इंटरसेक्शनल सफ़ूरा ज़रगर की गिरफ़्तारी प्रशासन की कायरता का उदाहरण है

सफ़ूरा ज़रगर की गिरफ़्तारी प्रशासन की कायरता का उदाहरण है

वर्तमान सरकार के विरोध में आवाज़ उठाता हर शख्स 'जिहादी', 'नक्सली', 'देशद्रोही', 'टुकड़े टुकड़े गैंग' क़रार दिया जाता है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी हमारे संविधान में निर्दिष्ट मौलिक अधिकारों में से एक है। ये अधिकार आर्टिकल 19 के तहत कुछ और अधिकारों के साथ सूचित है, जिनमें अहिंसात्मक विरोध प्रदर्शन का अधिकार और संगठन बनाने का अधिकार भी शामिल हैं। ये सारे अधिकार एक स्वस्थ और सफल लोकतंत्र के लिए बेहद ज़रूरी हैं क्योंकि वैचारिक मतभेद एक बहुत स्वाभाविक चीज़ है और इसे प्रदर्शित करने का हक़ हर नागरिक को बराबर मिलना चाहिए। जहां उन्हें ये हक़ नहीं मिलता, जहां कुछ विषयों पर बोलने या सोचने भर के लिए नागरिकों को दण्डित किया जाता है, वो लोकतंत्र नहीं, तानाशाही है। कभी-कभी वैचारिक मतभेद सरकार या उसकी नीतियों से भी हो सकता है और ये मतभेद जताने के लिए नागरिकों का अहिंसात्मक तरीके से संगठित होना और विरोध प्रदर्शन करना भी ज़रूरी हो जाता है। इससे सरकार को नागरिकों की समस्याएं जानने का मौक़ा मिलता है ताकि वे अपनी नीतियों पर पुनः विचार कर सके और ऐसी नीतियां बना सके जिससे सभी का भला हो।

कई महीनों से देशभर में ऐसे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन चल रहे थे नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के ख़िलाफ़। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है दिल्ली के शाहीनबाग़ में होनेवाला विरोध प्रदर्शन जो लगभग पूरी तरह से महिलाओं द्वारा नियंत्रित था। कई छात्र संगठनों, शिक्षकों, बुद्धिजीवियों ने भी शाहीनबाग़ की महिलाओं का साथ दिया और अपनी तरफ़ से सीएए-एनआरसी का पुरजोर विरोध किया। ऐसी ही एक छात्रा थीं सफ़ूरा ज़रग़ार।

27 साल की सफ़ूरा जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं। समाजशास्त्र की ये छात्रा जामिया को-ऑर्डिनेशन कमिटी की सदस्य थीं, जिस संगठन ने सीएए के ख़िलाफ़ कई शांतिपूर्ण प्रदर्शन आयोजित किए थे। फ़रवरी में प्रेगनेंट होने के बाद भी वे इन प्रदर्शनों में सक्रिय रहने की पूरी कोशिश करती रहीं। इनमें शामिल होती रहीं। पर 10 फ़रवरी में एक प्रदर्शन में जब वे बेहोश हो गईं तब उन्हें जाना बंद करना पड़ा। घर बैठे ही वे आंदोलन से जुड़ी रहीं और सिर्फ़ आसपास बाज़ार वगैरह जाने के लिए निकलने लगीं। फिर भारत में कोरोनावायरस के फैल जाने के बाद उनकी तबियत को ख़तरा और भी बढ़ गया और उन्होंने पूरी तरह से बाहर निकलना बंद कर दिया।

वर्तमान सरकार के विरोध में आवाज़ उठाता हर शख्स ‘जिहादी’, ‘नक्सली’, ‘देशद्रोही’, ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ क़रार दिया जाता है।

10 अप्रैल को सफ़ूरा को UAPA कानून के तहत गिरफ़्तार करके तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। इस समय वे तीन महीने प्रेगनेंट हैं। उन पर फ़रवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए जनसंहार के दौरान दंगे भड़काने और हिंसा में भाग लेने का आरोप लगाया गया और बिना किसी सबूत के क़ैद कर दिया गया। उनके परिवार वालों और वकील को उनसे मिलने तक नहीं दिया गया। कई दिनों बाद ही उनके वकील को उनसे फ़ोन पर बात करने का मौक़ा मिला। ‘अल जज़ीरा’ से बात करते हुए वकील ने कहा कि सफ़ूरा ने पांच बार अपने पति के साथ फ़ोन पर बात करने की इजाज़त मांगी थी और हर बार उन्हें कोरोनावायरस संक्रमण रोकने की कोशिश के बहाने मना कर दिया गया। ऐसे नाज़ुक हालत में बंदी बनाए जाने की वजह से उनकी मानसिक स्थिति पर भी असर पड़ा है। वकील को इस बात की भी फ़िक्र है कि सफ़ूरा को जेल में पर्याप्त खाना और इलाज नहीं दिया जा रहा।

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सफ़ूरा के परिवार के लिए रमज़ान का पाक महीना बेहद तनाव और डर में गुज़र रहा है। उनके पति कहते हैं, ‘इस साल हमारा रमज़ान बहुत अच्छा होनेवाला था क्योंकि हमारी पहली औलाद इस दुनिया में आ रही है। हम बस उसकी सुरक्षा और उसके जल्दी वापस आने की दुआ कर रहे हैं। इस वक़्त उसे जेल नहीं हिफ़ाज़त की ज़रूरत है।’

कई लोगों ने सफ़ूरा की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ ऐतराज़ जताया है। सुप्रीम कोर्ट वकील वृंदा ग्रोवर कहती हैं, “इस केस से साफ़ पता चलता है किस तरह इस लॉकडाऊन को शांतिपूर्ण विरोध प्रर्दशन करते छात्रों और कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। कोर्ट के आदेश पर एक प्रेगनेंट औरत को जेल में रखा गया है, जो उसकी सेहत के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है। अगर उसकी सेहत को कुछ हुआ तो कोर्ट सरासर ज़िम्मेदार रहेगा।”

बेबुनियाद आरोप लगाकर लोगों को ‘आतंकवादी’ या ‘दंगाई’ घोषित कर देना अब इस देश में बहुत आम बात हो चुकी है। वर्तमान सरकार के विरोध में आवाज़ उठाता हर शख्स ‘जिहादी’, ‘नक्सली’, ‘देशद्रोही’, ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ क़रार दिया जाता है। इससे और कुछ भी नहीं, प्रशासन की कमज़ोरी और कायरता ही बार-बार साबित होती है। अपने संवैधानिक अधिकार आज़माते छात्रों, कर्मचारियों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं से प्रशासन डरता है। खुद की आलोचना सुनने से प्रशासन डरता है और आए दिन साधारण, निहत्थे लोगों को निशाना बनाता है।

एक प्रेगनेंट औरत को बिना किसी सबूत के एक कठोर कानून के तहत क़ैद करके प्रशासन ने दिखा दिया है कि वह कितना डरपोक है। अहिंसात्मक तरीके से प्रदर्शन करती एक छात्रा को दंगाई बताकर उसने दिखा दिया है कि अपने विरोधियों को दबाए रखने के लिए वह कितना नीचे गिर सकता है। हमारे देश के इतिहास में इससे शर्मनाक बात शायद कुछ नहीं है।


तस्वीर साभार : thewire

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