर्म को लेकर रूढ़ियाँ कायम की गई है| वहीं दूसरी ओर हमारे ही समाज में ऐसी कई जनजातियाँ हैं, जिनमें लड़कियों के प्रथम मासिक धर्म को ‘रूठू सदंगू’ नामक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। वार्षिक रूप से मनाए जाने वाला यह आठ दिवसीय उत्सव उन तमाम लड़कियों के लिए होता है, जो उस वर्ष कन्या से किशोरी या स्त्री बनने का प्रथम चरण पार करती हैं। इन पारिवारिक उत्सवों में माता-पिता दोनों ही पक्ष के लोग और उन लड़कियों की सहेलियाँ भी शामिल होती हैं। कुमकुम और आम के पत्तों से घर को सजाया जाता है। लड़की को हल्दी के विशेष जल से नहलाया जाता है और फिर सजाया जाता है। कुछ रीति-रिवाजों के बाद शृंगार के सभी प्रसाधन, वस्त्र, उपहार और पैसे लड़की को भेंट किए जाते हैं। यह उसी तरह का अनुष्ठान होता है, जैसे हमारे सभ्य समाजों में जन्मदिन मनाया जाता है। इन जनजातियों के लिए यह अवसर लड़की का दूसरा जन्म माना जाता है। इस उत्सव के माध्यम से यह मान लिया जाता है कि उनके समुदाय में एक और कन्या ने स्त्रीत्व के गुणों को प्राप्त कर लिया है। इसलिए वे अपने समुदाय की लड़कियों का धन्यवाद ज्ञापन करते हैं। भारत के बाहर मोरोक्को में भी इस प्रकार की प्रथा है। जापान में विशेष प्रकार के भोजन द्वारा पारिवारिक स्तर पर इसे स्वीकार किया जाता है।
जैसे ही धर्म के नाम के आगे मासिक शब्द जुड़ता है तो हमें चुप्पी मार जाती है|
मासिकधर्म पर टूटने लगे है मिथक
समाज में फैले मासिकधर्म से जुड़े अनेक मिथक हैं और उनका मूल कारण स्त्री का शरीर और उनमें होने वाली एक सहज घटना है, पर आशा की किरण यहाँ दिखाई देती है कि इस टैबू को खत्म करने के प्रयास में स्त्रियाँ अब अपनी आवाज उठा रही हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर लेख, तस्वीरों एवं विचारों के माध्यम से इस रूढ़ि को खत्म करने की एक जागरूक मुहिम की लहर-सी दिखाई देती है। मासिकधर्म से जुड़ी रूढ़ियों को पूरी तरह से खत्म करने का सपना तभी साकार किया जा सकता है, जब हर इंसान इस समस्या को जड़ से मिटाने की जिम्मेदारी ले।
इस लेख को श्वेता प्रजापति ने लिखा है, जो कि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की छात्रा रही हैं और ये लेख पहले मुहीम में प्रकाशित हो चुका है|