इंटरसेक्शनल जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या और बॉलीवुड का दोहरापन

जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या और बॉलीवुड का दोहरापन

जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना बेहद ज़रूरी है पर अपने देश की समस्याओं पर ख़ामोशी और बाहरी मुद्दों पर बोलना सिर्फ़ ढोंग है।

25 मई 2020। अमेरिका के मिनेसोटा राज्य के मिनियापोलिस शहर में जॉर्ज फ़्लॉयड नामक एक 46 वर्षीय ‘ब्लैक’ आदमी को गिरफ़्तार किया गया। उनपर आरोप ये था कि उन्होंने 20 डॉलर (लगभग 1500 रुपए) का नकली नोट ख़र्च किया था। जैसा वहां चलन है, गिरफ़्तार करने के बाद श्वेतांग या ‘वाईट’ पुलिस अफ़सर डेरेक शोविन ने जॉर्ज फ़्लॉयड को ज़मीन पर झुकाकर हथकड़ियां पहनाईं। पर अजीब बात यह है कि हथकड़ियां पहनाने के बाद भी ऑफ़िसर शोविन वहां से उठे नहीं। बल्कि वे जॉर्ज के गले पर अपना घुटना टिकाकर उन पर पूरी तरह से बैठ गए, जैसे इरादा जॉर्ज को कुचलने का हो।

पूरे नौ मिनट तक वे वैसे ही बैठे रहे और उनके साथी पुलिस अफ़सरों ने उनका सहयोग भी किया। आसपास के लोगों ने जब एंबुलेंस बुलाया तो भी उन्होंने एंबुलेंस वालों को जॉर्ज तक पहुंचने नहीं दिया। आखिरी तीन मिनटों में जॉर्ज की धड़कनें क्षीण होते-होते पूरी तरह से बंद हो गईं और वे चल बसे। मरते दम तक वे ‘मैं सांस नहीं ले पा रहा’ कहकर तड़पते रहे।

इस हत्या को अमेरिका में ब्लैक समुदाय के ख़िलाफ़ होनेवाले अनगिनत नस्लवादी ज़ुल्मों में से एक माना गया है। संवैधानिक तौर पर नस्लवाद ख़त्म हो जाने के बावजूद भी श्वेतांगों से ब्लैकों का शोषण ख़त्म नहीं हुआ है। आज भी ब्लैक मर्दों को फ़र्ज़ी केसेज़ में फंसाकर उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया जाता है और ब्लैक औरतों का यौन शोषण किया जाता है। आज भी ‘कु क्लक्स क्लैन’ और ‘अमेरिकन नात्ज़ी पार्टी’ जैसे ब्लैक-विरोधी संगठन सक्रिय हैं। यहां तक कि वर्तमान राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप पर भी नस्लीय भेदभाव के कई आरोप हैं।

इस घटना के बाद पूरे अमेरिका में जनता का क्रोध उबल पड़ा। मिनेसोटा की राजधानी सेंट पॉल में शुरू हुए विरोध प्रदर्शन अब देश के पचासों राज्यों में क़रीब 400 शहरों में फैल गए हैं। कई पुलिसकर्मियों ने विरोध के तौर पर अपने काम से इस्तीफ़ा दे दिया है और सोशल मीडिया #BlackLivesMatter, #WalkWithMe, और #JusticeForGeorgeFloyd जैसे हैशटैग्स से छा गया है। बहुत सारे कलाकारों ने इन हैशटैग्स के ज़रिए नस्लीय हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है और इनमें प्रियंका चोपड़ा, सोनम कपूर, दिशा पाटनी, दीपिका पादुकोण जैसे बॉलीवुड कलाकार भी शामिल हैं।

जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना बेहद ज़रूरी है पर अपने देश की समस्याओं पर ख़ामोशी और बाहरी मुद्दों पर बोलना सिर्फ़ ढोंग है।

अब मज़े की बात यह है कि यही तारकाएं, जो अमेरिका में रहते “all colours are beautiful” के नारे लगा रही हैैं और कह रहीं हैं कि त्वचा के रंग के आधार पर भेदभाव करना ग़लत है, अपने देश में गोरेपन की क्रीम के ऐड करतीं हैं। अगर आपने इन क्रीमों के ऐड्स देखे हैं तो आपको पता ही होगा किस तरह इनमें गोरी चमड़ी को ज़िंदगी में कामयाबी के साथ जोड़ दिया जाता है। दर्शकों के मन में यह धारणा बना दी जाती है कि रंग गोरा होने से लोग हमें इज़्ज़त की नज़र से देखेंगे, हमारा आत्मसम्मान बढ़ जाएगा, हमें अपने पसंद की नौकरी या प्रेमी मिल जाएंगे। और अगर हम ‘चुटकियों में गोरा निखार’ लाने वाली क्रीम न लगाएं, अगर हमारी त्वचा भूरी या काली ही रह जाए, तो हम ज़िंदगी के हर पहलू में पीछे रह जाएंगे, चाहे वह नौकरी हो या प्यार।

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अब जो सेलेब्रिटी इस तरह के वर्णवाद को बढ़ावा देकर अपना पेट भरते हैं, जिन्होंने कभी भारत में रहते इस मानसिकता के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई, वे आज किस मुंह से कह रहे हैं कि चेहरे और रंग के आधार पर भेदभाव ग़लत है? कि गोरी और काली चमड़ी दोनों सुंदर हैं? क्या अपने देश में यह कहना ज़रूरी नहीं था, जहां लड़कियां बचपन से ऐसे ऐड देखकर यही सीखती हैं कि रंग काला होने की वजह से उनका मूल्य कम है? यह बात भी गौर करने लायक है कि हमारे सेलेब्रिटीज़ सामाजिक भेदभाव और पुलिसिया दमन पर लंबे लंबे पोस्ट तभी कर रहे हैं जब ये सब विदेश में हो रहा हो। क्या अपने देश में हर दूसरे दिन होनेवाले जातिगत, सांप्रदायिक, या वर्गवादी उत्पीड़न के ख़िलाफ़ उन्होंने कभी कुछ कहा है? क्या पीड़ित बहुजनों, अल्पसंख्यकों, या आदिवासियों के लिए उनका दिल कभी पिघला है?

साल 2019 के दिसंबर में जब दिल्ली पुलिस ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय पर वार किया था और निर्दोष छात्रों पर ज़ुल्म किए थे, तब बॉलीवुड के बादशाह जो इस विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके हैं ख़ामोश थे। जब जातिवादी उत्पीड़न से तंग आकर डॉ. पायल तडवी आत्महत्या की शिकार हुईं, तब ‘नारी सशक्तिकरण’ का झंडा लहराने वाली वो तमाम अभिनेत्रियां कहां थीं? जब निर्दोष बहुजन और अल्पसंख्यक फ़र्ज़ी आरोपों के तहत पुलिस के हिरासत में टॉर्चर किए जाते हैं तब ‘इंसानियत’ और ‘प्रेम’ के गाने गानेवालों को क्या हो जाता है?

बॉलीवुड कलाकारों का यही दोगलापन उनकी इंसानियत और नैतिकता पर सवाल खड़े करता है। वे सामाजिक मुद्दों पर तभी मुंह खोलेंगे अगर मुद्दे दूसरे देश के हों। वे सरकार से सवाल तभी करेंगे अगर सरकार अमेरिका की हो। अपने देश की सरकार के आगे वे चूं तक नहीं करेंगे, बल्कि नेताओं को अपनी शादी में बुलाकर या उनके साथ सेल्फ़ियां खींचकर उनकी चापलूसी ही करेंगे।

जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या बेहद शर्मनाक है और नस्लीय भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना बहुत ज़रूरी है, यह सच है। पर अपने समाज की समस्याओं पर ख़ामोश रहकर बाहर के मुद्दों पर बोलना सिर्फ़ ढोंग है। अगर हम हर तरह के भेदभाव के ख़िलाफ़ खड़े नहीं होते तो इस ‘सिलेक्टिव ऐक्टिविज़्म’ से हमारा दोगला और अवसरवादी चरित्र ही सामने आता है।

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तस्वीर साभार : wionews

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