नौकरी का पहला साल डेस्क पर ही बीता। इस दौरान यह एहसास हो गया था कि डेस्क हो या फील्ड एक महिला पत्रकार का दोनों जगह होना अपने आप में एक चुनौती है। मसलन, अगर आप एक महिला हैं तो डेस्क पर आपको सबसे पहले धर्म-कर्म, बॉलीवुड, लाइफस्टाइल जैसी बीट्स थमा दी जाती है। फील्ड पर महिला पत्रकार को भेजने से पहले दस बार संपादक सुरक्षा का बहाना बनाते नज़र आते हैं। खैर, डेस्क से निकलकर जब बतौर एक फ्रीलांसर काम करना शुरू किया तो एक-एक कर वे चुनौतियां सामने आने लगीं। कल अंतरराष्ट्रीय संस्थान ब्रेकथ्रू की तरफ से लैंगिक संवेदनशीलता के लिए मेरी एक रिपोर्ट को पुरस्कृत किया गया। बतौर महिला रिपोर्टर पुरस्कार तक पहुंचने का सफर कठिन होता है। मुझे आज भी वह दिन याद है जिस दिन मैंने गया के पटवा टोली की इस रिपोर्ट को कवर करने का फैसला किया था। पटवा टोली का यह मामला कथित रूप से पहले गैंगरेप और फिर ऑनर किलिंग का बन गया था। पुलिस के बयान इस केस पर रोज़ बदल रहे थे।
जब मेरे परिवार को पता चला कि मैं हत्या और रेप की खबर कवर करने दूसरे शहर जाना चाहती हूं तो उन्होंने पहले साफ इनकार किया, लेकिन यहां मैं उनसे इजाजत नहीं मांग रही थी बल्कि मैंने गया की टिकट करा के उन्हें बस सूचित कर देना चाहती थी। गया के लिए पटना से ईएमयू ट्रेनें चलती हैं जिनमें बेतहाशा भीड़ होती है। एक बार सातवीं क्लास में ईएमयू से पापा के साथ सफर किया था। उस दो घंटे के सफर में तीन बार अलग-अलग लोगों ने मेरे स्तनों और नितंबों को छूने की कोशिश की थी। मुझे इसका अंदेशा पूरी तरह था कि मुझे ग्राउंड पर पहुंचने से पहले ही इन चीज़ों से ट्रेन में ही गुज़रना होगा।
खैर, अगली सुबह 5 बजे ट्रेन के लिए मैं घर से निकली, जनवरी का मौसम होने के कारण ठंड और कोहरा जबरदस्त था। ट्रेन में बैठने से पहले एक धुकधुकी-सी लगी थी जबकि इससे पहले मैं हमेशा अकेली ही यात्रा करती रही हूं। दिमाग में बार-बार आ रहा था कि अगर कुछ हुआ तो मैं इनसे यह भी नहीं कह पाऊंगी की मैं प्रेस से हूं क्योंकि फ्रीलांसर के पास आईकार्ड नाम का प्रिवलेज मौजूद नहीं होता और बिहार के उस छोटे से शहर में मैं लोगों को कहां तक समझाती फिरूंगी कि फ्रीलांसर भी प्रेस से ही होते हैं बस उन्हें पिसना ज़्यादा पड़ता है। ठंड का मौसम और सुबह की ट्रेन, सब के सब पैसेंजर्स उंघ रहे थे। मैं अपना लैपटॉप बैग जकड़ एक कोने में बैठी थी। दो घंटे की वह यात्रा कब खत्म हुई पता ही नहीं चला और उस दौरान ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसका मुझे डर था। स्टेशन पर उतरते वक्त मैं यही सोच रही थी कि अगर मेरी जगह कोई मर्द रिपोर्टर होता तो वह कितनी बेफिक्री के साथ ट्रेन में सो जाता। लेकिन मुझे अपनी आंखें खोलकर रखनी पड़ी।
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मेरा इरादा एक दिन में ही रिपोर्ट खत्म कर अगले दिन सुबह की ईएमयू पकड़कर घर वापस लौटने का था। हालांकि जब आप फील्ड पर होते हैं तो कुछ भी आपकी सोच के हिसाब से नहीं होता। अपना सामान एक पहचान वाले के घर रखकर मैं पटवा टोली के लिए निकल गई। वहां पहुंचकर ही ऐसा लग रहा था जैसे कुछ बहुत बड़ा हुआ है। लोग बात करने में हिचकिचा रहे थे, घरों के दरवाजें बंद थे। एक अजीब तरह का सन्नाटा पसरा था मातम वाला सन्नाटा। बता दूं कि गया के पटवा टोली में 15 साल की बच्ची की क्षत-विक्षत लाश मिली थी। पुलिस ने पहले दावा किया था कि बच्ची की रेप के बाद हत्या की गई है लेकिन बाद में पुलिस ने हत्या के आरोप में बच्ची के पिता और उसके दोस्त को ही ऑनर किलिंग के आरोप में गिरफ्तार कर लिया| मेरी उस रिपोर्ट को आप यहाँ पढ़ सकते हैं|
पटवा टोली की शुरुआत में ही एक सामुदायिक भवन है। वहां मेरी मुलाकात पटवा समुदाय के नेताओं से हुई। एक लड़की जो दिखने में किसी कॉलेज की स्टूडेंट लग रही थी उसे रिपोर्टर मानने में वहां के लोगों में एक हिचकिचाहट थी। मैं अपने सवालों के साथ तैयार थी पर वहां मुझे दस-बारह मर्द घेरकर खड़े थे जिनके पास मुझसे ज़्यादा सवाल थे। लेकिन इसके साथ ही केस को समझने में उन्होंने मेरी पूरी मदद की। करीब आधा घंटा वहां गुज़ारने के बाद मैंने मृतक बच्ची के घर जाने की इच्छा जताई। मेरी इस मांग के साथ ही उन सभी के बीच कानाफूसी शुरू हो गई। पांच मिनट की चर्चा के बाद वे मुझे उस बच्ची के घर ले जाने को तैयार हो गए। मैं इस दौरान बिल्कुल शांत रही क्योंकि मुझे पता था कि इन लोगों की इच्छा के विरुद्ध मैं बच्ची के घर नहीं जा पाऊंगी।
दो-तीन संकरी गलियों को पारकर मैं उस बच्ची के घर जा पहुंची। वहां अंधेरे में बच्ची की मां और तीन बहनें बैठी थी। मुझे देखते के साथ मृतक बच्ची की बड़ी बहन जैसे किसी रोबोट की तरह चालू हो गई। जैसे उसे रटा दिया गया हो कि अगर मीडिया वाले कुछ भी पूछें तो यही बोलना है। मैंने पहले उसे शांत करवाया और अपनी बोतल उसे दी। मैं उसे यह एहसास दिलाना चाहती थी कि मैं उससे और उसके परिवार से बात करने आई हूं, उसकी परेशानी समझने न कि सिर्फ यह पूछने की आपको कैसा लग रहा है। इस बीच बच्ची की मां का रोना शुरू हो गया था। वह चीख-चीखकर रो रही थी। वह अपनी बेटी के कटे अंगों की दुहाई देते हुए कह रही थी कि जिसे उन्होंने पैदा किया उसकी इतनी बेरहमी से हत्या करते हुए क्यों किसी का दिल नहीं पसीजा। उनकी आवाज से जैसे कमरें की दीवारें भी रो रही थी|
फील्ड पर महिला पत्रकार को भेजने से पहले दस बार संपादक सुरक्षा का बहाना बनाते नज़र आते हैं।
अंधेरे कमरे में मैं अपने आंसु छिपाने की कोशिश करती रही क्योंकि लोगों को रोते हुए रिपोर्टर अच्छे नहीं लगते। उन्हें लगता है कि हमारे अंदर भावनाएं मर चुकी हैं, हम बस उनकी कहानी कैमरे पर रिकॉर्ड कर चले जाएंगे। जबकि मेरा भावुक मन बार-बार रोने को हो रहा था। अपनी भावनाओं पर काबू कर मैं अपने सवालों पर ध्यान लगाने की कोशिश करने लगी पर एक चीखती हुई मां और तीन रोती हुई बहनों से मैं क्या सवाल करती और किस मुंह से करती। कुछ देर बाद बाहर से एक मर्द उन्हें झिड़कता हुआ अंदर आया और बोला, अगर रोती ही रहोगी तो मैडम लिखेंगी क्या? मैडम से उसका इशारा मेरी तरफ था। मैं यहां बताना चाहूंगी कि मैं जितनी देर उस परिवार के साथ रही, उतनी देर दरवाजे के बाहर छह-सात मर्द जमा रहे। वे बार-बार अंदर आकर चेक करके जाते कि मैं उनसे क्या पूछ रही हूं और वे मुझसे क्या बातें कर रही हैं। मुझे वे मर्द मेरे पूर्व संपादक जैसे नज़र आ रहे थे जिन्होंने कभी ये भरोसा जताया ही नहीं था कि एक महिला बेहतर रिपोर्टिंग कर सकती है।
मैं करीब दो घंटे उस परिवार के साथ रही, उसके बाद मैं वहां के स्थानीय थाने पहुंची। वहां पहुंचकर मैंने वहां के थानेदार से मिलने की इच्छा जताई जो उस वक्त वहां मौजूद नहीं थे। मेरी बातों को सुन एक सिपाही ने केस से संबंधित थोड़ी-बहुत जानकारी दे मामले को रफा-दफा करना ही ज़रूरी समझा। वहां से मैं निराश होकर लौट ही रही थी कि पटवा टोली के लोगों ने मुझे गया के एसएसपी से मिलने का सुझाव दिया। मैं तुंरत राजी हो गई। पटवा टोली के ही एक नागरिक के साथ मैं उसकी बाइक पर बैठ पुलिस स्टेशन तक गई। मेरा बिना हिचक के उनकी बाइक पर बैठना पटवा टोली के लोगों को खटका पर वही लोग एक पितृसत्तात्मक सोच के साथ ही सही पर मेरी मदद को राज़ी थे।
गया के एसएसपी से मिलने के लिए मुफस्सिल थाने पहुंचकर मेरा उत्साह ठंडा पड़ चुका था। मैं वहां पहुंच चुकी थी जहां सबसे पहले मुझसे मेरी प्रेस आईडी की मांग की जाती। दस मिनट तक मैं पुलिस थाने के गेट पर टहलती रही। दस मिनट बाद बची-खुची ताकत बटोरकर मैं गया के एसएसपी से मिलने पहुंच गई। गेट पर ही कुछ पुलिस वाले खड़े थे। उनमें से एक से मैंने गया के एसएसपी के बारे में पूछा। पुलिस के साथ किसी रिपोर्ट को लेकर मेरा यह पहला अनुभव था जो कि बहुत बुरा रहा। उस पुलिस वाले के साथ दो मिनट चली मेरी बातचीत मुझे आज भी बिल्कुल अच्छे से याद है
सर, पटवा टोली केस को लेकर गया एसएसपी से मिलना है।
पुलिसवाला- आप कौन?
मैं- सर, मैं रिपोर्टर हूं, दिल्ली से आई हूं।
पुलिसवाला- दिल्ली से सीधा थाना में कैसे टपक गई?
मैं- सर, टपकी नहीं सफर करके आई हूं।
पुलिसवाला- कहां रुकी हैं गया में?
मैं- यह जानना बिल्कुल आपका काम नहीं है सर।
पुलिसवाला- फिर भी बताइए, कहां रुकी हैं? घर या होटल में
मैं- जी होटल में
पुलिसवाला- कब तक हैं?
मैं- सर, सवाल पूछने का काम मेरा है। आप एसएसपी से मिलवा दें।
पुलिसवाला- सर बिज़ी हैं। आप जाइए यहां से।
मैं- इंतज़ार कर लूंगी मैं।
पुलिसवाला- बोला न बाद में आइए।
मैं- सर, मैं फिर आऊंगी।
पुलिसवाला- देख लेंगे।
उस पुलिसवाले ने ये बातें इतनी कठोरता से कहीं कि मेरा मन पूरी तरह मुरझा गया। मुझे ऊपर से नीचे तक घूरती उसकी आंखें, मेरी बातों पर मज़ाक उड़ानेवाले उसका तरीका, मेरे हर जवाब पर उसकी हल्की मुस्कुराहट। मेरे रिपोर्टर होने पर उसका शक और एसएसपी से न मिलने देना। इन सबके साथ मैं वापस अपने दोस्त के घर लौटने को तैयार हो गई। पुलिस थाने के गेट पर पहुंचकर मेरा मन एकबार फिर से एसएसपी से मिलने का हुआ पर उस पुलिसवाले की घूरती आंखें भी वही मौजूद थी जो मानो यह कह रही थी कि तुम अंदर नहीं जा पाओगी।
पितृसत्तात्मक समाज समझता है कि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक मुद्दों पर समझ सिर्फ और सिर्फ पुरुषों की जागीर है, अगर किसी महिला के पास समझ है भी तो वह ज़रूर उसके किसी मर्द साथी की बदौलत रही होगी।
यहां एक छह फुट वर्दी वाले के लिए मेरी रिपोर्ट या एसएसपी से मिलना ज़रूरी नहीं था बल्कि उसके लिए यह जानना ज़रूरी था कि दिल्ली से आई एक अकेली महिला रिपोर्टर बिहार के इस छोटे से ज़िले में आखिर रुकी कहां है। कई लोगों ने इसबात पर भी आश्चर्य जताया कि आखिर रेप और मर्डर तो हर दिन हो रहे हैं फिर भला दिल्ली से क्यों कोई खास इस घटना पर रिपोर्ट लिखने आएगा। उनका यह सवाल जायज़ भी था। हालांकि, एक लैपटॉप बैग के साथ एक लड़की आएगी उन्होंने ये नहीं सोचा था। उनके लिए मैं कहीं से भी एक रिपोर्टर नहीं थी। उन्हें लगा था कि दिल्ली से किसी बड़ी मीडिया हाउस की गाड़ी से रिपोर्टर माइक के साथ आएंगे और पांच मिनट की बाइट ले चलते बनेंगे। उनके लिए सर्वाइवर के परिवार के साथ वक्त बिताने वाली महिला रिपोर्टर, एक रिपोर्टर नहीं बल्कि मोहल्ले की कोई महिला थी जो उनके दुख में शामिल होने आई थी। मेरे सवाल, मेरी ज़रूरत, मेरा लिखना, दस्तावेज़ों की मांग करना हर चीज़ को काफी हल्के में लिया जा रहा था। लेकिन मैं इस रिपोर्ट के लिए हर वह चीज़ जुटाने में लगी थी जिसके ज़रिए उस बच्ची कहानी लोगों दिल्ली की मीडिया तक पहुंच सके।
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मेरे लिए वे घूरते और मेरा मज़ाक उड़ाते मर्द बिल्कुल गैर ज़रूरी थे। मेरे लिए ज़रूरी थी उस बच्ची की मां जिसने मुझे अपनी कहानी बताते हुए कहा था कि उनके पास इतनी देर कोई नहीं बैठा| बतौर महिला पत्रकार आपके सामने आपकी चुनौतियां सिर्फ फील्ड पर काम को लेकर नहीं होती बल्कि कदम-कदम पर आपको अपनी सुरक्षा का ध्यान भी रखना पड़ता है। किसी भी सोर्स पर भरोसा करने और उसके साथ कहीं जाने पर दो बार अधिक सोचना पड़ता है। अस्पताल या पुलिस स्टेशन जैसी जगह जाना पड़े तो आपको पहले हिकारत भरी नज़रों से देखा जाता है। इस रिपोर्ट के बाद भी कई सरकारी जगहों पर जाने का मौका मिला लेकिन हर जगह के हालात कमोबश एक से ही थे। इन सारी मुश्किलों के बीच सुकून तब मिलता है जब आपकी रिपोर्ट छपकर आती है और उसे सराहा जाता है। लेकिन यहां भी लोग आपकी कामयाबी देखकर ताना देते हैं- ‘ज़रूर किसी और ने लिखा होगा|’ क्योंकि यह पितृसत्तात्मक समाज समझता है कि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक मुद्दों पर समझ सिर्फ और सिर्फ पुरुषों की जागीर है, अगर किसी महिला के पास समझ है भी तो वह ज़रूर उसके किसी मर्द साथी की बदौलत रही होगी।
फील्ड और फील्ड के बाहर की चुनौतियों को झेलते-झेलते जब मैं मुड़कर देखती हूं तो पाती हूं कि इन चुनौतियों के कारण मेरा काम और बेहतर होता चला जाएगा जो इस पितृसत्तात्मक समाज को मेरा असली जवाब होगा।
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