इंटरसेक्शनल बचपन से ही बोये जाते है लैंगिक असमानता के बीज

बचपन से ही बोये जाते है लैंगिक असमानता के बीज

सामाजिक रूढ़िवादी सोच के आधार पर, छोटी बच्चियों को नाज़ुक बताकर, उन्हें बचपन से ही हल्के-फुल्के खेलों में आगे बढ़ाया जाता है।

भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक परिवेश में जिस नारी को “शक्ति” बताकर संबोधित किया जाता है, उसकी शक्तियों को गर्भ में ही खत्म कर दिया जाता है, ये इस संबोधन और इसके मायने की बीच एक बड़ी खाई है। जिन लड़कियों को अप्रत्याशित रूप से जन्म दिया भी जाता है, उन्हें पितृसत्तात्मक सोच को स्वीकार करके अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। जहां लड़कों के जन्म पर घरों में जश्न मनाया जाता है, वहीं लड़कियों के जन्म पर आज भी लोगों को निराशा होती है।

बचपन से ही लैंगिक असमानता के कारण बच्चों के साथ क्या भेदभाव होता है और उनकी मनोवैज्ञानिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है, आइए नीचे दिए गए बिंदुओं से जानते हैं –

1. कार्टून और फिल्मों से भेदभाव

जिस तरह से सालों से बॉलीवुड में फिल्मों और कार्टून का चित्रण किया जाता है, उससे बचपन में ही लड़कों और लड़कियों के सामाजिक काम उनके दिमाग में बैठा दिए जाते हैं। अगर किसी कार्टून में लड़कियों को शक्तिशाली दिखाया भी जाता है तो यह सच स्वीकारने में बच्चों को कठिनाई होती है। उदाहरण के तौर पर ‘छोटा भीम’ कार्टून में भीम को एक शक्तिशाली नायक प्रस्तुत किया गया है तो वहीं चुटकी को सहमा और डरा किरदार दिखाया गया है।

2. खेलों से होता है भेदभाव

सामाजिक रूढ़िवादी सोच के आधार पर, छोटी बच्चियों को नाज़ुक बताकर, उन्हें बचपन से ही हल्के-फुल्के खेलों में आगे बढ़ाया जाता है। अगर कुश्ती, मुक्केबाजी और कबड्डी जैसे खेलों में लड़कियां कदम बढ़ाने की कोशिश करती भी हैं तो उन्हें अभिभावक और शिक्षकों के दकियानूसी विचारों का शिकार होना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर अगर लड़के गुड्डे-गुड़ियों, किचन सेट व अन्य घरेलू खेलों को खेलना पसंद करते हैं तो उन्हें आंतरिक जटिलता महसूस करनी पड़ती है।

उदाहरण के तौर पर कुछ साल पहले तक बच्चों के लिए “किंडर जॉय” नाम से समान पैकेट आता था जिसे अब लिंग में विभाजित कर दिया गया है। ऐसे में बचपन से ही बच्चों में लैंगिक रूढ़ीवादी छवि तैयार की जा रही है जो भविष्य में हानिकारक साबित हो सकती है।

सामाजिक रूढ़िवादी सोच के आधार पर, छोटी बच्चियों को नाज़ुक बताकर, उन्हें बचपन से ही हल्के-फुल्के खेलों में आगे बढ़ाया जाता है।

3. वंशवाद और घर के माहौल में भेदभाव

हमारे पूर्वजों के अनुसार अपने वंश बढ़ाने के लिए घर में लड़का होना ज़रूरी है जो घर का सहारा बन सके और मृत्यु के बाद उन्हें कंधा दे सके। यह विचारधारा आज बच्चों के लिए भी सामान्य हो चुकी है। साथ ही साथ छोटी-मोटी क्रियाएं जैसे मेहमानों के आने पर लड़कियों द्वारा खाना परोसना, कमरे के भीतर रहना आदि भी आगे चलकर चुनौतियां बन जाती है। लड़कियों को बचपन में ही समझा दिया जाता है कि घर का कामकाज ही उनका भविष्य है। इसी तरह लड़कों के मन में यह विचारधारा बना दी जाती है कि आने वाले वक्त में वह घर के मुखिया होंगे और उन्हें पूरे परिवार का पालन-पोषण करना होगा। इन सभी धारणाओं के कारण बच्चे एक दूसरे को ही भेदभाव की नजर से देखने व स्वीकारने लगते हैं।

मेरे अनुभव में अपने एनजीओ की तरफ सैनेटरी पैड्स वितरण के लिए जब मैं एक बस्ती पहुँची तो वहां छह साल की बच्ची को बर्तन साफ करते हुए देखा। मैंने उससे पूछा कि आज तुम क्लास नहीं गई? उसने उत्तर दिया कि घर पर कोई नहीं है इसलिए काम करने रुकना पड़ा पर भैया पढ़ने गया है और खेल कर घर लौटेगा। मैंने पूछा ऐसा क्यों? तो उसका जवाब था “क्योंकि वह लड़का जात है!”

और पढ़ें : लैंगिक समानता : क्यों हमारे समाज के लिए बड़ी चुनौती है?

4. शैक्षिक आधार पर भेदभाव

जहां लड़कों के लिए पढ़ाई को प्राथमिक महत्व दिया जाता है, वहां लड़कियों के लिए आज भी पढ़ाई को द्वितीयक समझा जाता है। सामाजिक माहौल में लड़के उच्च शिक्षा के लिए बाहर पढ़ने जा सकते हैं पर लड़कियों को बाहर भेजने से परहेज़ किया जाता है। विषयों की बात करें तो आज भी विज्ञान में लड़कियां बहुत पीछे हैं क्योंकि उन्हें मनपसंद विषयों का चयन करने की स्वीकृति प्राप्त नहीं होती है। 

5. शारीरिक आधार पर भेदभाव

किशोरावस्था में आते ही माहवारी को केंद्रित करते हुए लड़कियों को पक्षपात पूर्ण तरीके से घर में ही निचला दर्जा दे दिया जाता है। उनकी सबसे बड़ी शक्ति (मातृशक्ति) को ही अशुद्ध और कमज़ोर ठहरा दिया जाता है। उन्हें मासिक धर्म से जुड़े न जाने कितने मिथ्यों से जूझना पड़ता है। इसके कारण लड़के कई मामलों में लड़कियों को गलत नज़रिए से देखने लग जाते हैं, जो भविष्य में लैंगिक भेदभाव को और बढ़ावा देता है।

वैसे तो उपरोक्त सूचि अनगिनत है| लेकिन जो पितृसत्तात्मक, रुढ़िवादी और लिंग असमान सोच सदियों से बच्चों पर प्रभाव डाल कर उनके भविष्य की विचारधारा को ठोस बना रही है, उस पर आज ध्यान देकर बदलाव लाना बेहद ज़रूरी है।

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तस्वीर साभार : opentextbc.ca

Comments:

  1. अंशुमान says:

    आपने कभी छोटी आनन्दी सीरियल को देखा है …
    और जो आप कह रही है कि बालीवुड मै महिलाओं को पीछे दिखाया जाता है …
    तो आपको याद होगा कि राजी मूवी पूरी तरह से एक महिला के ऊपर केन्द्रीत थी…
    कौन सी दुनिया मे आप आप जी रही है ! यहां हर महिला को वो करने की आजादी जो वो करना चाहती है वह कर सकती है…
    आप स्वरा भास्कर को ही देख लीजिये उन्होंने जो दिखाया है यदि वह महिलावादी सोच का हिस्सा है तो मैं हर उस विचार का विकोध करता हूं…
    हां यह यथार्थ है कि संपूर्ण भारत मे माहवारी को लेकर कुछ भ्रान्तियां है वह शिक्षा के विकास के साथ ही पूर्ण हो जायेगा…

  2. Bunny says:

    यहां तो हम दोनों बहनों के भेदभाव किया जाता हैं। बड़ी बहिन पर किसी भी तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं हैं। मुझे हमेशा घर के जिम्मेदारियों और पैसों के लिए सुनाया जाता हैं।
    मुझ पर ही हर तरीके से पैसों की जरूरत को पूरा करने का दवाब डाला जाता हैं। और किसी भी तरह का विरोध करने पर सब के सामने मेरे मां ये कह कर अच्छा बन जाती हैं कि मैं कभी दवाब नहीं डालती लेकिन पैसों की जरूरत पूरा ना करने पर मुझे घर में मानसिक तनाव दिया जाता हैं।
    एक सवाल मैं हमेशा पूछती हूं भगवान से क्यों मुझे जन्म के वक़्त ही मार नहीं दिया गया।
    हर माता पिता अगर आप दूसरे बच्चे के लिए मानसिक रूप से नहीं तैयार हो तो उसे जन्म भी मत दिया कीजिए।🙏🙏

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