1970-80 के बीच स्त्रीवादी आंदोलन का दूसरा चरण बेहद मज़ेदार है। औरतें गुस्से में थीं| व्यंग्य और कटाक्ष का इस्तेमाल कर रही थीं| वे संगठित हो रही थीं| कार्यकर्ता, लेखक, अकादमिक जगत और पत्रकारिता से स्त्रियाँ एक होकर स्त्रीवादी आंदोलन में बढ चढकर भाग ले रही थीं। इसी दौरान कुछ स्त्रीवादियों ने मिलकर एक पत्रिका ‘मिस’ शुरु की। इस पत्रिका के पहले ही इशू में एक सटायर था- I Want a Wife जूडी ब्रैडी का लिखा हुआ। इस छोटे से व्यंग्य में वे लिखती हैं कि उन्हें ऐसी पत्नी की ज़रूरत है जो उनके बच्चों का ध्यान रखे, इसमें उन्हें खिलाने- पिलाने मोटा ताज़ा बनाने, होमवर्क कराने, अच्छे संस्कार देने से लेकर कई काम होंगे, जो घर साफ रखे, मेरी दैहिक ज़रूरतों का ध्यान रखे, जब मेरा मूड न हो मुझे थकान हो तो अपनी चबड़ चबड़ से दिमाग न खराब करे…आदि आदि अनादि। अंत में वे लिखती हैं – आखिर दुनिया में किसे अच्छी पत्नी नहीं चाहिए। पत्नी यानी पत्नी। घरनी जिससे घर भूत का डेरा न रहे। पत्नी यानी जो घर को स्वर्ग बनाती है, जिसके हाथों से रसोई में रस आता है, जो मकान को बसाकर घर बनाती है। इस चाहत का स्वीकार स्त्री के उस स्टीरियोटाइप रोल और अपेक्षाओं के प्रति गुस्सा और आक्रोश है जो उसे हैपी हाउसवाइफ़ मिथ में जीने को विवश कर रहा था।
स्त्रियों को पत्नियाँ नहीं चाहिए बल्कि खुद के ‘पत्नी’ होने से मुक्ति चाहिए।
लेकिन अब घर से निकलने वाली स्त्री का जीवन उतना व्यवस्थित नहीं रह गया। घर अस्त-व्यस्त, कपड़े बिखरे हुए, बच्चे क्रेच में, धुलाई, सफाई, कटाई, नपाई सब वीकेण्ड को…अचार पापड़ मुरब्बा डोसा का वक़्त खत्म…किसे चाहिए ऐसी पत्नी कि आप घर आओ और वह हाथ में मरीना स्विताएवा की कविताएँ लेकर बैठी हो या फेसबुक पर पोस्ट लिख रही हो। तो उस वक़्त भी पब्लिक मैन और प्राइवेट वुमेन का बँटवारा उतना आसान नहीं रह गया। स्त्री छटपटाने लगी थी। बेट्टी फ्रीडन ने फेमिनिन मिस्टीक लिखकर शुलमिथ फायरस्टोन ने डायलेक्टिक्स ऑफ सेक्स लिखकर और केट मिलेट ने सेक्शुअल पॉलिटिक्स लिखकर इस दूसरे चरण के आंदोलन को उग्र बनाने में पूरा योगदान दिया था। यह और भी मज़ेदार था कि दूसरे चरण तक स्त्रियाँ घरेलू और कामकाजी के अलग अलग मुद्दों और सोच में नहीं बँटी थीं।
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अपनी किताब में ‘a problem that has no name’ नाम के चैपटर में बेट्टी फ्रीडन ने उन घरेलू स्त्रियों के जीवन की उस त्रासदी को उकेरा था जो अस्मिता के लिए छटपटाहट थी उनकी। एक ऐसी बीमारी जिसका वे खुद नाम नहीं जानती थीं। बराबर काम की बराबर तनख्वाह से लेकर घरेलू उत्पीड़न, गर्भसमापन के अधिकार के लिए संघर्ष…अपने देह के प्रति सजगता …आवर बॉडीज़ आवर सेल्वस…सब इस आंदोलन के मुद्दे थे। तो हम ऐसे प्रचण्ड स्त्री आंदोलन से सीधा न प्रभावित हुई औरतें काम के लैंगिक बँटवारे को लेकर जब सजग नहीं दिखतीं तो आश्चर्य नहीं होता। जब हम सहर्ष, नौकरीपेशा औरतों को उनके घर गंदे रहने, बच्चों के क्रेच में जाने, फिट रहने, पुरुष-मित्र होने को लेकर जज करते हैं और अपने हाउसवाइफ स्टेट्स को लगातार डिफेण्ड करने के लिए उनपर हमला करने की आदत से बाज़ नहीं आते, या अपने पतियों को ‘अरे ! आप रहने दें..’ की आदत डालते हैं|
अब घर से निकलने वाली स्त्री का जीवन उतना व्यवस्थित नहीं रह गया।
स्त्री सहकर्मी से पूछते हैं उनके पति ने करवाचौथ या एनीवर्सरी पर क्या दिया …तब …तब हम दुनिया के लैंगिक विभाजन को और गहरा कर रहे होते हैं। जीवन में पत्नी बनना कोई मकसद नहीं हो सकता। स्त्री-पुरुष किसी का भी नहीं। अगर आपके आस पास कोई बच्ची कहती हो कि वह बड़ी होकर पत्नी बनेगी तो सचेत हो जाइए कि आपके दिए परिवेश में भयानक किस्म के जेण्डर विषाणु पनप रहे हैं। अगर आप रात को फ्रिज में दूध रखना और बचा हुआ खाना सम्भालना सिर्फ पत्नी का कर्तव्य मानकर उसे फटकार रहे हैं, पत्नी के नौकरी से घर वापस आने पर दोनो बच्चों के साथ भूखे और फटेहाल दिखाई दे रहे हैं तो समझ जाइए कि आपको पतित्व से और पत्नी को पत्नीत्व के स्टीरियोटाइप से निकलने और यह लेख पढने की सख्त ज़रूरत है।
दरअसल स्त्रियों को पत्नियाँ नहीं चाहिए बल्कि खुद के ‘पत्नी’ होने से मुक्ति चाहिए। गृहस्थी में खुद के इनडिसपेंसेबल होने की खुशी इज़ नो मोर खुशी ! यह गुलामी है !
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यह लेख इससे पहले चोखेरबाली नामक ब्लॉग में प्रकाशित किया जा चुका है|
तस्वीर साभार : hosting
हिंदी के पहले सामुदायिक स्त्रीवादी ब्लॉग ‘चोखेरबाली’ से शुरू कर स्त्रीवादी आलोचना की सैद्धांतिकी लिखने तक सुजाता ने लम्बा सफ़र तय किया है। एक कविता संग्रह “अनंतिम मौन ने बीच “ और एक उपन्यास “एक बटा दो” प्रकाशित। स्त्री विमर्श पर दो किताबें “स्त्री निर्मिति” और “दुनिया में औरत” के अलावा आलोचना की किताब “ आलोचना का स्त्री पक्ष” प्रकाशित।
सम्प्रति- दिल्ली विश्वविद्यालय में असोसिएट प्रोफ़ेसर.
सम्पर्क- chokherbali78@gmail.com |
ट्विटर- Sujata1978
आप की बात सही है स्त्रियाँ पत्नी बनकर घर और बच्चों तक सीमीत हो जाती है मै ये नहीं कह सकता कि ये करना उन्हें अच्छा लगता है क्योंकि वो बचपन से अपने घर में वही सब देखती आ रही।हमें समाज में स्त्रियों के लिए बराबरी के अधिकार के बजाय बराबरी का सहयोग होना चाहिए