साल 2009 में रानी अब्बक्का नामक गश्ती पोत को भारतीय तटरक्षक बल में शामिल किया गया है।
क्या आपको यह नाम कुछ सुना हुआ सा नहीं लगता? आमतौर पर ‘रानी’ शब्द सुनते ही रानी लक्ष्मीबाई का ख्याल आता है या फिर रानी अवंतिबाई और रानी दुर्गावती के नाम दिमाग में आते हैं। लेकिन रानी अब्बक्का? आखिर यह रानी अब्बक्का कौन हैं जिनके नामपर इस शिप का नाम रखा गया है ? तो आइए मिलकर जानते हैं रानी अबबक्का के बारे में।
अभया रानी अब्बक्का चौटा
अब्बक्का का जन्म उल्लाल (कर्नाटक में स्थित एक नगर) के चौटा राजघराने में हुआ था। चौटा वंश मातृवंशीय परंपरा का पालन करता था। ज़ाहिर है कि मातृवंशीय परंपरा एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें परिवार की स्त्रियों का ओहदा प्रमुख होता था और संपत्ति व शासन का हक बेटों के बजाय बेटियों को दिया जाता था। इसी परंपरा के मुताबिक अब्बक्का के मामा तिरुमला राय ने उन्हें उल्लाल नगर की रानी घोषित किया। रानी अब्बक्का को युद्ध लड़ने और शासन व्यवस्था संभालने का अच्छा खासा प्रशिक्षण दिया गया था।
उनके शासन में जैन, हिंदू और मुस्लिम धर्म के लोग समान रूप से रहते थे। उनकी सेना में भी सभी धर्मों , जातियों और समुदायों के लोग थे। लोककथाओं की मानें तो वे एक न्यायप्रिय रानी थीं और इसी कारण उनकी प्रजा उन्हें बहुत पसंद भी करती थी। ऐसा भी माना जाता है कि रानी अब्बक्का लड़ाई में अग्निबाण का उपयोग करने वाली आखिरी शख्स थीं। उनकी अच्छाइयों और वीरता के कारण ही उन्हें ‘अभया रानी’ भी कहा जाता था। मतलब एक ऐसी बहादुर रानी जो किसी से नहीं डरती।
पुर्तगालियों के ख़िलाफ़ मोर्चा
रानी अब्बक्का के मामा तिरुमला राय ने उनकी शादी मैंगलुरु की बंगा रियासत के राजा लक्षमप्पा अरसा के साथ करवाई। लेकिन शादी के कुछ ही समय बाद रानी अब्बक्का अपने पति से अलग हो गईं और वापिस उल्लाल आ गईं। उन्हें शायद अंदाज़ा भी नहीं था कि आने वाले समय में उनके पति लक्षमप्पा इस बात का बदला लेने के लिए उनके खिलाफ लड़ाई लड़ने में पुर्तगालियों का साथ देंगे।
रानी अब्बक्का लड़ाई में अग्निबाण का उपयोग करने वाली आखिरी शख्स थीं।
साल 1525 में पुर्तगालियों ने दक्षिण कन्नड़ के तट पर हमला किया और मैंगलुरु के बंदरगाह को तबाह कर दिया। लेकिन वे उल्लाल पर कब्ज़ा नहीं कर पा रहे थे। रानी अब्बक्का की रणनीतियों से परेशान होकर पुर्तगालियों ने उनपर यह दबाव बनाने की कोशिश की कि रानी उन्हें ‘कर’ ( टैक्स ) चुकाए। लेकिन रानी अब्बक्का ने समझौता करने से साफ़ इंकार कर दिया। जिसके बाद साल 1555 में पुर्तगालियों ने लड़ाई लड़ने की कोशिश की लेकिन रानी अब्बक्का उन्हें हराने में कामयाब रहीं।
साल 1557 में पुर्तगालियों ने मैंगलुरु को लूटकर बर्बाद कर दिया। साल 1568 में वे उल्लाल पर हमला करने के लिए आए लेकिन रानी अब्बक्का ने फिर से ज़ोरदार विरोध किया। पर इस बार पुर्तगाली सेना उल्लाल पर कब्ज़ा करने में सफल रही और राज दरबार में घुस आई। रानी अब्बक्का वहाँ से बचकर निकलीं और उन्होंने एक मस्जिद में शरण ली। उसी रात करीब 200 सैनिकों को इकट्ठा करके रानी अब्बक्का ने पुर्तगालियों पर धावा बोल दिया और उस लड़ाई में पुर्तगाली सेना का जनरल मारा गया, कई पुर्तगाली सैनिक बंदी बना लिए गए और कई पुर्तगाली सैनिक लड़ाई से पीछे हट गए। उसके बाद रानी अब्बक्का ने अपने साथियों के साथ मिलकर पुर्तगालियों को मैंगलुरु का किला छोड़ने पर मजबूर कर दिया। लेकिन साल 1569 में पुर्तगालियों ने न सिर्फ मैंगलुरु का किला दोबारा हासिल कर लिया बल्कि कुन्दपुरा ( कर्नाटक के एक नगर ) पर भी कब्ज़ा कर लिया। पर इन सबके बावजूद रानी अब्बक्का पुर्तगालियों के लिए एक बड़ा खतरा बनी हुई थीं।
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इस दौरान रानी अब्बक्का के पति लक्षमप्पा ने उनसे बदला लेने के लिए पुर्तगालियों की मदद की और पुर्तगाली सेना उल्लाल पर फिर हमला करने लगी। लेकिन रानी अब्बक्का अब भी मोर्चे पर डटी रहीं। उन्होंने साल 1570 में पुर्तगालियों का विरोध कर रहे अहमदनगर के सुल्तान और कालीकट के राजा के साथ गठबंधन कर लिया। कालीकट के राजा के जनरल ने रानी अब्बक्का की ओर से लड़ाई लड़ी और मैंगलुरु में पुर्तगालियों का किला तबाह कर दिया। लेकिन वहाँ से लौटते वक्त जनरल पुर्तगालियों के हाथों मारे गए। इन सब नुकसानों और अपने पति लक्षमप्पा के धोखे के चलते रानी अब्बक्का लड़ाई हार गईं और उन्हें कैदी बना लिया गया। लेकिन ऐसा कहा जाता है कि कैद में भी रानी अब्बक्का विद्रोह करतीं रहीं और लड़ते – लड़ते ही उन्होंने आखिरी सांस ली।
सशक्त महिला की उदाहरण अबबक्का
रानी अब्बक्का चौटा का स्थान न सिर्फ इतिहास में महत्वपूर्ण है बल्कि वे आज के समय में भी एक सशक्त महिला के रूप में बेहतरीन उदाहरण हैं। राजनीति और शासन व्यवस्था संभालने की उनकी काबिलियत उन्हें एक सफल शासक तो साबित करती ही है, इसके साथ ही उनके शासन और सेना में सभी धर्मों और जातियों के लोगों की भागीदारी होने से यह कहा जा सकता है कि वे अपने समय में एक सेक्युलर रानी रही होंगी।
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यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण ही है कि पीढ़ी – दर – पीढ़ी लोककथाओं और लोकगीतों के द्वारा उनकी कहानी सुनाई जाती रही है। ‘यक्षगान’ जो कि कर्नाटक की एक पारंपरिक नाट्य शैली है – के ज़रिए भी रानी अब्बक्का की बहादुरी के किस्सों को बताया जाता रहा है। इसके अलावा, ‘भूतकोला’ जो कि एक स्थानीय पारंपरिक नृत्य शैली है – में भी रानी अब्बक्का को अपनी प्रजा का ध्यान रखने वाली और इंसाफ करने वाली रानी के रूप में दिखाया जाता है।
वीर रानी अब्बक्का उत्सव
आज भी रानी अब्बक्का चौटा की याद में उनके नगर उल्लाल में उत्सव मनाया जाता है और इस ‘वीर रानी अब्बक्का उत्सव’ में प्रतिष्ठित महिलाओं को ‘वीर रानी अब्बक्का प्रशस्ति’ पुरस्कार से नवाज़ा जाता है।
कैद में भी रानी अब्बक्का विद्रोह करतीं रहीं और लड़ते – लड़ते ही उन्होंने आखिरी सांस ली।
पुर्तगालियों से लोहा लेने वाली रानी अब्बक्का चौटा को भारत की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी माना जा सकता है और जहाँ भारतीय इतिहास के इतने राजाओं के बारे में हमें पढ़ाया जाता रहा है।
वहीं रानी अब्बक्का और उनकी जैसी महिला शासकों और वीरांगनाओं की कहानियां भी हमारे इतिहास की किताबों में एक अच्छी जगह की हक़दार हैं। ताकि ‘रानी’ शब्द सुनते ही सिर्फ रानी लक्ष्मीबाई, रानी अवंतिबाई और रानी दुर्गावती ही नहीं बल्कि रानी अब्बक्का चौटा और उन रानियों के नाम भी हमारे ज़ेहन में आएं जिनकी कहानियां फ़िलहाल इतिहास के पन्नों पर धुंधली हो चुकी हैं।