नारीवादी विचारधारा को लेकर समाज में खासकर पुरुषों के बीच कई भ्रांतियां हैं। उदाहरण के तौर पर, ‘नारीवादी विचारधारा का मतलब पुरुषों का विरोध होता है या पुरुषों को दोयम दर्जे पर करने की इच्छा रखता है।’ यही भ्रांतियां कारण बनती हैं क्वीर समुदाय में नारीवाद के विरुद्ध उठती आवाजों की लेकिन सच्चाई यह है कि क्वीर मूवमेंट को उसका असली स्वरूप प्रदान करने के लिए नारीवादी विचारधारा बेहद आवश्यक है। असल में नारीवाद शब्द को केवल नारी से जोड़ देने के कारण, लोग अक्सर उसे सीमित कर देते हैं लेकिन इसके विपरीत यह एक विस्तृत विचारधारा है।
नारीवादी विचारधारा जेंडर की परिभाषा को सीमित तथा कई स्तरों में पूरी तरह से गलत मानता है और इसमें बदलाव की मांग करती है। सुनने और समझने में शायद यह बात कुछ कठिन लगती है लेकिन इस विषय पर गंभीरता से सोचने पर हमें यह बात स्पष्ट होती हैं। स्वीकार करने की प्रक्रिया में क्वीर समुदाय के समक्ष जो सबसे पहली चुनौती आती है वह है जेंडर की अवधारणा को तोड़ पाना और यह अवधारणाएं बनती हैं पितृसत्तात्मक वैचारिक और सामाजिक ढांचे की वजह से। जब तक सामाजिक मानसिकता में चूड़ी वाले हाथों को कमजोरी का प्रतीक और गुंडागर्दी को श्रेष्ठ मर्दानगी का प्रतीक माना जाएगा तब तक जेंडर की चली आ रही अवधारणा को समाप्त करना असंभव होगा। पुरुष जब तक अपने अंदर के स्त्रीत्व को सम्मान नहीं देंगे तब तक वह एक बराबर समतामूलक समान समाज का निर्माण नहीं कर पाएंगे और नारीवादी विचारधारा इसी समान समाज की अवधारणा पर आश्रित है।
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पुरुष जब तक अपने अंदर के स्त्रीत्व को सम्मान नहीं देंगे तब तक वह एक बराबर समतामूलक समाज का निर्माण नहीं कर पाएंगे और नारीवादी विचारधारा इसी समान समाज की अवधारणा पर आश्रित है।
इसी क्रम में अगर हम दूसरे सबसे ज़रूरी पहलू पर ध्यान दें तो हमें पता चलता है कि क्वीर अधिकारों के रास्ते एक और विशाल रोड़ा बनकर जो खड़ा है वह है परिवार और विवाह की संस्था। सदियों से नारी और पुरुष के बीच भेदभाव करते हुए, जेंडर के आधार पर कामकाज को बांटा गया है जिसमें एक व्यक्ति क्योंकि वह एक विशेष लिंग का है तो वह बाहर जाकर रोजगार करके पैसे कमाएगा और दूसरा अपनी लैंगिक पहचान के कारण घर में रहकर खाना बनाएगी बच्चे संभालेगी। इसके अतिरिक्त एक स्त्री और पुरुष की पूर्णता का प्रमाण इसे माना जाता है कि वे कितनी जल्दी अपने बच्चे पैदा कर सकते हैं। नारीवादी विचारधारा इसी जेंडर की इसी रूढ़िवादी परंपरा का विरोध करती है।
जिस रिश्ते का उद्देश्य जीवन साथी होना चाहिए था, जिसका आधार बराबरी होना चाहिए था, उस रिश्ते में एक को स्वामी तो दूसरे को दासी का स्वरूप देते हुए इसी को आदर्श के रूप में समाज के समक्ष पेश कर दिया गया। यही वजह है की कई बार क्वीर जोड़ों के सामने यह सवाल आता है कि आप में से पति का रोल कौन निभाएगा और पत्नी का रोल कौन। चूंकि हमारे दिमाग में पितृसत्तात्मक विचारधारा के कारण रिश्ते की ऐसी अवधारणा है कि हर रिश्ते में एक पति और एक पत्नी का होना आवश्यक है सिर्फ दो इंसान होना काफी नहीं है। किसके गुस्सा आने पर कौन थप्पड़ खाएगा खाएगा? ‘डोली में जाओ, अर्थी पर लौटना’ जैसी घटिया बातें किस के कंधों पर होगी? खाना कौन बनाएगा और बाहर जाकर कम आएगा कौन इस बात का निर्णय खुद की इच्छा से नहीं बल्कि लिंग के आधार पर करने की जो सालों पुरानी परंपरा है वह क्वीर जोड़ों पर कैसे थोपी जाएगी ?
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बच्चा पैदा करने को ही रिश्ते के सफल होने का जो प्रमाणपत्र मानते हैं और हिंसात्मक रिश्ते को टिकाए रखने के लिए ‘बच्चों को लेकर कहां जाओगी’ कहकर सारी उम्र एक इंसान को यातनाएं झेलने के लिए मजबूर कर जेते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टि में भला कैसे एक ऐसा रिश्ता सफल हो पाएगा जिसमें सिर्फ प्रेम ही आधार हो और हिंसा होने पर उस रिश्ते को तत्काल खत्म कर देने की आज़ादी भी हो। इन पहलुओं पर अगर ध्यान दे तो हमें पता चलता है कि नारीवाद जिन मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठाता है वह मुद्दे क्वीर मूवमेंट को सफल बनाने के लिए भी बेहद आवश्यक हैं।
जब नालसा जजमेंट में जब ट्रांसजेंडर समुदाय को ‘थर्ड जेंडर’ शब्द से संबोधित किया गया तो नारीवादी विचारकों ने इसे आपत्तिजनक माना, जिसके तर्क में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि किसी को तीसरा लिंग मानने पर पहला और दूसरा स्थान किसको मिलेगा, एक से तीन तक की गिनती सेक्सुअलिटी को दोयम दर्जे में बांट देगी। इस तरह की कई लैंगिकता से जुड़ी बारीकियों को नारीवादी विचारधारा से समझा जा सकता है। इसलिए हमें यह बात स्वीकार करनी होगी की क्वीर मूवमेंट नारीवादी मूवमेंट आपस में एक दूसरे के पूरक हैं और इनका सामंजस्य ही इन को सफल बनाने का एकमात्र उपाय है।
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तस्वीर साभार: DU EXPRESS