गायत्री आर्य
काफी समय पहले आलोचक-लेखक विजयमोहन सिंह का एक रोचक आलेख पढ़ने को मिला था। लेकिन उस लेख में जिस ‘जन्नत’ के बारे में पढ़ा था आज भी खून खौलाती है। इस लेख में उन्होंने अमेरिकी लोगों और समाज का चित्र बड़ी सहज भाषा में उकेरा था। इसी में एक जगह अमेरिका के मशहूर शहर लास वेगास का जिक्र आया है जो कि दुनियाभर में अपने जुआघरों के लिए मशहूर है।
लास वेगास से जुड़े एक प्रसंग को उन्होंने इस लेख में दर्ज किया था। मैं उस पूरे पैर को कोट करने से खुद को रोक नहीं पा रहीं हूं – ‘कुछ बाद में पता चला कि अनेक सेवानिवृत्त पिता, पुत्रों से विशेष अनुरोध करके लास वेगास जरूर जाते हैं और वहां से विभोर और कृत-कृत होकर लौटते हैं। मेरे बेटे ने बताया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के ऐसे ही एक पिताश्री को उनके ‘श्रवण कुमार’ लास वेगास घुमाकर लाए तो उन्होंने भारत लौटकर अपने हमउम्र निश्तेदारों से कहा – ‘भार्इसाहब स्वर्ग अगर कहीं है तो वहीं है, अब क्या बताएं आप से, प्राय: निर्वस्त्र बालाएं ठुमकती हुर्इ आकर सुरापान कराती हैं और गाल-वाल थपथपा जाती हैं। कुछ धर्मग्रंथों में स्वर्ग के बारे में भी यही सब लिखा है न तो स्वर्ग और क्या होगा?’
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इस पैरे को पढ़कर काफी देर तक ‘पिताश्री का स्वर्ग’ मरे जहन में घूमता रहा… कितना अच्छा हुआ कि एक भारतीय पिता की स्वर्ग संबंधी कल्पना मुझे में इतनी सहजता से पढ़ने को मिली। जाहिर है अपवादी पिता (पुरुष) इस स्वर्ग से दूर ही रहते हैं और मैं उनकी बात कर भी नहीं रही। मै विश्वास से कह सकती हूँ कि लास वेगास से लौटे इन पिता को सड़क या पार्क में एक-दूसरे का हाथ पकड़ चलते या चूमते हुए युवक-युवतियां हमेशा ही से नागवार गुजरे होंगे।
हर बार उन्होंने इस सबके लिए पश्चिमी सभ्यता को दोषी ठहराया होगा और गाली भी दी होगी। खैर, ये हमारे दादाओं , पिताओं, पतियों, दोस्तों, भाइयों और बेटों की जन्नत है। जिसके बारे में या तो अक्सर खुलकर स्वीकारा नहीं जाता या फिर पुरुषों की महफिलों में ही इस जन्नत का जिक्र छिड़ता होगा। जो लोग लास वेगास जाना अफोर्ड नहीं कर सकते वे पोर्न साइट, एम.एम.एस, पोर्न फिल्मों और थोड़ा बहुत रेड लाइट एरिया के कोठों पर इस जन्नत का मजा लेते हैं।
छेड़खानी, बदतमीजी, अश्लीलता, बलात्कार, शारीरिक-मानसिक हिंसा, और असितत्वहीनता से भरे दोजख में कैसे हम जिंदा हैं इसकी किसे पड़ी है?
तकनीक ने कई माध्यमों से पुरुषों के लिए इस जन्नत को बेहद सस्ता, सुलभ और टिकाऊ बनाया है। हमारी फिल्में, विज्ञापन, पोस्टर, अखबार, और पत्रिकाएं हर पल, हर क्षण पूरे समाज के माहौल को ‘स्वर्गमय’ बनाने में जुटे हुए हैं। और काफी हद तक वे अपनी इस मेहनत में सफल भी हो रहे हैं। हर तरफ निर्वस्त्र या लगभग निर्ववस्त्री बालाएं समय, बाजार (और पितृसत्ता की भी) मांग के मुताबिक इस देश-दुनिया को स्वर्गमय बनाने में अपना कीमती सहयोग दे रही हैं। हम माने या ना माने लेकिन इस ‘स्वर्गानुभूति’ के कारण ही स्त्री को दुनिया की ‘सबसे खूबसूरत वस्तु’ कहा जाता है। हमारा मातृत्व, रचनात्मकता, प्रबंधन, दिन-रात का अदृश्य श्रम हमें सुंदरतम कहलवाने में शामिल नहीं है।
लेकिन पुरुषों के लिए इस स्वर्ग को रचने में हम स्त्रियाँ, लड़कियां, बच्चियाँ किस दोजख से गुजरती हैं इसकी खबर कौन लेना चाहेगा भला? छेड़खानी, बदतमीजी, अश्लीलता, बलात्कार, शारीरिक-मानसिक हिंसा, और असितत्वहीनता से भरे दोजख में कैसे हम जिंदा हैं इसकी किसे पड़ी है? फिर भी सुनिए तो सही, आपकी शर्मिंदगी की हमें उम्मीद नहीं….क्योंकि शर्मिंदगी के साथ जन्नत नहीं पनप सकती। लेकिन जिस चीज को बाजार का वरदहस्त प्राप्त हो वह तो कब्र से भी जीवित लौट सकती है। औरतें बाजार को अपने जीवन के पक्ष में पूरी तरह खड़ा भी नहीं कर सकी… कि पुरुषों ने बाजार को अपने स्वर्ग के हक में खड़ा कर लिया….! सच में कुछ चीजों में अभी भी स्त्रियाँ पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकी। ठीक है कि हमारे यहां लास वेगास नहीं है। लेकिन आधी आबादी की जरुरत के मददेनजर हमारे यहां ‘छोटे-बड़े लास वेगास’ तो हैं ही, जिन्हें हम नफीस भाषा में रेड लाइट एरिया कहते हैं। ‘कोठे’ और ‘वेश्या’ शब्द बोलने में तो हमें अपनी जबान के गंदा होने का अहसास होता है लेकिन उन में रह रही वेश्याएं हमारी मूलभूत जरुरतों में शामिल हैं….! ऐसे ही हैं हम….पर ऐसे कैसे हैं हम….?
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और असितत्वहीनता से भरे दोजख में कैसे हम जिंदा हैं इसकी किसे पड़ी है? फिर भी सुनिए तो सही, आपकी शर्मिंदगी की हमें उम्मीद नहीं….क्योंकि शर्मिंदगी के साथ जन्नत नहीं पनप सकती। लेकिन जिस चीज को बाजार का वरदहस्त प्राप्त हो वह तो कब्र से भी जीवित लौट सकती है। औरतें बाजार को अपने जीवन के पक्ष में पूरी तरह खड़ा भी नहीं कर सकी… कि पुरुषों ने बाजार को अपने स्वर्ग के हक में खड़ा कर लिया….! सच में कुछ चीजों में अभी भी स्त्रियाँ पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकी। ठीक है कि हमारे यहां लास वेगास नहीं है। लेकिन आधी आबादी की जरुरत के मददेनजर हमारे यहां ‘छोटे-बड़े लास वेगास’ तो हैं ही, जिन्हें हम नफीस भाषा में रेड लाइट एरिया कहते हैं। ‘कोठे’ और ‘वेश्या’ शब्द बोलने में तो हमें अपनी जबान के गंदा होने का अहसास होता है लेकिन उन में रह रही वेश्याएं हमारी मूलभूत जरुरतों में शामिल हैं….! ऐसे ही हैं हम….पर ऐसे कैसे हैं हम….?
सेंटर फार सोशल रिसर्च की निदेशक डा रंजना के अनुसार देश में लगभग 30 लाख से ज्यादा महिलाएं और लड़कियां अपनी इच्छा के खिलाफ देह व्यापार का काम कर रही है। और हर साल लगभग दो लाख से ज्यादा लड़कियों और स्त्रियों को जबरन या धोखे से इस धंधे में उतार दिया जाता है। पुरुषों के इस स्वर्ग के लड़कियों की तस्करी भी होती है जिसमें लगभग 60 फ़ीसद की उम्र 18 साल से कम होती है। सिर्फ कुछ लड़कियों और स्त्रियों के दोजखमय जीवन से अगर करोड़ों लोगों को स्वर्ग और जन्नत नसीब होती हो तो क्या हमें इस दोजख को स्वीकार करते नहीं चले जाना चाहिए?
‘सर्वजन सुखाय’ ना सही अधिकांश के सुख के लिए तो हमें अपनी आहूति देनी ही चाहिए………..नहीं ?
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यह लेख गायत्री आर्य ने लिखा है, जिसे इससे पहले चोखेरबाली में प्रकाशित किया जा चुका है।
तस्वीर साभार : theweek