“एक थप्पड़ ही तो मारा है, शादी में इतना बर्दाश्त करना पड़ता है।“
“पति-पत्नी के रिश्ते में इतनी ऊंच-नीच चलती है।“
“शादी में औरत को थोड़ा बर्दाश्त करके चलना पड़ता है।“
“मर्द गर्म खून वाले होते हैं, थप्पड़ चला दिया गुस्से में, तुम औरत हो अपना रिश्ता बचाने के लिए बर्दाश्त कर लो।“
“एक थप्पड़ ही तो मारा है, छोटी सी बात है, देखना आकर तुम्हें मना ले जाएगा।“
ये लाइनें हमने अपने आस-पास, अपने घर परिवार में न जाने कितनी दफे सुनी होंगी। कभी अपनी मां के लिए, कभी अपनी बहन तो कभी अपनी भाभी तो कभी अपनी बुआ के लिए। घरेलू हिंसा होने के बाद जब औरतें अपना दुख, अपनी तकलीफ दूसरों से साझा करना चाहती हैं तो उन्हें ऐसी ही सलाह दी जाती है।
सलाह ये कि पति ने पीटा ही तो है। थोड़ा सह लो और अपने शादी के रिश्ते को बचा लो। रिश्ते को बचाने के नामपर देश में लाखों महिलाओं को गुमराह किया जाता है। रोज़ अपने पति से पिटती महिलाओं को थोड़ा-थोड़ा बर्दाश्त करने की सलाह दी जाती है ताकि रिश्ता बचा रहे। आंखों के काले घेरे, मुंह पर सूजन, बिखरे बाल लिए जब महिलाएं पूछती हैं कि उनके साथ हिंसा क्यों हुई तो उन्हें पट्टी पढ़ाई जाती है कि तुम्हारा पति मर्द है और मर्द ऐसे ही होते हैं। लेकिन मर्दों को पीटने का हक किसने दिया, वे अपने जीवनसाथी पर हाथ कैसे उठा सकते हैं। यही सवाल पूछती नज़र आती है तापसी पन्नू और अनुभव सिन्हा की नई फिल्म- थप्पड़।
फिल्म के ट्रेलर में जब तापसी पन्नू आंखों में गुस्सा लिए ये सवाल करती हैं कि ‘एक थप्पड़ भी क्यों मारा, नहीं मार सकता।’ तब बतौर दर्शक हमारे पास इसका कोई जवाब नहीं होता। एक थप्पड़ मारने के बाद नायक तापसी पन्नू को मनाने की कोशिश करता है, उसकी आंखों में आंसू भी होते हैं लेकिन तापसी अपने सवाल पर टिकी रहती हैं- एक थप्पड़ भी क्यों, नहीं मार सकता। अपने पार्टनर के एक थप्पड़ मारे जाने पर फिल्म की नायिका विद्रोह करती है। उलझन में अपने बिस्तर को पटकती है। वकीलों के सवालों का बार-बार जवाब देती है- नहीं मार सकता, एक थप्पड़ भी नहीं। ट्रेलर की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है। सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बनी बॉलीवुड फिल्मों की एक ही दिक्कत होती है। ये फिल्में बस मुद्दे को छूकर निकल जाती हैं। लेकिन थप्पड़ का ट्रेलर इस कसौटी पर खरा उतरता दिख रहा है। फिल्म में बात सिर्फ घरेलू हिंसा की नहीं बल्कि यह सवाल उठाया गया है कि क्या पार्टनर का एक थप्पड़ मारना छोटी बात है?
क्या आपने ये सवाल अपने घर में पूछा
हमारे लिए अपनी घर की औरतों के साथ हिंसा होते देखना एक सामान्य-सी बात है। ज़रूरी नहीं कि हिंसा हमेशा शारीरिक ही हो, क्योंकि हिंसा मानसिक भी होती है। अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालिए और सोचिए कि आखिरी बार आपके पिता ने आपकी मां पर कब चिल्लाया था। आपका जवाब होगा- शायद कल ही, परसों भी तो, शायद उसके एक दिन पहले भी। अगर आपको याद नहीं तो शायद आपका परिवार इस भारतीय समाज की सड़ांध से दूर है। कभी दाल में नमक का ज़्यादा पड़ना, कभी किसी चीज़ का समय पर न मिलना ऐसी न जाने कितनी वजह होती होंगी। अगर पार्टनर्स के बीच झगड़ा हो और पति किसी बात पर अधिक चिढ़ जाए तो वह अपनी पत्नी की छाती पर धौल जमाने का भी माद्दा रखता है। ऐसी स्थिति में महिला के मन में एक बार तलाक का ख्याल आता है लेकिन वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है, उसके बच्चों का क्या होगा। यह सोचकर वह अपनी छाती पर पड़ी धौल पर मरहम लगाकर अपने पति के लिए कच्चे केले की सब्जी बनाने में मशगूल हो जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि झगड़े की वजह से घर में खाना नहीं बना होता और मार खाने के बाद ये जिम्मेदारी भी औरत की ही मानी जाती है कि वह सबको मनाकर खाना खिलाए। इन सबके बीच वह अपनी छाती का दर्द भूल जाती है। कभी-कभी दर्द उठने पर बगल की परचून की दुकान से दर्द की गोली की दवा खरीद लाती है। सामाजिक जाल उसके आस-पास ऐसा बुना जाता है कि औरत को लगता है जैसे गलती उसी कि थी जो उसने बहस की। औरत की छाती पर धौल जमा देख उसकी पीएचडी की डिग्री पर पड़ी धूल की परत धीरे-धीरे मोटी होती जा रही है। औरत ये भूल जाती है कि कभी वह घरेलू हिंसा के मुद्दे पर लड़कियों को जागरूक किया करती थी। ऐसे मामलों को सुलझाने के लिए पुलिस स्टेशन के चक्कर लगाया करती थी। उसके एल्बम में आज भी एक फोटो पड़ी है जिसमें उसके हाथ में एक तख्ती है- घरेलू हिंसा नहीं सहेंगे।
एक औरत न जाने कितनी बार अपने परिवार से, अपने पार्टनर से बेटियों के पैदा होने के लिए ताने सुनती आई है। ताने सुनकर भी वह चुपचाप रसोई में रोटियां बेलती रही। कभी उसने पलटकर नहीं पूछा, क्या ये बेटियां मैंने अकेले पैदा की। जब पति ने हाथ पकड़कर घर से निकालने की धमकी दी तो उसने अपने पति से न निकालने के लिए मिन्नतें की। कभी उसने पलटकर यह नहीं कहा, मेरी एमए की डिग्री साथ निभाएगी मेरा। हिंसा होने पर औरत ने जब अपने घर फोन मिलाया तो मां-बाप ने एक ही सलाह दी- औरत जात को इतना सहना पड़ता है। औरत 48 साल की हो चुकी है सहते-सहते।
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ये कहानियां आपके घर की हो सकती हैं या शायद मेरे घर की भी। यह मेरा कोई पूर्वानुमान या पूर्वाग्रह नहीं है आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक भारत में हर तीसरी महिला के साथ हिंसा होती है, एक बार फिर से पढ़िए-हर तीसरी महिला। हिंसा होने पर उसे रिपोर्ट करने की जगह क्यों औरतें मिन्नतें करती नज़र आती हैं। ऐसा क्यों है कि औरतों को लगता है कि घरेलू हिंसा उनके हिस्से की जागीर है। एक रिपोर्ट बताती है कि घरेलू हिंसा के 75 फीसदी मामले रिपोर्ट ही नहीं होते। यहां बात आती है मर्दों के वर्चस्व की। आपने ये लाइन न जाने कितनी बार सुनी होगी- औरतें मर्दों की जूती होती हैं और जूती को सिर पर नहीं पहनते। हमारे समाज में इस बात को सबकी स्वीकृति मिली हुई है कि औरतों को दो थप्पड़ लगाकर काबू में रखना चाहिए।
मर्दों को पीटने का हक किसने दिया, वे अपने जीवनसाथी पर हाथ कैसे उठा सकते हैं। यही सवाल पूछती नज़र आती है तापसी पन्नू और अनुभव सिन्हा की नई फिल्म- थप्पड़।
हमारे समाज में सत्ता शुरू से मर्दों के हाथ में रही। औरतों को वे अपनी इसी सत्ता का हिस्सा समझते आए हैं। औरतों को काबू में रखने से मतलब उनको उनकी मूलभूत आजादी से दूर रखना। उनको इस तरह से भ्रमित रखना कि थप्पड़ मारा है तो गलती उनकी ही होगी। अगर औरतें एक थप्पड़ खाने पर पलटकर सवाल कर दें कि तुम मुझे थप्पड़ नहीं मार सकते, एक थप्पड़ भी नहीं। ऐसे में पुरुष की सत्ता की दीवार दरकने लगेगी, उसका अहं छोटा पड़ जाएगा क्योंकि उसने अपनी मां को पिटते देखा, अपनी बहन को ससुराल से पिटकर आते देखा और इसलिए वह अपनी पत्नी के साथ भी हिंसा को जायज़ समझता है। अगर एक महिला अपने साथ हुई हिंसा को रिपोर्ट करने की हिम्मत भी करती है तो उसका साथ देने की जगह सब उसे चुप रहने की सलाह देते हैं, सुलह करने की वकालत करते हैं। कहते हैं मर्द बाहर का गुस्सा घर आकर अपनी पत्नी पर निकाल देते हैं। यहां मर्दों को बचकर निकलने देने की गुंजाइश नहीं छोड़नी चाहिए।
हमारा केवल पारिवारिक ही नहीं न्यायिक ढांचा भी इतना ही मर्दवादी नज़र आता है। जब तक घरेलू हिंसा में औरत को जलाकर मार न दिया जाए ऐसे मामलों पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जबकि इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि औरत को जलाकर मारने की शुरुआत एक थप्पड़ और कुछ तानों से ही होती है। लेकिन हमने अपनी औरतों को शादी से पहले ये कहकर भेजा होता है कि थोड़ा सह लेना। हमारी न्याय व्यवस्था घरेलू हिंसा को एक अपराध की तरह देखने की बजाय उसे घर का आपसी मामला कहकर रफा-दफा कर देना चाहती है।
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औरतों को हमेशा हिंसा न रिपोर्ट करने की हिदायत दी जाती है। हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है जो हिंसा को रोकने की जगह हिंसा पर चुप रहने को बढ़ावा देती है। कुछ तो वजह होगी जो 75 फीसद महिलाएं अपनी साथ हो रही हिंसा को लेकर चुप रहती हैं। घरेलू हिंसा को एक अपराध की तरह स्वीकृति देने की जगह उसे घर के ऐसे कोनो में छिपा दिया जाता है जहां किसी की नज़र उस पर न पड़े।घरेलू हिंसा अपराध होकर भी आज भी घर की बात मानी जाती है, पति-पत्नी के आपस की बात कहकर उसे टालने की कोशिश की जाती है। जबकि घरेलू हिंसा के खिलाफ सबसे बड़ा और जरूरी कदम उसे रिपोर्ट करना होता है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे कहता है कि गंभीर चोट के बाद भी महिलाएं घरेलू हिंसा के खिलाफ रिपोर्ट करने से हिचकती हैं। केवल 1.5 फीसदी महिलाएं ही घरेलू हिंसा के खिलाफ पुलिस स्टेशन जाने की हिम्मत जुटा पाती हैं
आखिर हम मर्दों को वह स्पेस दे ही क्यों जिसमें वह हमारे साथ हिंसा को उतारू हो जाए। क्यों हम अधमरी होने तक चुप रहे क्यों न थप्पड़ की नायिका की तरह पहले ही थप्पड़ पर उससे बार-बार सवाल करें– क्यों मारा, नहीं मार सकता।
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