समाजकार्यस्थल भारतीय महिला पुलिस का ये संघर्ष, आख़िर और कब तक?

भारतीय महिला पुलिस का ये संघर्ष, आख़िर और कब तक?

महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुलिस दलों में हमेशा से ही अपर्याप्त रहा है, क्योंकि उन्हें वुमन फ्रेंडली’ वातावरण नहीं मिलता और वे तमाम समस्याओं के जूझती हैं।

साल 2019 की शुरुआत मे ‘कॉमन कॉज़ इंडिया’ ने ‘लोकनीति’ के साझे में ‘स्टेटस ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया’ नामक एक रिपोर्ट निकाली जिसमे जेंडर के नज़रिये से पुलिसकर्मियों के काम करने की स्थिति पर और पुलिस में महिलाओं के प्रति रवैये पर चौंका देने वाले खुलासे किए गए। इस रिपोर्ट से प्रेरित होकर अहमदाबाद पुलिस यूनिवर्सिटी की एक शोधकर्ता ने हाल ही में महिला पुलिस की वर्त्तमान स्तिथि और समस्याओं पर एक आनुभविक अध्ययन किया, जिसके परिणाम कई राज्यों की पुलिस द्वारा उपयोग किये गए।

जहाँ पुलिस की स्तिथि पर आए दिन कुछ न कुछ निकलता रहता है। वहीँ इस शोध ने रूढ़ धारणाओं से हटकर महिला पुलिसकर्मियों के लिए समर्थित एवं भेदभाव रहित वातावरण उत्पन्न करने हेतु केंद्र सरकार को नीतिगत सुझाव दिए है। इन्ही सुझावों पर जोर डालते हुए यह लेख महिला पुलिस के संघर्षों का निष्पक्ष विवरण देगा और उक्त शोध के मुख्य परिणामों को आम जनता व पुलिस नीति निर्माताओं तक पहुँचाने की कोशिश करेगा।

महिला पुलिस का इतिहास

पुलिस में महिलाओं की ज़रूरत तब पड़ी जब आज़ादी के बाद हुए दंगों में अपहरण और रेप की घटनाएं तेजी से बढ़ने लगी। इसी दौरान हिन्दू-मुस्लिम लोगों का दो तरफ़ा माइग्रेशन हुआ, जिसके चलते महिला रिफ्यूजीओं ने भारी तादाद में भारत में प्रवेश किया। महिला शरणार्थियों की इस गतिशीलता से भारत सरकार को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा, जिसे काबू में करने के लिए 1948 में कुछ महिलाओं की पुलिस में भर्ती की गयी। हालाँकि आज़ादी से पहले भी कुछ राज्यों में महिलाओं को पुलिस का हिस्सा बनाया गया था, लेकिन उनकी संख्या ना के बराबर थी। पर जैसे-जैसे आज़ाद भारत में बच्चों और महिलाओं के विरुद्ध अपराध बढ़ने लगे, तो उनके बयां रिकॉर्ड करने और उन्हें इंटेरोगेट करने के लिए महिला पुलिस कर्मियों की दरकार बढ़ी। इसी तरह महिला अपराधियों को सर्च करने का काम भी महिला पुलिस कर्मी द्वारा होने लगा| आज हर एक जिले में महिला पुलिस थाना है जिसकी इनचार्ज खुद महिलाएं है और ये विभाग घरेलु हिंसा, बाल विवाह, दहेज़ उत्पीड़न जैसे मामलों को इन्वेस्टीगेट करती है।

पुरुषों तक सीमित ‘पुलिस’ व्यवस्था

पुलिस सेवा में महिलाओं का सफर कुछ आसान नहीं रहा| जहाँ पुलिस अधिकारी बनने के लिए शारीरिक रूप से स्वस्थ होना ज़रूरी है, वहीँ समाज में व्यापक धारणा रही है कि महिलाओ में शारीरिक क्षमता न होने के कारण, वे पुलिस सेवा में नियुक्त होने के योग्य नहीं है। इस कट्टरता की वजह से उन्हें हर बार यह साबित करना पड़ता है कि वे महिला होने के बावजूद भी पुलिस दल में पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल सकती है। महिला और पुरुष, दोनों को ही पुलिस दल में जुड़ने से पहले एक समान ट्रेनिंग दी जाती है, जो कि मानसिक और शारीरिक रूप से काफी चुनौतीपूर्ण होती है। पर शोध से पता चला है कि महिला कांस्टेबल को ज़्यादातर ऐसे ही काम दिए जाते है, जहाँ शारीरिक बल का उपयोग नही होता| जैसे की रजिस्टर मेन्टेन करना, जन सुनवाही के मामले देखना और एफआईआर दर्ज करना आदि। ऐसा इसलिए क्यूंकि उनके ‘मेल कॉउंटरपार्ट्स’ का यह मानना है कि महिला खुद की रक्षा नहीं कर सकती, और अगर उन्हें फील्ड – जैसे की, इन्वेस्टीगेशन, पेट्रोलिंग, लॉ एंड आर्डर, वीआईपी प्रोटेक्शन आदि – पर भेजा गया तो सुरक्षा देने के लिए पुरुष कांस्टेबल या फिर अन्य अधिकारिओ की ज़रूरत पड़ेगी।

पुलिस की वर्दी, जो पुरुष की प्राथमिकता देखकर बनाई गयी है, माहवारी के समय महिला पुलिस के लिए काफी असुविधाजनक बन जाती है|

इसके अलावा पुलिस के सारे नियम और अधिनियम पुरुषों की भूमिका देखते हुए ही बनाये गए है। यहाँ तक कि पुलिस स्टेशन की संरचना और पुलिस की वर्दी भी पुरुषों के अनुसार ही बनाई गयी है। उल्लेखनीय है की भारत जैसे पुरुष प्रधान देश में महिलाओं से हमेशा अधीनता की अपेक्षा रखी जाती है।  पुलिस में बहुमत संख्या पुरुषों की होने की वजह से पुलिस सेवा पुरुष प्रदान व्यवसाय बन चूका है| इसी कारण महिलाओं को आज भी पुलिस विभागो में स्वीकृति हासिल करने के लिए जूझना पड़ रहा है|

महिला पुलिसकर्मियों की समस्याएँ

महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुलिस दलों में हमेशा से ही अपर्याप्त रहा है| पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या कम होने के कारण उन्हें ‘वुमन फ्रेंडली’ वातावरण हीं मिलता, जिसके चलते  वे अपनी तकलीफें पुरुष सहकर्मियों को बताना सहज नहीं समझती|

इन्ही तकलीफों को समझने और गहराई से परखने के लिए पुलिस यूनिवर्सिटी की एक शोधकर्ता द्वारा एक आनुभविक शोध किया जिसके अनुसारमाहवारी के समय महिलाओं को अपनी ड्यूटी करने में कई असुविधाएं होती है|

पुलिस में स्ट्रिक्ट हायरार्की होने के कारण अधिकांश महिलाऐं निचले स्तर यानी कांस्टेबल की पोस्ट पर नियुक्त है| लेकिन पुलिस थाने की अध्यक्षता मुख्य रूप से पुरुषों द्वारा की जाती है, जो की सब-इंस्पेक्टर या फिर इंस्पेक्टर के पद पर होते है| इस वजह से महिलाऐं माहवारी के समय ड्यूटी में हो रही तकलीफों  के बारे में बता नहीं पाती|

माहवारी में उपयोग होने वाले सेनेटरी नैपकिन्स और उन्हें डिस्पोज़ करने के लिए इंसीनरेटर भी पुलिस स्टेशन में उपलब्ध नहीं है, जबकि वे रेलवे स्टेशन जैसी जगहों में आसानी से प्राप्त किये जा सकते है | अधिकतर बीट एवं बंदोबस्त पॉइंट पर शौचालय की सुविधा ना होने के कारण उन्हें घंटो तक शौचालय उपयोग किए बिना खड़ा रहना पड़ता है| जिससे वे कई सारे इन्फेक्शन्स की चपेट में आ सकती है, और मासिक के दिनों में तो सम्भावना और भी बढ़ जाती है|

और पढ़ें : महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित भारतीय पुलिस कैसे करेगी महिलाओं की सुरक्षा?

पुलिस की वर्दी, जो पुरुष की प्राथमिकता देखकर बनाई गयी है, माहवारी के समय महिला पुलिस के लिए काफी असुविधाजनक बन जाती है| ऐसा इसीलिए क्यूंकि वर्दी का रंग खाकी होने के कारण उसमे दाग लगने की और दाग के ज़ाहिर होने की सम्भावना रहती है| इन दिनों में महिलाओं को पेट और पीठ दर्द होने की शिकायत भी रहती है, जिसके चलते वर्दी के ऊपर टाइट बेल्ट बांधने में उन्हें काफी दिक्कत होती है|

सबसे चौंका देने वाली बात यह है की जब एक महिला पुलिसकर्मी इन दिक्कतों का इज़हार किसी अन्य महिला अधिकारी को करती है, तो अक्सर उनकी परेशानियों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है| इन्ही बातों से हताश होकर महिला पुलिसकर्मी अपनी समस्यायों को व्यक्त करने की जगह उन्हें मन में ही दफ़न कर देती  है|

इन समस्याओं का असर केवल उनकी शारीरिक सेहत पर ही नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक जीवन पर भी पड़ता है| लेकिन जिस तेज़ी से महिलाओं की ज़रूरत पुलिस सेवा में बढ़ रही है, उसे ध्यान रखते हुए यह दरकार है की महिलाओं को पुलिस प्रशासन द्वारा ज़रूरतमंद सुविधाएं मिले, ताकि वे अपना काम कुशलता से कर सके|

समस्याओं के लिए क्या हो सकते है उपाय?

पहला, संविधान के आर्टिकल 21 (राइट टू लाइफ) के अनुसार, महिलाओं को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, जिसके तहत सरकारी दफ्तरों में उन्हें स्वच्छ शौचालय, साफ़ पानी और सही मात्रा में सेनेटरी प्रोडक्ट्स उपलब्ध होने चाइये| महिला पुलिसकर्मियों को भी इन विषयों के बारे में सेंसिटाइज़ करना होगा, क्यूंकि अधिकांश महिलाओं की भर्ती कांस्टेबल लेवल पर होती है, जिसके कारण वे अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानती|  

दूसरा, पुलिस अकादमियों में पुलिस प्रोबेशनर्स और रिफ्रेशर कोर्सेज के लिए आये अधिकारीयों को एजुकेशनल ट्रेनिंग के दौरान जेंडर सेन्सिटिज़ेशन की क्लासेज देनी होगी, ताकि वे पुलिस स्टेशन में ऐसा माहौल उत्पन्न कर सके जहाँ महिलाकर्मी अपनी तकलीफें को खुल के बयान कर पाए|

तीसरा, महिला पुलिस कर्मियों को ड्यूटी के दौरान जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, उनका समाधान करने के लिए हर पुलिस स्टेशन में एक रिड्रेसल बॉक्सस्थापित होना चाइए, जिसके द्वारा महिलाकर्मी अपनी दुविधाओं को अज्ञातकृत रूप से बता सके, और एक इंस्पेक्शन काउंसिल” का गठन करना होगा, जो इस मेकेनिज़्म का निरंतर निरक्षण करे|

चौथा, महिलाओं और पुरषों के बीच जैविक अन्तर का ध्यान रखते हुए महिला पुलिस कर्मियों को अगर प्रिफरेंशियल ट्रीटमेंट दिया जाए, तो वे अपना कर्तव्य पूरी लगन और निष्ठा से कर सकेंगी| इसके लिए प्रशासन को महिला कर्मियों के लिए थानों में अलग से शौचालय, डिस्पेंसरी, नर्सिंग रूम्स आदि उपलब्ध कराने होंगे| साथ ही साथ हार्मोनल इम्बैलेंस से हो रही अनियमित माहवारी के दौरान महिलाकर्मी को किसी भी तरह की शर्मिंदगी और उत्पीड़न का शिकार न होन पड़े, इसका ध्यान रखते हुए प्रशासन को पुलिस कर्मियों के लिए वैकल्पिक यूनिफार्म का प्रावधान बनाना होगा| गौतलब है की ब्यूरो ऑफ़ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट  ने 2011 में ये सिफारिश की थी लेकिन आज तक राज्य पुलिस प्रशासनों द्वारा इसे लागू नहीं किया गया है|

और पढ़ें : शर्म का नहीं बल्कि विस्तृत चर्चा का विषय हो माहवारी


 यह लेख विनीता और रोचिन ने लिखा है। यह दोनों सेण्टर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड पब्लिक पॉलिसी में शोधकर्ता है

तस्वीर साभार : Aljazeera

Comments:

  1. Nzeakor Favour says:

    Please, let’s have the English version

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