देविना अक्षयवर
21 जून को कबीर सिंह फ़िल्म पूरे देश के बड़े पर्दों पर रिलीज़ हुई। महज़ एक हफ़्ते के अंतराल में इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा दी। हालांकि इस फ़िल्म के रिलीज़ के बाद से प्रिंट और सोशल मीडिया पर इसकी खूब आलोचना हो रही है। आलोचना के बीच जहाँ सेंट्रल बोर्ड ऑफ फ़िल्म सर्टिफिकेशन की सदस्या और अदाकारा, वाणी त्रिपाठी के साथ ही अन्य लोग इसको ‘मिसोजिनिस्ट’ (नारी-द्वेषी) दृष्टिकोण के आधार पर बनायी गयी फ़िल्म मान रहे हैं, वहीं बॉलीवुड अभिनेता, शाहिद कपूर के फैन्स इसकी बड़ी सफलता के मद्देनज़र, इसे एक उम्दा फ़िल्म की श्रेणी में रख रहे हैं। कई सवालों के बीच बार-बार यह सवाल दोहराया जा रहा है कि अगर फ़िल्म में स्त्री-विरोधी सीन्स इतने ही आपत्तिजनक होते तो इस फ़िल्म को देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ आखिर क्यों उमड़ रही है?
आम धारणा यही बनती नज़र आती है कि एक फ़िल्म की सफलता निश्चित तौर पर यही साबित करती है कि उसे समाज के ज़्यादातर दर्शकों ने पसंद किया है। लिहाज़ा, इसमें कुछ आपत्तिजनक हो ही नहीं सकता! लेकिन इतिहास बताता है कि भारत जैसे देश में लोग जितने साहित्य से प्रभावित हुए, उससे कहीं ज़्यादा प्रभावित वे हिंदी सिनेमा से होते रहे हैं। इसलिए किसी भी फ़िल्म को महज़ एक कलात्मक उत्पाद के रूप में नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके भी कुछ खास सामाजिक सरोकार हमेशा से रहते आए हैं। खासकर तब, जब फ़िल्म में मुख्य किरदार निभाने वाला नायक दर्शकों के बीच अति लोकप्रिय हो।
‘कबीर सिंह’ की बात करें तो इसमें तथाकथित ‘हीरो’ का किरदार निभाने वाले शाहिद कपूर के फ़िल्मी कैरियर में ‘पद्मावत’ के बाद यह दूसरी फ़िल्म है जो इस तरह विवाद के घेरे में आई है। लेकिन ‘पद्मावत’ के सन्दर्भ में विवाद का मुद्दा कुछ और ही था, हालाँकि यह भी दिलचस्प है कि जो लोग एक ऐतिहासिक (?) स्त्री पात्र के चरित्र-चित्रण को लेकर इतना हंगामा मचा रहे थे, वे स्त्री-दृष्टि से आंकी जा रही इस फ़िल्म के कुछ अहम मुद्दों को लेकर बिलकुल चुप हैं! ‘इश्क-विश्क’, ‘विवाह’, ‘चुप चुपके’, ‘हैदर’, ‘रंगून’ और ‘आर.राजकुमार’ जैसी अलग-अलग फ़्लेवर वाली फ़िल्मों में सराह्नीय किरदार निभाने वाले शाहिद कपूर आज की युवा के बीच बेशक बहुत लोकप्रिय हैं। अदाकारी के साथ ही अच्छा डांस करने वाला हीरो किसे प्रिय नहीं?! फिर ‘आर.राजकुमार’ में जिस तरह से विलेन की चंगुल से वह हिरोइन (सोनाक्षी सिन्हा) को बचाता है और उसे हासिल करने का ‘चैलेन्ज’ जीतता है, उससे लाखों फैन्स उसके अंदाज़ से प्रभावित हो स्वाभाविक रूप से उसके पदचिन्हों पर चलने लग जाते हैं। यही चलन 80 तथा 90 के दशकों में मिथुन चक्रबर्ती, सन्नी देओल, सुनील शेट्टी, संजय दत्त जैसे ‘एक्शन हेरोज़’ की फ़िल्में देखने के बाद हमारे समाज के आम जन के बीच था। इसीलिए यहाँ शेखर सुमन की तरह ही कई लोगों का यह दावा तो खारिज हो जाता है कि ‘फ़िल्म को फ़िल्म की तरह देखो, फ़िल्मों से जनता प्रभावित नहीं होती।’
नायक के आक्रामक और बेपरवाह चरित्र की छाया में नायिका के चरित्र को जान-बूझकर विकसित नहीं होने दिया गया है।
बेशक ‘कबीर सिंह’ को देखने उमड़ी दर्शकों की भीड़ शाहिद कपूर को एक नए अंदाज़ में किरदार निभाते हुए देखने के लिए गयी होगी। फ़िल्म के ट्रेलर में फ़िल्म की पठकथा तो अमुमन पता चल जाती है, लेकिन इस कहानी में अपनी प्रेमिका को न पा पाने के अवसाद में एक नवजवान किस तरह नशे को गले लगा लेता है, यह दिमाग में खटकने वाली बात है। फ़िल्म में सीन्स किस तरह से आगे बढती हैं, यह तो फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है लेकिन अगर महज़ ट्रेलर देखने के बाद भारी संख्या में इस फ़िल्म को युवा देखने जाते हैं तो उसके भी कुछ गूढ़ अभिप्राय हैं। ऐसे समय में, जब पूरे देश में, खासकर पंजाब में नशाखोरी समाज की युवा पीढ़ी को तबाह करने में समाज का गैंग्रीन बनी हुई है, तब किसी फ़िल्म में बार-बार एक लोकप्रिय अभिनेता को नशा (सिगरेट, शराब और ड्रग्स का ओवरडोज़) करते हुए दिखाया जाए, तो इसका युवा दर्शकों पर क्या असर पड़ता है? ध्यान देने वाली बात है कि इस फ़िल्म के नायक का किरदार निभाने वाले शाहिद कपूर खुद पंजाबी पृष्ठभूमि से आते हैं। इस लिहाज़ से एक बॉलीवुड आयकॉन के रूप में शाहिद कपूर की भूमिका का पंजाबी युवा फैन्स पर कैसा प्रभाव पड़ सकता है? कुछ हद तक दर्शकों को ‘कबीर सिंह’ देखने के बाद खासा अफ़सोस भी हो सकता है कि जिस अभिनेता ने 2016 में बनी ‘उड़ता पंजाब’ फ़िल्म में ड्रग अब्यूज़ जैसे गंभीर सामाजिक मुद्दे को बड़े दमदार तरीके से उठाया था, वही अभिनेता सर्जन कबीर सिंह के किरदार में अपना गुस्सैल और नशेबाज़ चरित्र दर्शाता है।
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‘कबीर सिंह’ की कई समीक्षाओं में कबीर को एक ‘रिबेलियस एल्कोहोलिक’ बताया गया है। पर यहाँ सवाल यह उठता है कि अगर फ़िल्म का नायक रिबेल, यानी विद्रोह करता है तो किस के प्रति? अपने परिवार के प्रति? अपने कॉलेज-प्रशासन के प्रति जो उससे अनुशासन की मांग करता है? या फिर एक पिता के प्रति जो अपनी बेटी के लिए उसे अनफ़िट पाता है?
इस फ़िल्म में नायक के दुःख का कारण कोई पारिवारिक या सामाजिक मुद्दा न होकर एक लड़की से अलग होना है। ऐसे में हमें इस अवसाद की तह तक पहुँचने के लिए गंभीरता से सोचना होगा कि आखिरकार उसके नशे में डूबते जाने के पीछे क्या कारण यह है कि उसकी प्रेमिका का विवाह कहीं और कर दिया जाता है, या फिर उसे इस बात का ज़्यादा अफ़सोस है कि लड़की ने अपने परिवार से उसके लिए बगावत नहीं की ? तब हमें इस दिशा में भी सोचना पड़ेगा कि क्या फ़िल्म का ‘हीरो’ कबीर सिंह, जो अपने मेडिकल स्टडीज़ में हमेशा टॉप आया, जिसे उसके यार-दोस्त, जूनियर, कॉलेज, कैम्पस से लेकर हॉस्टल तक में, सब लोग सर-आँखों पर बिठाए रखते थे, जिसके एक इशारे पर पूरा कॉलेज उसकी जी-हुज़ूरी में हाज़िर हो जाता था, जिसके प्रेम के प्रस्ताव को स्वीकार करने के अलावा लड़की के पास और कोई विकल्प नहीं बचा था, जो हमेशा अपने ‘एक्शन’ और बातों से जीतता आया था, उसको एक लड़की के घरवालों के सामने हारना पड़ा?… क्या नायक का इस तरह नशे के आगोश में जाकर राहत पाना उसके मेल इगो को पहुंची ठेस को नहीं दर्शाता जिसकी टीस से निज़ात पाने के लिए वह मदहोशी का सहारा लेता है?
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फ़िल्म के एक सीन में जहाँ कबीर सिंह अपनी ‘कातर’ प्रेमिका, प्रीति (कियारा आडवाणी) को अपनी ‘बंदी’ बताता है तो एक दूसरे सीन में उसे गुस्से में आकर थप्पड़ भी मारता है। इस तरह के दृश्यों को एक हद तक किसी फ़िल्म के नॉर्मल सीन्स के रूप में मान लिया जाता है। लेकिन जब सिनेमा हॉल में इन्हीं सीन्स को देखकर कोई नवजवान दर्शक खड़े होकर ताली और सीटी बजाने का साहस करे तो फिर हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या अभिनेता की उस कुंठा में असल में आम जन के बीच ऐसे कई युवाओं की कुंठा तो नहीं झलक रही जो किसी लड़की को ‘अपना’ न बना पाने पर उसकी मेल इगो को कचोट रही है? फ़िल्म के पहले ही सीन में ‘हीरो’ अपनी इसी कुंठा की आग को बुझाने के लिए किसी दूसरी लड़की के साथ ज़बरन यौन सम्बन्ध बनाने के लिए बेकरार दर्शाया गया है। बेकरारी का आलम यह कि लड़की के मना करने के बाद भी वह चाक़ू की नोंक पर उसे अपने कपड़े उतारने को कहता है! और जब उसके हवस की क्षुधा शांत नहीं होती तो सड़क के किनारे जाकर एक ठेले से बर्फ़ उठाकर अपनी पैन्ट के अंदर डालता है! ऐसे सीन्स को देखने पर अगर सिनेमा हॉल तालियों की गडगडाहट और सीटियों से गूँज उठे तो इसका क्या मतलब समझा जाए?!
समाजशास्त्रीय अध्ययन के अनुसार, समाज के स्थापित मानदंडों से भटकाव को ‘डीवियंस’ कहा जाता है जो सामाजिक व्यवस्था को भंग करने वाला बर्ताव माना जाता है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि जो बर्ताव सामाजिक तौर पर स्वीकृत न हो, उसे खुले आम करने का दुस्साहस ‘डीवियंट बिहेवियर’ कहलाता है, जिसको करने की चाह तो बहुतों को होती है लेकिन एक खास सामाजिक कंडक्ट का अनुपालन करते हुए नहीं कर पाते। पर जब वे परदे पर अपने नायक को ऐसा करते देखते हैं तो ऐसे दृश्य की सराहना में अनायास ही तालियाँ बजने लग जाती हैं। क्या दर्शकों द्वारा ऐसे सीन्स पर तालियाँ बजाना ऐसे ‘डीवियंस’ को एक नए ‘नॉर्मल’ के रूप में स्थापित करना नहीं है ? क्या यह प्रतिक्रिया इस बात का संकेत नहीं देती कि फ़िल्म का हीरो अपनी कुंठा को ‘सैटिस्फाई’ करने के एवज़ में जाने कितने पितृसत्तावादी मानसिकता की जकड़ में फंसे युवा पुरुषों की कुंठा को बढ़ावा देता है जो समाज में स्त्री को अपनी निजी संपत्ति या भोग्या से ज़्यादा और कुछ नहीं समझते? क्या एक सच्चे प्रेमी के प्रेम की यही पराकाष्ठा हो सकती थी?! ये सवाल मन में बिजली की तरह ज़रूर कौंधते हैं।
भारत जैसे देश में लोग जितने साहित्य से प्रभावित हुए, उससे कहीं ज़्यादा प्रभावित वे हिंदी सिनेमा से होते रहे हैं।
‘कबीर सिंह’ फ़िल्म की पूरी कहानी नायक के चरित्र के इर्द-गिर्द ही बुनी गयी है, जिसमें नायिका ‘तेरे नाम’ फ़िल्म की नायिका की ही तरह डरपोक, दब्बू और सहनशील लड़की की भूमिका निभाती है। कहानी में जो कुछ भी घटता है वह नायक की मर्ज़ी से होता है। नायिका की मर्ज़ी कहीं नहीं पूछी जाती। उसकी मूक स्वीकृति के चलते दोनों का प्रेम सम्बन्ध हॉस्टल के किसी कमरे से शुरू होता है और इसी मूक स्वीकृति के साथ उसका विवाह किसी दूसरे से हो जाता है। ध्यान देने वाली बात है कि कहानी में नायिका का बोल्डनेस या साहस सिर्फ़ अपने प्रेमी के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने या फिर उससे मिलने देहरादून अकेले जाने तक ही सीमित दर्शाया गया है। जबकि असली साहस तो उसे विवाह के लिए अपने जीवन साथी को चुनने के वक्त दिखाना चाहिए था। बीते कुछ सालों में ‘एनएच 10’, ‘हाइवे’, ‘ट्वायलेट एक प्रेम कथा’ जैसे फ़िल्मों की नायिकाओं के बरअक्स, ‘कबीर सिंह’ की नायिका का यह कमज़ोर चरित्र कुछ हज़म नहीं होता। ऐसा लगता है जैसे नायक के आक्रामक और बेपरवाह चरित्र की छाया में नायिका के चरित्र को जान-बूझकर विकसित नहीं होने दिया गया है।
फिर भी, फ़िल्म के निर्देशक ने कबीर सिंह को उसके तमाम अवगुणों के बावजूद अपने प्रोफेशन को लेकर प्रतिबद्ध दिखाया है। उसकी निजी ज़िन्दगी में चाहे जो हो, वह अपनी प्रोफेशनल ज़िंदगी के साथ कोई समझौता नहीं करता। फ़िल्म के अंत पर भी जिस तरह ‘हैप्पी एंडिंग’ का चस्पां लगा दिया जाता है, उससे एक बार फिर कबीर सिंह फ़िल्म का हीरो ही साबित होता है।
लेकिन क्या इस हैप्पी एंडिंग के साथ दर्शक उन तमाम सीन्स को भुला पाएंगे या फिर अपने हीरो की अंततः जीत के साथ उसके उन सारे व्यवहारों को नज़रंदाज़ कर पाएंगे जो रील लाइफ़ से होते हुए रियल लाइफ़ में लाखों युवाओं के सामाजिक बर्तावों या सरोकारों को प्रभावित करते हैं, उन्हें तय करते हैं?… वर्तमान दौर में जबकि किसी भी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या आर्थिक मुद्दे के सामाजिक सरोकारों की पड़ताल ज़रूरी माना जा रहा है, हर कहीं समाज के उपेक्षित, दमित और शोषित तबकों के हक के लिए बहस-मुबाहिसे चल रहे हैं, राजनीतिक गलियारों से लेकर इतिहास, कला और संस्कृति की जनपक्षधरता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं, ऐसे दौर में साहित्य के साथ-साथ सिनेमा की सामाजिक भूमिका को भी विश्लेषित करने की अत्यंत ज़रूरत महसूस हो रही है। ‘कबीर सिंह’ करोड़ों के आर्थिक मुनाफ़े के साथ एक बेहद सफल फ़िल्म मानी जा सकती है, लेकिन स्त्री-उत्पीड़न, उसके दमन और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर चल रहे मुहीम में इसका क्या योगदान रहेगा? यह दर्शकों के साथ-साथ आज के फ़िल्म निर्माताओं और निर्देशकों के सामने एक अहम सवाल है।
तस्वीर साभार : livehindustan
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