समाजकैंपस डॉक्टर पायल ताडवी की हत्यारी है, हमारे समाज की सड़ी जातिगत व्यवस्था

डॉक्टर पायल ताडवी की हत्यारी है, हमारे समाज की सड़ी जातिगत व्यवस्था

जिस जहर के कारण डॉक्टर पायल तडवी को अपनी जान गँवानी पढ़ी वो जाति का जहर था, जो अपने चपेट में कितने ही अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को ले चुका है।

कहने को तो आज हम विकास के रास्ते में काफी आगे निकल चुके है| और अगर मैं ये कहूँ कि कुछ मायनों में इस विकास के सामने इंसान का अस्तित्व भी काफी धूमिल-सा हो चुका है तो ये कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी| खासकर अपने देश की मौजूदा स्तिथि देखकर ये बात सौ टके सही लगती है, जब हम आये दिन मोब लिंचिंग और जातिगत हत्या-हिंसा की घटनाएँ देख रहे हैं| अब एक इंसान की कीमत उसकी पहचान (समाज के बताये पैमानों के आधार पर) में और सबसे आसान संभावनाओं में समेट कर रख दी गई है। अब उसे महज एक वोट, महज एक संख्या और एक चीज़ की तरह दिखाया जाता है| वो चीज़ जिसके लिए ये माना जाता है कि उसमें दिमाग नहीं है और न वह सोच सकता है। वो बस सितारों से बनी हुई एक जगमगाती चीज़ है। हर मामले में, पढ़ाई में, सड़कों पर, सियासत में, मरने और जीने में.’ ये सारी बातें आज भी कानों में गुंजा करते है जब कभी भी जातीय हिंसा देखती हूं या कभी किसी छात्र को उसकी जाति की वजह से प्रताड़ित होते और आत्महत्या करते हुए देखती हो तो रोहित वेमुला के यही शब्द याद आते है।

आरक्षण के वास्तविक अर्थ को बिना समझे हम किसी को इतना प्रताड़ित करने में लग जाते है कि वो अपनी जान ले लेता हैं। जाति के कारण कितने छात्र-छात्राएं अपनी जान ले रहे है, लेकिन संस्थान व प्रशासन अपने हाथ बांधे हुए है। हाल ही में एक नया मामला आया जिसमें एक महिला डॉक्टर ने जातीय हिंसा से तंग आकर ख़ुदकुशी कर ली। डॉक्टर पायल तडवी नायर अस्पताल के टॉपिकल नेशनल मेडिकल कॉलेज में गायनोकोलॉजी एंडऑब्स्टेट्रिक्स  के सेकेंड ईयर में  पढ़ती थी। उसका आदिवासी होना उसके सीनियर्स को खलता था और इतना खलता था कि वह उसे तरह-तरह के ताने मारा करती थी औऱ जाति-सूचक फब्तियां भी कसा करती थी।

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21 वीं सदी की जातिगत व्यवस्था वाला हमारा पिछड़ा समाज

गौरतलब है कि ये 21वीं सदी का भारत है जहां आपका आदिवासी होना या किसी छोटे तबके से आना, ऊंची जाति वालो को अच्छा नहीं लगता। वे चाहते है आप हमेशा उसी परिवेश में रहे जहां आपका जन्म हुआ है। वे तीनों सीनियर्स डॉक्टर उसे आरक्षण सिस्टम का ताना देते थे, उसकी हंसी उड़ाते और उसे नीचा दिखाते थे। परिवार का कहना है कि 10 मई को उन्होंने पायल के साथ हो रहे दुर्व्यवहार की शिकायत अस्पताल प्रशासन से की थी, लेकिन इसपर कभी भी कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। पायल के माता-पिता ने अग्रीपाड़ा पुलिस थाने में डॉक्टर हेमा आहूजा, डॉक्टर भक्ति मेहर और डॉक्टर अंकिता खंडेलवाल के खिलाफ शिकायत दर्ज करा दी है लेकिन वे तीनों आरोपी फरार है।

मैं ये कहूँ कि कुछ मायनों में इस विकास के सामने इंसान का अस्तित्व भी काफी धूमिल-सा हो चुका है तो ये कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी|

जातिगत नासूरों का शिकार डॉक्टर तडवी

लेकिन जिस जहर के कारण डॉक्टर तडवी को अपनी जान गँवानी पढ़ी वो जाति का जहर था, जो अपने चपेट में कितने ही अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों को ले चुका है। डॉक्टर पायल के भी सपने थे बाकी बच्चों की तरह पर जाति सूचक फब्तियों के कारण उनके सारे सपने यहीं रह गए। जाति को लेकर गालियां देना और तरह-तरह के तंज मारना स्वर्ण वर्ग से आए लोगों का बस यही काम होता है औऱ इसके घिनौने रूप को हमलोग अपने घरों से लेकर सड़कों तक, यहाँ तक की सोशल मीडिया पर भी देख सकते है। इसतरह की घटना पहले भी हो चुकी है जब हमने रोहित वेमुला को खो दिया था| आखिरकार क्यों छात्र आत्महत्या करने पर मजबूर है औऱ संस्थानिक हत्याएँ क्यों तेजी से लगातार बढ़ती जा रही है। क्यों बड़े-बड़े संस्थान कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रहे है।

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इसका सबसे मुख्य कारण सामाजिक प्रवेश और शिक्षा नैतिकता का अभाव है। तथाकथित स्वर्ण समाज जाति को केवल आरक्षण से ही जोड़ता आया है औऱ सरकार की योजनाएं व उचित शिक्षा न देना भी इसके पीछे की वजह है। रोहित वेमुला औऱ डॉक्टर तडवी के बीच समानता यह भी थी कि वह दोनों ही छोटे तबके से आते थे औऱ दोनों ने अपनी जिंदगी में कुछ करना चाहते थे। हमारा देश इनकी मौत का जिम्मेदार है और इनकी संस्थानिक हत्या हमारे लिए कई सवाल छोड़ गई है। दुनियाभर में कई क्रांतिया हुई है औऱ उस क्रांति ने उसके समाज को बदला है लेकिन भारत जैसे देश ने अपने समाज में कोई बदलाव नहीं किए है।

दलितों के घोड़ी पर चढ़ने पर उनकी पिटाई कर दी जाती है, उन्हें जला दिया जाता है औऱ शिक्षा संस्थानों पर भी उनके साथ जातिय हिंसा होती है। हमारे पास कई सवाल है| साथ ही, शर्मिंदगी भी है, अपने भारतीय होने पर औऱ हिंदू धर्म पर जो जातीय व्यवस्था को खड़ा करता है जिसमे पायल औऱ रोहित वेमुला जैसे लोग आत्महत्या करने पर मजबूर है। अब समय है कि हम खुद तय करें कि ऐसी घटनाएँ आखिर कब तक हमारे समाज का हिस्सा बनी रहेंगीं|

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तस्वीर साभार : manoramaonline

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