इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ मोना अहमद : भारत की एक मशहूर ट्रान्स शख़्सियत

मोना अहमद : भारत की एक मशहूर ट्रान्स शख़्सियत

मोना अहमद बंबई के फ़िल्मी सितारों से मिलने से लेकर बेहतरीन स्टेज प्रदर्शन तक अपने दौर की एक सबसे एक्टिव ट्रान्सजेंडर साबित हुई।

हमारा समाज मुख्यतः दो जेंडर को मान्यता देता है – ‘आदमी’ और ‘औरत।’ इसके सिवा हर शख़्स जो कागज़ों पर इन दो शब्दों के आगे बने डिब्बों में से किसी एक पर निशान नहीं लगा सकता वह तीसरा जेंडर है। कुछ बेहद आम शब्द हैं भाषा के जिनसे इन्हें पुकारा जाता है जैसे कि ‘हिजड़ा’ या ‘किन्नर’ या ‘छक्का’। ‘हिजड़ा’ उर्दू का शब्द है जिसमें कि ‘हिज’ यानि ‘औरत जैसा’ और ‘ड़ा’ अक्सर उर्दू भाषा मे गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। ‘किन्नर’ शब्द हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल मे लाया जाता है। ‘छक्का’ शब्द भी ट्रांसजेनडेर्स के लिए अपमानस्वरूप एक नाम है। ‘शिखंडी’ महाभारत के एक किरदार का नाम है। इन सबके अलावा ‘उभयलिंगी’ और ‘कोथी’ जैसे शब्द जो अपमानजनक नहीं हैं, इन्हें ना के बराबर आम भाषा में लाया जाता है। यही भाषा और सोच कल भी थी, आज भी है। मोना अहमद, उसी समाज से उभरी एक ट्रान्सजेंडर जो कहती हैं, “आप सचमुच नहीं समझते। मैं एक तीसरे जेंडर से हूँ, न कि वो आदमी जो औरत बनना चाहता हो। ये कमी आपके समाज में है कि वो केवल दो जेंडर को ही सच मानता है।”

अहमद से मोना तक

साल 1937 की पुरानी दिल्ली में एक सैयद मुसलमान के घर दो लड़कियों के बाद एक लड़का पैदा हुआ। ज़ाहिर है पिता की खुशी सातवें आसमान पर रही होगी जो लड़के का नाम ‘अहमद’ रखा। ‘अहमद’ पैगंबर मोहम्मद के कई नामों में से एक है। उम्र के साथ अहमद और परिवार ने जाना कि वह ट्रान्सजेंडर है। यानी उसका मन शरीर से जुड़े समाज के नियमों को नहीं मानता। नतीजतन अहमद को धिक्कार की नज़रों से देखा जाने लगा। स्कूल में बच्चों व अध्यापकों की बदसलूकी का शिकार होना काफ़ी न था कि पिता ने भी एक रोज़ अहमद की जान लेने की कोशिश की। इस एक वाकये का उसपर बेहद गहरा असर पड़ा। पर यही वो समय था जब अहमद ने उस दुनिया से भागकर अपनी पसंद की एक दुनिया में आना चाहा जहाँ उसने ‘मोना अहमद’ की शख़्सियत अपनाई।

आज कई संस्थाएं हैं जो किन्नरों के हित में काम करती हैं, जो मुफ़्त में या कम से कम खर्च मे हर तरह का मेडिकल सहयोग देने में भी पीछे नहीं हटती। अब मेडिकल साइन्स ने उतनी तरक्की कर ली है लेकिन जिस वक़्त मोना अपनी पहचान स्थापित करना चाहती थी उस वक़्त इस तरह की सर्जरी न केवल मुश्किल थी बल्कि बहुत-सी अवधारणाओं से घिरी भी थी।

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मोना से आगे

बचपन से ही मोना नाचने-गाने का बेहद शौक़ रखती थी। पर वह किन्नर समाज की रीतियों व विचारधाराओं के विरुद्ध रही। कहने को किन्नर समाज धर्म-निरपेक्ष समाज है। लेकिन यहाँ भी हर समाज की ही तरह नियम हैं, राज है, ‘गुरुओं’ का। इस दुनिया में परिवार का अस्तित्व ‘गुरु-चेले’ के ढांचे पर खड़ा है। गुरु एक उम्रदराज़-अनुभवपूर्ण व्यक्तित्व है जो कि उसे इस क्षेत्र में अब शक्तिशाली बनाता है। वहीं चेला अपने घर-परिवार व समाज से बेदखल किया गया और दर्दनाक सर्जरी से गुज़ारा गया है (जो बहुत मुमकिन है कि उसकी इच्छा के विरुद्ध हुआ हो)। शारीरिक व मानसिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति जो कभी अपनी पहचान पाने के ख़्वाब देखता था अब केवल स्वीकार होना चाहता है।

तस्वीर साभार : feminisminindia

बाक़ी किन्नरों की ही तरह मोना को भी अपने गुरु मिले, सोना और चमन, दिल्ली के लाजपत नगर के नामी किन्नर गुरुओं में से एक जिनके बारे में मोना कहती है कि उसने कई लंबे और सुंदर सफ़र तय किए। केवल नज़ारों के मामलों में ही नहीं बल्कि रुपयों के संदर्भ में भी। बंबई के फ़िल्मी सितारों से मिलने से लेकर बेहतरीन स्टेज प्रदर्शन तक मोना अपने दौर की एक एक्टिव ट्रान्सजेंडर साबित हुई। यह उस वक़्त हुआ जब ज़्यादातर किन्नर आम लोगों से चंद रुपयों तो क्या ज़रा इज़्ज़त पा जाने की भी उम्मीद नहीं रखते थे। हालांकि ‘इस वक़्त’ और ‘उस वक़्त’ में कोई महत्वपूर्ण सामाजिक बदलाव अब भी नहीं आया है और हर समाज में ऊंच-नीच कायम है।

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‘सबकुछ’ शब्द के दायरे में दरअसल वो सब नहीं था जो मोना सचमुच चाहती थी। वह माँ बनना चाहती थी और यही दुआ मांगने हज पर भी गयी। जल्द ही उसने एक लड़की को गोद लिया जिसका नाम ‘आईशा’ रखा। हालांकि आईशा बहुत दिन उसका घर रौशन नहीं रख पायी। गुरु चमन उसे धोखे से अपने साथ पाकिस्तान ले गए। मोना ने अपने हक़, अपने बच्चे के लिए पुलिस का दरवाज़ा खटखटाया पर क्यूंकि यह किन्नर समाज के नियमों के विरुद्ध था, सिवाय मार-पीट और समाज से निकाले जाने के उसे कुछ नहीं मिला।

मोना के बाद

उन दिनों में जब मोना को जीवित अपना कोई नहीं मिला तो उसने महंदिया कब्रिस्तान की चंद क़ब्रों को अपने बाप-दादाओं का बताकर वहीं एक घर बनाया। घर जो केवल उसका नहीं था बल्कि उन सब का था जो किसी न किसी तरह से समाज से निकाले जा चुके थे। लड़कियों के लिए स्विमिंग पूल बनवाया तो कई जगह शादियों के लिए छोड़ी और कहीं बच्चों के लिए 50 बिस्तर भी लगवाए। पर कभी कोई लड़की उस स्विमिंग पूल में नहीं आई, न कभी वहाँ शादियाँ हुई और उन 50 बिस्तरों को लोग तोड़ ले गए। उस घर के दरवाज़े फिर भी खुले रहे, सब के लिए। यकीनन वो दरवाज़े हमारी और आपकी सोच से तो बड़े ही रहे होंगे।

बचपन से ही मोना नाचने-गाने का बेहद शौक़ रखती थी। पर वह किन्नर समाज की रीतियों व विचारधाराओं के विरुद्ध रही।

ढलती हुई बाकी उम्र वहीं गुजरती रही। कुछ चेलों और आसपास के इक्का-दुक्का लोगों के बीच। तब मोना दयानिता सिंह से मिली। दयानिता एक पत्रकार की हैसियत से मोना की कहानी जानने आई और उनकी सोच और बातों को दुनिया से अलग-थलग पाकर उसे इस किताब की शक्ल दी, “मैं मोना अहमद”। मोना ने आगे बढ़कर अपने सारे अनुभवों को इस किताब का हिस्सा बनने दिया। 9 सितम्बर 2017 को मोना अहमद का देहांत हो गया पर अहमद को पीछे छोड़ मोना को आगे ले जाने का सफ़र आज एक किताब मे दर्ज है। 

हज़ारों सपने बंद कमरों के शीशों से निकलकर फिर किसी की गुलामी करते हुए दम तोड़ देते हैं, क्यों? ट्रांसपर्सन्स के अधिकार की बात में उन्हीं को शामिल करना ज़रूरी नहीं समझा जाता, क्यों? मोना अहमद की ही तरह हर ट्रान्सजेंडर कम-से-कम अपना परिवार तो इस जंग में खो ही देता है, क्यों? यही ‘क्यों’ आज ट्रान्सजेंडर पर्सन्स(प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल 2019 के आगे भी बिना किसी जवाब के अडिग खड़ा है

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तस्वीर साभार : ndtv

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