इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ इस्मत चुगताई की किताब लिहाफ़ जो लाइब्रेरी की मुश्किल किताब थी

इस्मत चुगताई की किताब लिहाफ़ जो लाइब्रेरी की मुश्किल किताब थी

मेरे लिए ‘लिहाफ़’ एक कहानी या किताब ही नही थी बल्कि उसमें लायब्रेरी वाले बंदे के ‘मुश्किल’ वाले शब्द का हल ढूँढना भी ज़रूरी था।

हसीना खान

हमारे घर के सामने एक छोटी-सी किताबों की दुकान/ लायब्रेरी हुआ करती थी। किताबों की छोटी-सी दुकान में खूब खचाखच पुराने नए अफ़साने, ग़ज़ल और कहानियों से भरी किताबें और नॉवेल। पचास पैसे और एक रुपये हर दिन के किराए से चलने वाली ये लायब्रेरी खूब मशहूर थी। बारह से तेरह की उम्र में मुझे खूब किताब पढ़ने का जुनून शुरू हुआ। घर के सामने लायब्रेरी रहने से किताबें लाने और लौटाने में वक्त नही लगता था। हमारे घर में किताब पढ़ने का माहौल ही नहीं था। इसलिए जब भी किताब हो तो घर में पहरेदारी हुआ करती थी। किताबों में छुपे रूमानी किस्से, गुदगुदाते गुफ़्तगू मुझे और भी तनहापसंद बनाने की तरफ ले जाते रहे। खैर छुपते-छुपाते पढ़ते रहने का दौर चलता रहा – कभी देर रात में या स्कूल के किसी खाली पीरियड में – वो बेहतरीन दौर हमेशा याद आता है।

कई बार किताबों में मंटो और इस्मत का ज़िक्र हुआ करता था। जब भी इस्मत और मंटो की किताबें लायब्रेरी से माँगते थे, हमेशा घुमा-घुमाकर जवाब मिलता रहा, पर किताबें कभी नहीं मिलीं। आख़िर एक दिन पूछने की जुर्रत कर ही डाली ‘ये दोनों भी उर्दू लिखते हैं। आपके पास सभी उर्दू की किताबें हैं, इनकी किताबें क्यों नहीं मिलतीं?’ तुरंत लायब्रेरी मालिक ने कहा, ‘हम मुश्किल किताबें नहीं रखते।’

जब कॉलेज जाने का दौर शुरू हुआ, कई बार कॉलेज की लायब्रेरी में पूछने पर भी मंटो और इस्मत नहीं मिले। इन किताबों को कब ख़ामोशी से लायब्रेरी की अलमारी से निकाला गया उन्हें भी नहीं मालूम था। मुस्लिम कॉलेज के बहस और सेमिनार में भी तरक्कीपसंद लेखकों को याद करते समय भी बहुत बार इस्मत और मंटो को दूर ही रखा जाता रहा।

मेरे लिए ‘लिहाफ़’ एक कहानी या किताब ही नही थी बल्कि उसमें लायब्रेरी वाले बंदे के ‘मुश्किल’ वाले शब्द का हल ढूँढना भी ज़रूरी था।

इस्मत के गुज़रने की खबर उर्दू अख़बार में ज़्यादा सुर्ख़ियों में इसलिए थी कि उनकी इच्छा के मुताबिक उन्हें दफ़नाने के बजाय बिजली के ज़रिए जलाया यानी ख़ाक किया गया था। इस्मत के इस फ़ैसले के ख़िलाफ बहुत ही भद्दे व गुस्ताख बयान लिखे जा रहे थे। उसी के चलते लिहाफ़ का कुछ हिस्सा उर्दू अख़बार में छपा। पर साथ की टिप्पणी में बहस ये थी कि इस्मत की लिहाफ़ और दूसरी कहानियों को कैसे ज़्यादातर उर्दू अख़बारों में ‘उर्दू की तौहीन’ या ‘ख़ात्मा’ जैसे शब्दों से नवाज़ा गया है।

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महदूद दायरों में रही मेरी ज़िंदगी को ये मालूमात आधी-अधूरी लगी। तब तक इस्मत की कुछ किताबें बाज़ार में आने लगी थीं जिससे लिहाफ़ भी मेरे हाथ लग गई। जैसे ही किताब मुझे मिली मैं पढ़ने से पहले घर में इसे छुपाने की जगह ढूँढ रही थी, इस मुश्किल के साथ बेताबी चल रही थी कि आख़िर इस्मत को लेकर इतनी रंजिशें क्यों – हमारी वो छोटी-सी उर्दू लायब्रेरी हो या सरपरस्तियों की पहरेदारी, वो सारे लोग जो हम पर बराबर नज़र रखे हुए थे।

मेरे लिए ‘लिहाफ़’ एक कहानी या किताब ही नही थी बल्कि उसमें लायब्रेरी वाले बंदे के ‘मुश्किल’ वाले शब्द का हल ढूँढना भी ज़रूरी था। हमें इसे पढ़ने से बार-बार क्यों रोका जाता रहा, इससे दूर क्यों रखा जाता रहा? शायद इसलिए की उसके पन्नों से हमारी ख्वाहिशों को हवा ना मिले, दबी-छुपी ख़ामोशियों को पनाह ना मिले। परदा  और शादी जैसे दस्तूर को हम शर्मिंदा ना करें। पन्नों को कई बार पलटते हुए अल्फाज़ों को समझने के मुकाम तक पहुँच ही रहे थे। वो उम्र जब ख़ुद की ज़िंदगी में भी हलचल पैदा हो रही थी, रूमानियत की तरफ रुझान बढ़ रहा था। वो रूमानियत जो मेरी समझ और आस पास के रिश्तों से बहुत अलग थी। मैं ख़ुद को समझने की कोशिश में जुटी रही पर उसे कुछ लफ्ज़ नही दे पा रही थी।

मेरी ज़िंदगी में ‘लिहाफ़’ और स्त्री संगम ना ही बहुत आसानी से आए ना ही बहुत सहूलियत बख़्श मौके रहे। स्त्री संगम की शुरूआत और उसी वक़्त फोरम में हो रही जेंडर जस्ट क़ानूनों की बहसों में बार बार आने वाले होमोसेक्शुअल, गर्लफ्रेंड, जैसे लफ्ज़ को मैं उर्दू डिक्शनरी में ढूँढती रहती पर फिर भी मुतमईन नहीं हो पाती। कभी पूछने की शर्म, तो कभी अपने आप में कमियों को महसूस करना कि मुझे ये क्यों नहीं मालूम, तो कभी भाषा की वजह से।

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ये दौर मुझे अपनी ज़िंदगी में सोचने व समझने का बेहतरीन मोड़ रहा। नये अल्फाज़ों की गहराइयों को अपनी ज़िंदगी में अमली तौर पर देखने व परखने का मौका मिला। कट्टरपंथी व मज़हबी समाज व घरों में पाबंद उसूलों पर सवाल पूछने लगी… इन चर्चाओं में शामिल होने से  मुझे काफ़ी मदद मिली, ना सिर्फ़ ख़ुद को समझने में बल्कि जिस रहन-सहन की आबादी के बीच मैं काम करती थी वहाँ की औरतों के साथ अपने उस काम में रफ़्तार लाने में भी। यूँ मुसलमान औरतों की पहचान की बातचीत का रुख़ बदला।

आदाब और हेलो के आगे गले मिलने की रिवायतें भी चल पड़ीं। लर्ज़िश और जुम्बिश हमारी मुलाक़ातों में झलकने लगे। हम निरालों की गिनती में शामिल हो गये… हमारा मज़ाक भी उड़ाया गया कि हम बार-बार सेक्स की बातें करते हैं पर हम इन मुद्दों को मरकज़ बनाते रहे।

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यह लेख हसीना खान ने लिखा है जिसे इससे पहले स्क्रिप्ट्स (नं १५, दिसंबर २०१५) और गेलैक्सी मैगेजिन में प्रकाशित किया जा चुका है।

तस्वीर साभार : scroll.in

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