पिछले दिनों रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘कबीर सिंह’ काफी चर्चा में रही| इस फिल्म को देखने के लिए मुझे पहले बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी न ही कोई प्रभावित पहलू था जो मुझे आकर्षित कर पाता। मैंने फ़िल्म रिलीज़ होने के दो हफ्ते बाद देखी, जब मेरे कुछ करीबी दोस्तों द्वारा फ़िल्म को मिलीजुली प्रतिक्रिया मिली। कुछ ने बोला बहुत अच्छी मूवी है| किसी ने महिला विरोधी बताया तो किसी ने बोला के इस फ़िल्म में भी पितृसत्ता की झलक देखने को मिलती है।
खैर, मैंने सभी बातों और विचारों को दरकिनार करते हुए और नॉन जजमेंटल होते हुए फ़िल्म देखी और महसूस किया के यह फ़िल्म पूरी तरह से मर्दवाद पर आधारित है, जिसमें औरत को एक कमज़ोर और असहाय इंसान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। मैं इतना महसूस कर सकता हूँ कि फ़िल्म में कोई भी ऐसा सभ्य और प्रभावशाली दृश्य नहीं था जिससे समाज पर कोई सकरात्मक प्रभाव पड़ता।
संदीप रेड्डी के दर्शक फ़िल्म कबीर सिंह का पूरा लुत्फ़ उठाते हैं| जब कबीर प्रीति को थप्पड़ मारता है, तब वो तालियां बजाते हैं और पूरा सिनेमाहाल तालियों से गूंज उठता है। वहीं अन्य दृश्य में कबीर अपनी कामवाली बाई को दौड़ाता है तब वो हंसते हैं, वो उस स्थिति पर हंसते हैं जब एक ग़रीब औरत को कांच का ग्लास तोड़ने के लिए पीटने के लिए दौड़ाया जा रहा है| यह हंसने वाले कोई और नहीं हमारे समाज में पनपने वाले कीचड़ हैं जो अपने साथ-साथ दूसरों का जीवन भी भृष्ट कर देते हैं। वो सीन पर खिलखिलाते हैं जब कबीर किसी लड़की को चाक़ू दिखाकर उससे कपड़े उतारने को कहता है|
पितृसत्ता के बनाये मर्द का निर्देशन
फ़िल्म कबीर सिंह का निर्देशक एक पुरुष है जिसकी सोच में मर्दवाद की अवधारणा घर किए हुए है, संदीप रेड्डी वांगा जो इस फ़िल्म के निर्देशक भी हैं और लेखक भी। संदीप का इन दिनों एक इंटरव्यू बहुत तेज़ी से वायरल हो रहा है और कई लोग , महान हस्तियां उनके विरोध में आ गईं हैं और कुछ उनके सपोर्ट में हैं। संदीप ने अपने इंटरव्यू में कहा है कि ‘अगर दो लोगों के बीच एक दूसरे को थप्पड़ मारने, एक-दूसरे को गाली देने की आज़ादी नहीं है तो शायद ये सच्चा प्यार नहीं है|’ डायरेक्टर संदीप रेड्डी ने अनुपमा चोपड़ा को दिए इंटरव्यू में कहा कि ‘ग़ुस्सा सबसे असली जज़्बात है और रिश्तों में लोगों को अपने पार्टनर को जब चाहे छूने, किस करने, गाली देने और थप्पड़ मारने की आज़ादी होती है|’ रेड्डी की ये बातें मुझे मूल रूप से महिला विरोधी लगी और यह साफ तौर पर महसूस भी किया जा सकता है। मैं पुरुष हूँ और नारीवादी भी, मैं किसी भी प्रकार की हिंसा को न तो बढ़ावा दे सकता हूँ और ना बढ़ने दे सकता हूँ।
मैं इनसे कभी निजी तौर पर न तो मिला हूँ ना इनके बारे में मुझे अधिक ज्ञान है। मगर इनके इन शब्दों के पीछे छिपे संदर्भ को हम सब लगभग समझ चुके हैं। उनका यह कहना महिला हिंसा को बढ़ावा देने वाला है।
यह फ़िल्म पूरी तरह से मर्दवाद पर आधारित है, जिसमें औरत को एक कमज़ोर और असहाय इंसान के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ऐसी स्थिति डोमेस्टिक वॉयलेंस है| संदीप रेड्डी वंगा भले ही प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के रिश्ते में थप्पड़ मारने को प्यार करार दें, लेकिन भारतीय कानून इसे डोमेस्टिक वॉयलेंस यानी घरेलू हिंसा मानता है। यह शायद संदीप रेड्डी जैसे मर्दों की सोच का ही नतीजा है कि नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक, हमारे यहां 15 से 49 साल की उम्र तक 27 फीसद महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार होती हैं, जबकि 31 फीसद शादीशुदा महिलाएं अपने पति द्वारा फिजिकल, इमोशनल या सेक्सुअल हिंसा झेलती हैं। इसमें शारीरिक हिंसा सबसे आम (27 प्रतिशत) होती है। इसी वजह से बहुत सी प्रगतिशील महिलाओं ने खुलकर संदीप रेड्डी के इस बयान की आलोचना की। मैं अक्सर तमाम सामाजिक मुद्दे पर बेबाक राय रखने वाला हूँ। हम यहां फिल्म की बात नहीं कर रहे मैं असल जिंदगी की बात कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि किसी भी प्यार वाले रिश्ते में हिंसा जायज ही नहीं है।’
जैसे संदीप रेड्डी कह रहे हैं, वैसा हम अपने समाज में देखते हैं कि जिससे हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं, उसी पर हक जताते हैं और गुस्सा निकालते हैं, मारपीट भी करते हैं। लेकिन किसी पर हाथ उठाना या गाली देना प्यार या इज्जत के दायरे में नहीं आता है। वह घृणा करने वाली चीज है। हिंसा किसी भी तरह से गलत ही है। आप हिंसा का समर्थन किसी भी कीमत पर नहीं कर सकते और रिलेशनशिप में तो बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि इससे आप रिश्ते की गरिमा का बहिष्कार करते हैं। यह लिबर्टी की बात नहीं है।
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प्यार एक बहुत ही ख़ास हिस्सा होता है हमारे जीवन का। हम एक-दूसरे से सबकुछ शेयर कर सकते हैं, हमारे पास लिबर्टी है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि अपना फ्रस्ट्रेशन एक-दूसरे पर हिंसा के रूप में निकालें। यह मुझे सही नहीं लगता। आप इसे पजेसिवनेस का नाम भी नहीं दे सकते। यह अब्यूज ही है, लेकिन हमारे यहां बेवजह उस हिंसा को एक्सेप्ट करने का दबाव डाला जाता है। जब भी कोई विरोध करता है, तो हिंसा करने वाला कहता है कि ये प्यार है, आप समझ नहीं पाए। इसका नतीजा यह होता है कि लोग रास्ते चलते महिलाओं, कॉलेज जाती बच्चियों को स्टॉक करते हैं कि ये प्यार है, आप अक्सेप्ट कर लो। अगर लड़की मना करती है, तो उस पर ऐसिड डाल दिया जाता है या उसे कॉलेज बदलना पड़ता है। यह सब उसे क्यों करना पड़े? ये मानसिकता हमारे समाज के लिए ही ठीक नहीं है। मुझे लगता है कि ऐसी मानसिकता को हमें समर्थन नहीं देना चाहिए।’
प्यार ‘इज़्ज़त’ से पनपता है ‘मारपीट’ से नहीं
शक्तिशाली का किसी कम बलशाली मनुष्य के ऊपर हाथ उठाना या अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करना हिंसा ही है। वह चाहे पति अपनी पत्नी के साथ करता हो या कोई पत्नी अपने पति के साथ। कोई इतनी बेवकूफाना बात कैसे कह सकता है कि अगर आप प्यार या रिलेशनशिप में हैं, तो आप एक औरत को मार सकते हैं। यह किसी भी संस्कृति में किसी भी तरह से सही नहीं है। मुझे बहुत अफसोस है कि इतनी बड़ी फिल्म के डायरेक्टर का माइंडसेट ऐसा है। ऐसे इंसान को शर्म आनी चाहिए। आप थप्पड़ मारने को जनरलाइज नहीं कर सकते। इससे दिखता है कि आप एक सेंसिबल इंसान नहीं हैं। वह किसी और दुनिया में ही रह रहे हैं, जहां सिर्फ मर्दवाद ही अहम है। सच्चे प्यार में इज़्ज़त होती है।प्रेम की जो परिभाषा मैंने जानी है, उसके हिसाब से मेरा प्रेम किसी को मारना नहीं सिखाता है।
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पिछड़ा हुआ बॉलीवुड
फ़िल्म मुग़ल- ए-आज़म का वह दृश्य जिसमें दिलीप कुमार ,मधुबाला को चहरे पर थप्पड़ मारते हैं, दृश्य तो फ़िल्म का हिस्सा था,मगर दिलीप कुमार ने हक़ीक़त में मधुबाला के मुँह पर अपनी ताकत के हिसाब से जोरदार चांटा मारा था, बाद में बदस्तूर ये कहानी फैलाई गई के दिलीप जी मधुबाला से बेइंतेहा प्यार करते हैं इसलिए थप्पड़ मारा, ऐसा कैसे हो सकता है?
आप जिसे सच्चे दिल से प्यार करते हैं तो आप उसकी तकलीफ को कैसे नज़रअदाज़ कर सकते हैं? नही! बिल्कुल भी यह प्यार का हिस्सा नहीं, यह खुलेआम महिलाओं के प्रति हिंसा है। इस फ़िल्म को बने हुए ना जाने कितने दशक बीत गए, मगर एक पुरुष की घिनौनी सोच वहीं की वहीं है। संदीप द्वारा दिया गया ये साक्षात्कार केवल यह एक बातचीत नहीं थी| इन वाक्यों ने हमारे समाज मैं फैली हुए मर्दवादी विचारधारा को उजागर कर दिया है। ऐसी ना जाने कितनी ही सोच होंगी जो महिला विरोधी हैं, ऐसी हिंसा से और ऐसे प्रेम से उपजे रिश्तों का कोई आधार नहीं होता और ऐसी वातावरण में जन्म लेने वाले बच्चे भी ऐसी ही धारणा लिए हुए पैदा होते हैं, और कई वंशों को प्रभावित करते हैं। इसलिए आज हमारा भारत ना जाने कितने ही समस्याओं से जूझ रहा है।
यह एक बेहद दुखद हालत है जो मेरे अस्तित्व को झकझोर कर रख देती है, जिसमें किसी महिला पर अत्याचार या हिंसा कर के मनोरंजन किया जाता हो। मेरी व्यक्तिगत सोच यह है की सेंसर बोर्ड को ऐसी फिल्म या धारावाहिकों पर रोक लगानी चाहिए जो हमारे समाज के लिए नुकसानदेह साबित होती हैं, हमारे देश के वर्तमान में महिलाओं की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है, ऐसे में कबीर सिंह जैसी फ़िल्में आग में घी डालने के जैसा है।
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तस्वीर साभार : livehindustan
It’s true movies r the mirror of the society as well as a tool by which v can transform our society but these kind of movies really spreading negativity among our youth we need a India where all live together peacefully and respectfully but this movie really imparting really low class of messeges .movie theme n script must b positive healthy n they can I cultivate good values in our new generation.these sort of content must not b taken by the movie maker.
फ़िल्म कबीर सिंह के कुछ सीन याद कीजिए। कबीर के पिता जब उससे बार बार एक ही सवाल करते हैं तो कबीर झल्ला जाता है। जिसे आप बद्तमीजी भी कह सकते हैं। कबीर जब एक लिमिट से अधिक दारू पीने लगता है तब भाई के रोकने पर भी कबीर चिल्ला उठता है और बद्तमीजी से उसे भी धक्का दे देता है। कबीर अपने सबसे करीबी दोस्त को भी डांट देता है।
इन सीन्स को बताना बोरिंग था लेकिन उतना ही जरूरी भी। यह याद दिलाने के लिए कि कबीर के पिता, उसका बड़ा भाई, उसका सबसे प्यारा दोस्त तीनों ही पुरुष हैं। कबीर तीनों से ही सनककर बात करता है। इसलिए जब वह अपनी प्रेमिका से भी सनकियों जैसा व्यवहार करता है तो उसमें पुरुषवाद ढूंढना उतना सही नहीं लगता। वैसे ही मछलियों के ग्लास टूटने पर अपनी काम वाली बाई के पीछे दौड़ते कबीर में पुरुषवाद ढूंढना।
ग्लास किसी लड़के पर भी टूटा होता… कबीर उसके पीछे भी दौड़ ही रहा होता.. एक छोटे से ग्लास के टूटने पर पीछे दौड़ने के पीछे “पुरुषवाद” नहीं बल्कि उसका मानसिक असुंतलन था। जो तत्कालीन स्थितियों से उपजा था। किसी रिश्ते के टूट जाने के बाद, किसी अपने के कहीं दूर चले जाने के बाद उपजा हुआ बदहवासीपन, चिड़चिड़ापन,Unnatural behavior. हम सबने देखें हैं।
जहां डिप्रेशन पर विमर्श तैयार करना था वहाँ जेंडर पर विमर्श करके हम जता रहे हैं कि स्थिति को हमने कितना सतही होकर समझा है।
कबीर साइको है ये उसका मेंटल स्टेटस है लेकिन ये उसकी विचारधारा नहीं। कबीर सनकी है लेकिन सनकी होना पुरुषवादी नहीं। सनकी स्त्री भी हो सकती है।
कबीर की प्रेमिका जब उसे थप्पड़ मार देती है तब उससे गुस्सा होने के बजाय कबीर उसे चूम लेता है। क्योंकि प्रेमिका के थप्पड़ में अपनापन था और कबीर के चूमने में माफी। इसे केवल दो प्रेमी-प्रेमिका की फीलिंग्स के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। जहां प्रेमिका का थप्पड़ खाना अपमान नहीं वहीं प्रेमिका को चूमना भी सेक्सुअल नहीं। यहां तो प्रेमिका का थप्पड़ खाना और चूमना दोनों ही प्रेम के प्रतीक बन गए। क्या यह अन्य स्थितियों में संभव है सिवाय प्रेम के ?
इसलिए प्रेम कहानियों का मूल्यांकन उन परिस्थितियों की उपेक्षा करके नहीं किया जा जाना चाहिए जिनसे प्रेम कहानियों का जन्म होता है।
जब कोई प्रेमी कहता है कि ” वो सिर्फ मेरी बंदी है”
तब ऐसा कहने में प्रेमिका की चॉइस के अधिग्रहण होने के जोखिम छिपे हुए होते हैं जिसकी आलोचना भी की जा सकती है लेकिन कबीर ने “केवल अपनी बंदी” कहकर प्रेमिका की देह पर ही दावा नहीं किया था। इसे उसने तब सच भी साबित किया जबकि उसकी प्रेमिका की देह में किसी और का बच्चा पल रहा था तब भी कबीर प्रीति को “मेरी बंदी” कहता है। उसे अपना ही मानता है।
चूंकि कबीर के लिए उसकी प्रेमिका देह भर नहीं थी। देह से ज्यादा थी। तब ही कबीर के लिए प्रेमिका का मैरिटल स्टेटस, उसके सेक्सुअल रिलेशन्स उतने महत्वपूर्ण नहीं रह जाते। जिस “बंदी” शब्द की हम आलोचना करते हैं उसमें तो प्रेमिका के पेट में दूसरे का बच्चा सुनने भर से ही मेल ईगो हर्ट हो जाता। जिनके लिए स्त्री की योनि में ही प्रेम की सुचिता छुपी हुई होती है।
जब कबीर का दोस्त कहता है कि उसकी प्रेमिका के पेट में किसी और का बच्चा है,क्या तब भी वह उससे प्यार करेगा। कबीर तब भी कहता है “वो मेरी बंदी है” प्रीति मेरी है। प्रीति के पेट में किसी और का बच्चा है इससे मेरे लिए प्रीति बदल नहीं जाती।
प्रेम की इस खूबसूरती पर ध्यान देने की जरूरत थी… लेकिन नहीं दिया गया
“वह मेरी बंदी है” इस वाक्य पर बहस की जानी चाहिए। इसमें छुपी पेट्रिआर्की पर बात की जानी चाहिए। लेकिन उससे पहले इस बात को समझने की जरूरत है कि
प्रेम में पजेसिव होने पर उत्पन्न प्रतिक्रियाएं अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग हो सकती हैं। अगर प्रेमी या प्रेमिका में से कोई एक प्यार नहीं करता तब दूसरे वाले का एक्सट्रा पजेसिव होना सामने वाले के लिए सरदर्द बन सकता है सफोकेटिव हो सकता है। लेकिन अगर दोनों प्यार करते हैं तब पजेसिवनेस भी ब्लेसिंग में बदल जाती है। तब प्रेमी-प्रेमिका दोनों चाहते हैं कि एक दूसरे के लिए पजेसिव हों। तब प्रेमिका भी कहना चाहती है ” He is my boy”
इसलिए “मेरी बंदी है” शब्द स्थितिपरक है एक समय पर ऐसा कहना पैट्रिआर्क भी हो सकता है तो दूसरी स्थिति में ऐसा कहना सुखद भी हो सकता है, लोकतांत्रिक भी।
पूर्व में प्रेम करने वाले इन परिस्थितियों से परिचित होंगे।
प्रेम की परिभाषाएं इतनी विस्तृत हैं कि किसी एक परिभाषा के बनते ही वह प्रेम की किसी दूसरी परिभाषाओं से टकराने लगती हैं। इसलिए प्रेम किसी भी फिट परिभाषा से परे है। एक प्रेमी के रूप में आप कबीर से संयम की उम्मीद कर सकते हैं। सभ्य होने की उम्मीद कर सकते हैं। एक अनुशासित प्रेमी होने की अपेक्षा कर सकते हैं। लेकिन वह तो साइको है? फिर उससे अनुशासन की अनिवार्य अपेक्षा कैसी ?
क्या सनकी लड़के-लड़की हमारे बीच से नहीं होते?
क्या सनकी लड़के-लड़की प्रेम नहीं कर सकते ?
सनकीपन, पागलपन एक बीमारी है लेकिन चरित्र नहीं।
सनकी होना परिस्थितिक असक्षमता हो सकती है लेकिन उस व्यक्ति के चरित्र निर्धारण के लिए सही मानक नहीं है। उसकी बोली-भाषा से आप नफरत कर सकते हैं। लेकिन इससे व्यक्ति नफरत करने योग्य कहाँ हो जाता है?
अपने सबसे अधिक चाहने वाले के न मिलने पर एकदम टूट जाने वाला कबीर कोई भी हो सकता है। हर किसी की क्षमता नहीं है कि प्रेम में टूट जाने के बाद भी वह अनुशासित ही बना रहे। हरेक की क्षमता नहीं कि प्रेम में टूट जाने के बाद भी लैपटॉप पर घण्टों बैठ सके। सुबह आठ बजे ऑफिस के लिए उठ सके। हरेक की क्षमता नहीं कि प्रेम में बिखर जाने के बाद भी वह बॉस के सामने भीनी सी स्माइल दे सके ये कहते हुए कि “कुछ नहीं हुआ है, सब ठीक है”
कबीर उन अनगिनत लड़के-लड़कियों जैसा ही है जिनका अपने इमोशन्स पर नियंत्रण नहीं। जो प्रेम में रो देते हैं। जो अपने प्रेमी या प्रेमिका के जाने के महीनों बाद भी हिस्से हिस्से मरते हैं। महीनों बाद भी कभी कभी जिनके हलक से रोटी नहीं उतरती। जिन्हें द्वारिका की ओर जाने वाली मेट्रो से भी अपनी प्रेमिका की याद आ जाती। कबीर उन्हीं प्रेमियों से एक है जो प्रेमिका की पसन्द का रंग नहीं भूले। वो लड़के जो किसी मोमोज के ठेले को देखकर भी प्रेमिका को याद कर आते हैं।
इन अनगिनत लड़के-लड़कियों को हग करने की जरूरत है। इनके माथे को चूमने लेने की जरूरत है। घृणा करने की नहीं।
कबीर के द्वारा की गईं स्त्री-विरोधी किसी भी हरकत पर आपत्ति की जानी चाहिए। प्रेमी भी आलोचनाओं से परे नहीं है। फ़िल्म कई जगहों पर मिसोजिनिस्ट है। कई जगह रेग्रेसिव है। लेकिन कई जगह अच्छे संदेश भी देती है। यहां गांधी की एक बात पुरानी और बोरिंग लग सकती है लेकिन काम की है “पाप से घृणा करो पापी से नहीं”
फ़िल्म के उन सभी हिस्सों पर बहसें होनी चाहिए जो वर्तमान प्रगतिशीलता के पैमानों पर खरी नहीं उतरतीं जो किसी भी जेंडर या रेस को कमतर आंकती हैं।
कबीर सनकी हो सकता है, कबीर असभ्य भी हो सकता है लेकिन ऐसा होने भर से उसका प्रेमी होना कम नहीं हो जाता…
Avneesh ji
वाह। कितने घिनौने हैं आप और अपकी यह घटिया सोच। आप ज़्यादा ना सोचें बस उस महिला की जगह अपनी बहन, बेटी और माँ को रख कर सोचियेगा के आप कहाँ तक सीमित हैं। शायद, यह आर्टिकल एक पुरुष के द्वारा ही लिखा गया है, मैं इस सोच को सैलूट करती हूँ, और ऐसे ही पुरुष की आवश्यकता है हमारे समाज में।