आज से करीब दो सौ साल पहले भारत में वकालत से महिलाओं का कोई नाता नहीं था। आज हम वकालत की कक्षाओं और अदालतों में महिलाओं की मौजूदगी देख पाते हैं। लेकिन एक वक़्त था जब ये सब मुमकिन नहीं था। इस नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया था कॉर्नेलिआ सोराबजी ने। कॉर्नेलिआ सोराबजी का जन्म 15 नवंबर 1866 में एक पारसी- क्रिस्चियन परिवार में हुआ था। नासिक में जन्मी कॉर्नेलिआ को पढ़ाई-लिखाई का बेहद शौक था। यही वजह थी की वे भारत की पहली महिला बनीं जिनका डेक्कन कॉलेज, पूना में दाख़िला स्वीकार किया गया था। कॉर्नेलिआ से पहले किसी भी महिला को डेक्कन कॉलेज में पढ़ने का मौका नहीं दिया गया था। इस मौके को कॉर्नेलिआ ने हाथ से जाने नहीं दिया। पढ़ाई के प्रति उनकी लगन ऐसी थी कि उन्होंने पांच साल के कोर्स को सिर्फ एक साल में बहुत अच्छे अंकों के साथ पूरा कर लिया। हर साल डेक्कन कॉलेज में अच्छे अंक लाने वाले विद्यार्थियों को ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए छात्रवृति दी जाती थी। कॉर्नेलिआ इस छात्रवृति की हक़दार थी लेकिन उन्हें ये छात्रवृति नहीं दी गई क्योंकि वे एक महिला थी।
ये भेदभाव कॉर्नेलिआ को आगे बढ़ने से रोक नहीं पाया। उन्होंने तो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने की ठान ली थी और उनके सपने को हकीक़त में बदलने में मदद की उनके दोस्तों ने। उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड में कॉर्नेलिआ की पढ़ाई के लिए पैसों का इंतजाम किया। कॉर्नेलिआ ये फैसला नहीं कर पा रही थी कि उन्हें ऑक्सफ़ोर्ड में कौन सा विषय चुनना है। आख़िरकार उन्होंने बैचलर ऑफ़ सिविल लॉ करने का निर्णय किया। इसका नतीजा ये था कि वे ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई पूरी करने वाली पहली महिला बनीं। यही नहीं, वह पहली भारतीय थी जिसने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की। इतने सारे कीर्तिमान के बावजूद कॉर्नेलिआ का सफ़र ऑक्सफ़ोर्ड में आसान नहीं था।
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने साल 1889 में एक अपवाद के जरिए कॉर्नेलिआ को कानून की पढ़ाई की अनुमति दी थी। कोर्स की पढ़ाई पूरी होने के बाद जो आखिरी परीक्षा होनी थी उसमें कॉर्नेलिआ को बाकी लड़कों के साथ परीक्षा देने की अनुमति नहीं दी गई। उन्हें यह आदेश दिया गया था की वह परीक्षा अकेली ही देंगी। कहीं इसका प्रभाव उनकी डिग्री पर न पड़े, इसलिए कॉर्नेलिआ ने इस आदेश का विरोध किया। अंत में यूनिवर्सिटी प्रशासन ने उनकी मांग को स्वीकार किया और उन्हें बाकी छात्रों के साथ परीक्षा देने की इजाज़त दी।
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यह घटना तो सिर्फ एक शुरुआत थी उनके बड़े संघर्ष की ओर। ऑक्सफ़ोर्ड से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉर्नेलिआ साल 1894 में भारत लौट आई। आते ही वे पर्दे में रहने वाली औरतों की मदद में लग गई। पर्दा में रहने वाली औरतों को अपनी सम्पत्ति की रक्षा करने में कई मुश्किलों का सामना कर रही थी। सोराबजी एक क़ानूनी सलाहकार के तौर पर इन औरतों की मदद कर रही थी। लेकिन वे उनके पक्ष में कोर्ट में बहस नहीं कर सकती थी क्योंकि उस समय महिलाओं का कोर्ट में बहस करना गैर- क़ानूनी था। बावजूद इसके, कॉर्नेलिआ ने हार नहीं मानी। साल 1902 में कॉर्नेलिआ ने सरकार से गुज़ारिश की कि महिलाओं और बच्चों के लिए एक कानूनी सलाहकार की नियुक्ति की जाए। साल 1904 में उन्हें बंगाल की कोर्ट ऑफ़ वार्डस में महिला सहायक के तौर पर नियुक्त किया गया। बढ़ती ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए साल 1907 में उन्हें बिहार, उड़ीसा और असम की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई। इस दौरान कॉर्नेलिआ ने लगभग 600 औरतों और अनाथों की क़ानूनी मदद की।
ऑक्सफ़ोर्ड से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉर्नेलिआ साल 1894 में भारत लौट आई। आते ही वे पर्दे में रहने वाली औरतों की मदद में लग गई।
इन सबके बावजूद कॉर्नेलिआ कोर्ट में महिलाओं और बच्चों का पक्ष नहीं रख सकती थी क्योंकि भारत का कानून महिलाओं को वकालत करने की अनुमति नहीं देता था। ये कानून साल 1923 में बदला और इसी बदलाव की बदौलत सोराबजी वकालत करने के योग्य हो गई। नतीजतन, वे भारत और ब्रिटेन की पहली महिला वकील बन गई। कॉर्नेलिआ ने कलकत्ता हाईकोर्ट से अपनी वकालत की शुरुआत की। हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने कॉर्नेलिआ को सदस्यता नहीं दी क्योंकि वे एक महिला थी। इसके खिलाफ भी कॉर्नेलिआ को लड़ाई लड़नी पड़ी और अंत में उन्हें कोर्ट की सदस्यता मिल गयी। हाईकोर्ट में कॉर्नेलिआ को एक महिला होने की वजह से काफी भेदभाव झेलना पड़ता था, इसीलिए उन्होंने कोर्ट में जाने की जगह लोगों को सलाह देने के काम को ज्यादा महत्त्व देना शुरू किया।
एक वकील होने के नाते उन्होंने महिलाओं और बच्चों पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने औरतों की हर तरीके से मदद करने की कोशिश की। लड़कियों की शिक्षा के लिए विशेष कदम उठाए। सती प्रथा का पुरज़ोर विरोध किया। विधवाओं की स्थिति में सुधार की दिशा में भी कई प्रयास किए। सामाजिक बदलाव की दिशा में इतने योगदान के बावजूद, कॉर्नेलिआ सोराबजी का नाम भारतीय इतिहास में कहीं खो सा गया है। इसका एक कारण शायद ये भी रहा कि कॉर्नेलिआ की राजनैतिक विचारधारा ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन करती थी। इसीलिए उन्हें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं का साथ नहीं मिला। यही वजह थी कि वे भारत में समाज सुधारक के तौर पर बहुत ज्यादा योगदान नहीं दे पाई।
कॉर्नेलिआ की लेखन में भी काफी रूचि थी। उन्होंने कई लेख, कहानियाँ और किताबें लिखी। उन्होंने दो आत्मकथाएं, ‘इंडिया कॉलिंग: द मेमोरीज ऑफ़ कॉर्नेलिआ सोराबजी (1934)’ और ‘इंडिया रेकॉलेड (1936)’ भी लिखीं। साल 1929 में अपने रिटायरमेंट के बाद, वे इंग्लैंड चली गई। इसके बाद की जिंदगी उन्होंने इंग्लैंड में ही बिताई। इस बीच कभी-कभी वे भारत भी आती-जाती रही। साल 1954 में, 87 वर्ष की उम्र में, लंदन के अपने घर में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली।
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तस्वीर साभार : independent
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