समाजकानून और नीति रेप सर्वाइवर्स के लिए न्याय पाने की प्रक्रिया इतनी असंवेदनशील क्यों है ?

रेप सर्वाइवर्स के लिए न्याय पाने की प्रक्रिया इतनी असंवेदनशील क्यों है ?

एक रेप सर्वाइवर अपने साथ हुए अपराध के खिलाफ़ कार्रवाई की मांग करती है लेकिन बदले में उसे ही जेल जाना पड़ता है।

साल 1992, भंवरी देवी रेप केस। वह रेप केस जिसने भारत में विशाखा गाइडलाइंस की नींव रखी। साल 1992 में ऊंची जाति के लोगों ने भंवरी देवी का सामूहिक बलात्कार किया था। भंवरी देवी जब अपने साथ हुई यौन हिंसा के ख़िलाफ एफआईआर दर्ज़ करवाने थाने गई थी तब उनसे थाने में सबूत के तौर पर उनका लहंगा मांगा गया था जो उन्होंने घटना के वक्त पहन रखा था। इस मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट की तरफ से ये टिप्पणी भी आई थी कि कोई भी ऊंची जाति का पुरुष नीची जाति की महिला को हाथ लगाकर खुद को अशुद्ध क्यों करेगा।

एक रेप सर्वाइवर के लिए सबसे मुश्किल प्रक्रियाओं में से एक होती है न्याय पाने की प्रक्रिया। थाने से लेकर कोर्ट कचहरी के तमाम असंवेदनशील सवालों, नियम-कानून और सालों-साल चलने वाली सुनवाई के दौरान अधिकतर सर्वाइवर्स के मन यह बात आती होगी कि हमने शिकायत दर्ज़ ही क्यों करवाई? हमारी न्याय व्यवस्था रेप सर्वाइवर्स को न्याय देने की जगह उन्हें अब हतोत्साहित करती नज़र आ रही है।

7 जुलाई को बिहार के अररिया ज़िले में एक लड़की ने अपने साथ हुए सामूहिक बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाई। 10 जुलाई को बयान दर्ज़ करवाने के लिए पीड़िता को ज्यूडिशल मजिस्ट्रेट कोर्ट ले जाया गया था। बयान दर्ज़ करने के दौरान जो हुआ वह शायद आज़ाद भारत के न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ है। अपना बयान दर्ज़ करवाने के दौरान रेप सर्वाइवर ने अपने साथ आई जन जागरण शक्ति संगठन की कार्यकर्ता कल्याणी के सामने अपना बयान पढ़े जाने की मांग रखी। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक इसके बाद ही सुनवाई के दौरान मौजूद जज भड़क गए और 11 जुलाई को रेप सर्वाइवर समेत कल्याणी और तन्मय को कोर्ट की अवमानना के आरोप में जेल भेज दिया।

हमारी न्याय व्यवस्था रेप सर्वाइवर्स को न्याय देने की जगह उन्हें अब हतोत्साहित करती नज़र आ रही है।

रेप सर्वाइवर और उसके साथ आए सहयोगियों पर आईपीसी की धारा 353 (सरकारी कर्मचारी के काम में रुकावट डालना), धारा 228 (न्यायिक प्रक्रिया में शामिल सरकारी कर्मचारी को अपमानित करना), धारा 188 (सरकारी कर्मचारी द्वारा जारी आदेश की अवज्ञा करना), धारा 180 (किसी बयान पर हस्ताक्षर करने से इनकार करना) और धारा 120 बी (आपराधिक षड्यंत्र के संदर्भ) जैसी धाराओं के तहत कार्रवाई की गई। यहां जिन धाराओं का ज़िक्र किया गया है उन्हें पढ़कर यह लगता है मानो रेप सर्वाइवर खुद एक अपराधी हो लेकिन ये धाराएं इसलिए लगाई गई क्योंकि सर्वाइवर ने कोर्ट रूम में उत्तेजित होकर बात की। शायद अपनी पीड़ा में उसे यह ध्यान नहीं रहा होगा कि इस देश में न्याय पाने की राह इतनी आसान नहीं है। 

मामले के सामने आने के बाद देश के 350 से अधिक नामी वकीलों ने पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र लिखकर इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की गई। आखिरकार 17 जुलाई को रेप सर्वाइवर को ज़मानत दे दी गई लेकिन जन जागरण शक्ति संगठन की कार्यकर्ता कल्याणी और तन्मय की ज़मानत याचिका खारिज कर दी गई।

जन जागरण शक्ति संगठन के सचिव आशीष कहते हैं, ‘हाईकोर्ट और लोअर कोर्ट बंद होने के कारण फिलहाल इस मामले की सुनवाई नहीं हो पा रही है। पीड़िता की मन:स्थिति को कोर्ट ने नहीं समझा। जब पीड़िता ने कल्याणी को बुलाने की मांग की थी तब दरअसल वह एक मदद की गुहार थी न कि अदालत की अवमानना। पीड़िता की इस मांग को कोर्ट ने गलत समझा। आशीष के मुताबिक अदालत की इस कार्रवाई से समाज एक गलत संदेश भी गया है। वह कहते हैं, ‘6 तारीख को हुई गैंगरेप की वारदात के बाद से ही कल्याणी और तन्मय सर्वाइवर की लगातार मदद कर रहे थे। हम समाज को क्या संदेश दे रहे हैं, आप रेप सर्वाइवर की मदद मत कीजिए, उससे अलग रहिए। समाज में यह संदेश जा रहा है कि जो मददगार हैं उन्हें ही जेल भेज दिया जाएगा। यह घटना रेप सर्वाइवर्स को इंसाफ दिलाने की प्रक्रिया में एक सेटबैक की तरह है। जन जागरण शक्ति संगठन के मुताबिक 24 राज्यों के 521 संगठनों ने पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश से अपील की है कि तन्मय और कल्याणी को जल्द से जल्द रिहा किया जाए। 

समाज में यह संदेश जा रहा है कि जो मददगार हैं उन्हें ही जेल भेज दिया जाएगा। यह घटना रेप सर्वाइवर्स को इंसाफ दिलाने की प्रक्रिया में एक सेटबैक की तरह है।

इसी साल जून में कर्नाटक हाईकोर्ट ने बलात्कार के एक आरोपी को सिर्फ इसलिए अग्रिम ज़मानत दे दी थी क्योंकि महिला ने कहा था कि बलात्कार के बाद वह थककर सो गई। महिला के इस बयान पर कोर्ट ने कहा था कि बलात्कार के बाद हमारी महिलाएं इस तरह का बर्ताव नहीं करती। माननीय ने ये भी कहा कि बलात्कार के बाद पीड़िता थकी हुई थी और सो गई, ये व्यवहार भारतीय महिलाओं के जैसा नहीं है और फिर हमारे सामने आता है अररिया गैंगरेप का मामला जहां रेप सर्वाइवर को ही महज़ इसलिए जेल भेज दिया जाता है क्योंकि उसने कोर्ट रूम में उत्तेजित होकर बात की। एक रेप सर्वाइवर अपने साथ हुए अपराध के खिलाफ़ कार्रवाई की मांग करती है लेकिन बदले में उसे ही जेल जाना पड़ता है। साल 1992 से हम साल 2020 तक एक लंबा सफ़र तय कर चुके हैं लेकिन बलात्कार, यौन हिंसा जैसे अपराधों के मामले में अभी भी हमारी न्यायिक व्यवस्था की छवि असंवेदनशील और पितृसत्तात्मक बनी हुई है।

सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता प्योली कहती हैं, ‘हमारे देश के न्यायधीश इसी पितृसत्तात्मक समाज का ही एक हिस्सा हैं। जब भी यौन हिंसा या बलात्कार जैसे अपराध होते हैं तो सबसे पहली ऊंगली सर्वाइवर की ओर ही उठती है। पैदा होने से लेकर मरने तक स्त्री का चाल-चलन कैसा होना चाहिए यह समाज तय करता है और हमारी न्यायिक व्यवस्था भी इसी समाज का हिस्सा है। कर्नाटक हाईकोर्ट की टिप्पणी और अररिया रेप सर्वाइवर के साथ हुआ बर्ताव इस समस्या को उजागर करते हुए नज़र आते हैं।’

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महिलाओं को अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ चुप कराने का ही यह परिणाम है कि भारत में दिसंबर 2019 तक 2 लाख 40 हज़ार बलात्कार और पॉक्सो एक्ट से जुड़े मामले लंबित थे। लोकसभा में कानून मंत्रालय की तरफ से दिए गए जवाब के मुताबिक सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश ( 66,994), महाराष्ट्र (21,691) और पश्चिम बंगाल (20,511) में लंबित हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के मुताबिक यौन हिंसा से पीड़ित 77 फीसद महिलाओं ने अपने साथ हुई हिंसा के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं दी। हिंसा से पीड़ित महज़ 3 फीसद महिलाओं ने पुलिस से मदद मांगी।

ये आंकड़े बताते हैं कि यौन हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं को हमारे न्यायतंत्र पर कितना भरोसा है। अररिया में रेप सर्वाइवर के साथ जो हुआ वह इस इन 3 फीसद महिलाओं के भरोसे को भी खत्म करने की ओर एक कदम मालूम पड़ता है। हिंसा से पीड़ित महिलाओं के साथ न्यायिक व्यवस्था की असंवेदनशीलता का ज़िक्र हमें जस्टिस वर्मा कमिटी की रिपोर्ट में भी मिलता है। इस रिपोर्ट में पुलिस रिफॉर्म्स से भी जुड़ी कई सिफारिशें की गई थी जिसमें कहा गया था कि पुलिस को पीड़ित की मदद करने वालों के साथ गुनहगारों जैसा बर्ताव नहीं करना चाहिए। यौन हिंसा से जुड़े मामलों को कैसे संभालना है इस संबंध में  पुलिसकर्मियों को ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। साथ ही इस कमिटी ने सिफारिश की थी यौन हिंसा के सर्वाइवर्स के लिए अदालतों को संवेदनशील बनाए जाने और संवेदनशील न्यायधीशों की ज़रूरत है। 644 पन्नों की इस रिपोर्ट की सिफारिशों पर अगर गंभीरता से अमल किया जाता तो शायद इस देश में किसी रेप सर्वाइवर को जेल जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। 

बलात्कार के बाद एक रेप सर्वाइवर किन मानसिक और शारीरिक परेशानियों से गुज़रती है इसके प्रति हमारा सिस्टम बुनियादी संवेदनशीलता दिखाना भी ज़रूरी नहीं समझता। इंसाफ की उम्मीद में न्यायलय का रुख़ करने वाली महिलाओं के साथ जब खुद न्यायिक व्यवस्था ही ऐसा अमानवीय व्यवहार करती है तो इससे सालों से चली आ रही इस सामाजिक मान्यता को मज़बूती मिलती है- कोर्ट के चक्कर लगाकर क्या हासिल होगा और नतीजतन महिलाएं अपने साथ हुई हिंसा के खिलाफ चुप बैठ जाती हैं। जो महिलाएं आगे बढ़कर अपनी साथ हुई हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने की कोशिश भी करती हैं उन्हें ऐसे मामले हतोत्साहित करने का काम करते हैं।

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तस्वीर साभार : hollywoodreporter

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