‘उसने देश की टॉप यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है। कॉलेज में टॉपर थी। नौकरी करती है। अच्छा कमाती है। घर के सारे कामकाज भी जानती है। घर-परिवार भी अच्छा है। लेकिन काली है।’ इतने सारे गुणगान के बाद बस एक लाइन और सारी क़ाबिलियत सुंदरता के पैमाने पर जा टिकी। ये कोई फ़िल्म का संवाद नहीं बल्कि समाज की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है और हर उस लड़की का क़िस्सा है जो ‘काली’ है। ऐसी बातों से कभी न कभी हर वो लड़की दो-चार हुई होगी जिसका रंग ‘काला’ है। मैं भी हुई हूँ, तो अब तक की ज़िंदगी में अपने इन्हीं रंगभेदी अनुभवों के आधार पर ये खुला ख़त हर उस इंसान के नाम जिन्हें काली रंगत वाले ख़ुद से कमतर इंसान लगते है।
रंगभेदी साथी,
‘साथी’ इसलिए कहूँगीं क्योंकि जन्म से लेकर अब तक किसी न किसी रूप में आपका साथ हमेशा पाया है, नकारात्मक ही सही। हाँ ये अलग बात है कि इसने मुझे ‘मानसिक’ रूप से क्षति पहुँचायी है, पर आपका साथ कभी छूटा नहीं मुझसे। ख़ैर अब मुद्दे पर आते है।
सुंदरता और महिलाओं को लेकर आपकी पितृसत्तात्मक राजनीति इन दोनों में शरीर की रंगत अहम भूमिका निभाती है। ये पितृसत्ता ही है जिसने सबसे पहले गुणों के आधार पर रंग और फिर जाति की बात की। हमारे समाज में ‘गोरा रंग’ ऊँची जाति का रंग माना जाता है। ऊँची जाति, यानी कि वो जाति जिसके पास सारे अच्छे गुण और हुनर है। या यों कहें कि जिसके पास ‘सत्ता’ है। वहीं काली रंगत निचली, पिछड़ी, दलित और शोषित का रंग जिनके पास सारे बुरे गुण है। यानी कि वो जो ‘दास’ है। इसी विचारधारा के तहत, महिला को पीढ़ी को बढ़ाने का साधन समझा जाता है।
अब आप तो ठहरे दूरगामी सोच वाले, इसलिए आने वाली पीढ़ियों को ध्यान में रखते हुए आप हमेशा बच्चे पैदा करने के लिए ऐसी महिला की चाह रखते हैं, जिनकी रंगत ‘गोरी’ हो, जिससे बच्चे गोरी रंगत वाले हो और गोरी रंगत माने ऊँची जाति और ऊँचे गुण वाली बात। इतना ही नहीं आपने अपनी इस सोच को इस तरह धर्म और परंपरा में लपेटकर परोसा है, ये माना जाने लगा कि औरत की ज़िंदगी का एकमात्र लक्ष्य ‘बच्चे पैदा करना’ है।
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पर क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी इस सड़ी और बदबूदार रंगभेदी सोच ने किस तरह महिला हिंसा और भेदभाव को बढ़ावा दिया है? आपने महिलाओं के ऊपर राज करने के लिए ऐसी पारी खेली है कि जो ‘काली’ रंगत वाली महिलाएँ हैं वो उपेक्षित और कुंठित होकर घुटने लगी। उनकी रंगत के आधार पर उन्हें हमेशा भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। वहीं गोरी रंगत वाली लड़की को सहेजने के नामपर जल्दी शादी करने और सजने-संवरने पर ख़ास ध्यान देकर उनके अवसरों को सीमित कर दिया है। इतना ही नहीं, आपने महिलाओं को भी दो अलग-अलग ऐसे वर्गों में बाँट दिया जो आपस में द्वेष की भावना रखने लगी। पर भला आप क्यों सोचेंगें? क्योंकि इस हिंसा और भेदभाव की आग आपके घर और ज़िंदगी तक थोड़े ही पहुँची है।
क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी इस सड़ी और बदबूदार रंगभेदी सोच ने किस तरह महिला हिंसा और भेदभाव को बढ़ावा दिया है?
लेकिन आप कितने भी बहाने और तर्क दें। ये सब बेकार है। क्योंकि हिंसा का कोई तर्क नहीं होता है, जो उसे सही साबित करे। हिंसा सिर्फ़ हिंसा होती है और जब आप किसी रंगत को अच्छा और किसी को बुरा मानने लगते है तो वहीं से आप हिंसा करना शुरू कर देते है।
हमारी बनायी इस इंसानी दुनिया में रंगभेद का मुद्दा कोई नया नहीं है। समय-समय पर इस भेद के हिंसात्मक स्वरूप के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई गयी। आपको हाल में अमेरिका में जॉर्ज फ़्लायड की हत्या की खबर याद होगी, जिसको लेकर एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन का प्रभाव भारत में भी देखने को मिला जब सालों से गोरी रंगत पाने की चाह को पूरा करने का ढोंग करने वाली फ़ेयर एंड लवली जैसी कंपनी ने अपने नाम से ‘फ़ेयर’ शब्द हटाने की पहल की। इसके साथ ही, देश की कई बड़ी हस्तियों ने रंगभेद के ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाई। पर वास्तव में ये सब खोखला और सतही है। क्योंकि सालों से कभी फ़िल्म,टीवी, प्रचार-इश्तिहार के ज़रिए तो कभी गीत-संगीत के ज़रिए ये रंगभेद बेचने और सोच को सींचने के बाद चंद बयान और नाम बदलने से संस्कृति नहीं बदल सकती है। जी हाँ, ये संस्कृति ही तो है, जो ये मान चुकी है कि सुंदरता मतलब ‘गोरा रंग।’
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इस संस्कृति का प्रभाव इस कदर हमारे समाज में है कि क्या पढ़ा-लिखा और क्या अनपढ़। क्या शहर और क्या गाँव। हर जगह रंगभेदी धारणा बेहद साफ़ है। यही धारणा है जो लड़की पैदा होने को शोक और काली रंगत वाली लड़की पैदा होने को ‘दोहरा शोक’ बनाती है। इसी सोच ने गोरी रंगत की लड़की को सजने-सँवरने की वस्तु जैसा और काली रंगत की लड़की को सभी कामों में निपुण और गुणों के लबरेज़ होने के लिए मजबूर किया, जिससे गोरी रंगत न होने की कमी पूरी की जा सके।
ऐसे में रंगभेदी उन तमाम लोगों को यही कहूँगीं तर्क और तथ्य चाहे जितने भी हो, आपकी तरफ़ से या मेरी तरफ़ से। पर इन सबसे ऊपर है ‘इंसान को इंसान मानना।’ वो इंसान जिसका व्यक्तित्व, गुण, हुनर, पसंद या नापसंद किसी रंग या जाति का मोहताज़ नहीं है। हर इंसान अपने आप में ख़ास है। इसके तमाम उदाहरण आप अपने आसपास या दुनियाभर में देख सकते है। इसलिए शरीर की नहीं सोच की सुंदरता को सराहना शुरू करिए। याद रहे कि शरीर एक समय के बाद ख़त्म हो जाता है, लेकिन सोच हमेशा ज़िंदा रहती है और ये जो रंगभेद की आग है न ये किसी की नहीं है चाहे रंग कोई भी हो क्योंकि हिंसा का कोई रंग नहीं होता है। आशा है आप मेरी बातों को समझेंगें। याद रखेंगें। और कोशिश करेंगें कि रंगभेदी सोच को अपने व्यक्तित्व से ख़त्म कर सकें।
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तस्वीर साभार : homegrown
कुछ मूर्ख उस देश में काले गोरे का भेदभाव फैलाने की कोशिस कर रहे है जहा पूजन योगीश्वर श्री कृष्णा और माँ काली का होता है. शिव लिंगम अधिकतर काले बनाये जाते हैं. उस देश में काले गोरे का भेद करने की कोशिश .. हद है
😂😂😂😂😂
मतलब इनका अजेंडा कौन मुर्ख तय कर रहा है समझ नही आता. इतना कमजोर अजेंडा.