अभिनेता सुशांत सिंह की आत्महत्या से जुड़े केस के संबंध में आखिरकार रिया चक्रवर्ती को गिरफ्तार किया जा चुका है। ध्यान देने लायक बात यह है कि रिया को हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाने, मनी लॉन्ड्रिंग के लिए नहीं बल्कि ड्रग्स के संबंध में गिरफ्तार किया गया है। 8 सितंबर की शाम तथाकथित मेनस्ट्रीम न्यूज़ चैनलों के लिए मानो एक जश्न की शाम थी। जैसे ही रिया की गिरफ्तारी की खबर फ्लैश हुई इन चैनलों के एंकर्स की चीखती आवाज़ और तेज़ हो गई। टीआरपी चार्ट के नंबर वन चैनल, नंबर दो चैनल आदि इस गिरफ्तारी के लिए अपनी पीठ थपथपाने में जुट गए। मीडिया का वह तबका जो पिछले 86 दिनों से सुशांत सिंह राजपूत के केस के अलावा कुछ नहीं दिखा रहा था, उसने जयघोष किया कि सुशांत सिंह राजपूत को न्याय मिल गया। इसके साथ ही न्याय की परिभाषा को हमारी मीडिया ने बदलकर रख दिया। अगर तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया की माने तो किसी दूसरे के साथ अन्याय करके ही न्याय हासिल किया जा सकता है। यह अलग बात है कि मीडिया जितना आक्रामक सुशांत सिंह राजपूत के केस में दिख रहा है उसकी 1 फीसद आक्रामकता भी जीडीपी में हुई 23.9 फीसद की गिरावट होने पर नहीं दिखी। दुनिया में कोरोना के मामले में भारत दूसरे नंबर पर पहुंच चुका है, इस वायरस से अब तक 74 हज़ार लोगों की जान जा चुकी है। लॉकडाउन के दौरान यानी अप्रैल से अब तक 2 करोड़ से अधिक वेतनभोगी लोगों की नौकरियां जा चुकी है। बेरोज़गारी के खिलाफ युवा रोज़ ट्विटर ट्रेंड करा रहे हैं, थाली बजा रहे हैं लेकिन इन मुद्दों पर मीडिया की आक्रामकता हिमालय के बर्फ सी ठंडी पड़ जाती है।
यह अलग बात है कि जिस दिन रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी हुई उसी दिन राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने कबीर कला मंच से जुड़े 3 कलाकारों ज्योति राघोबा, रमेश और सागर गोरखे को एलगार परिषद केस के संबंध में गिरफ्तार कर लिया गया। द वायर की रिपोर्ट के मुताबिक कबीर कला मंच दलित-बहुजन युवाओं द्वारा बनाया गया एक सांस्कृतिक समूह है जो दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार जैसे मुद्दों पर काफी मुखर रहता है। इस मामले में अब तक 12 एक्टिविस्टों, वकीलों और शिक्षाविदों को एनआईए द्वारा गिरफ्तार किया जा चुका है। लेकिन इनके लिए न्याय की मांग कैसे की जाएगी क्योंकि ‘अर्बन नक्सल’ शब्द को वैध ठहराने में मीडिया ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
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यह अलग बात है कि जिस वक्त टीवी के एंकर्स चीख-चीखकर रिया के लिए सज़ा की मांग कर रहे थे, उससे पहले ही बीजेपी बिहार में सुशांत के नाम के स्टिकर्स चिपकाने का अभियान शुरू कर चुकी थी। बीजेपी के इस स्टीकर पर लिखा है- ‘न भूले हैं न भूलने देंगे।’ टीवी मीडिया भी अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी के इस अभियान में शामिल है क्योंकि उसके कार्यक्रम दिन-रात सुशांत सिंह राजपूत पर ही तो आधारित हैं। देश के तमाम ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए सरकार को शायद ज़रा भी कोशिश नहीं करनी पड़ रही। मीडिया का एक बड़ा तबका इस काम में हर दिन नए मुकाम पर पहुंचता जा रहा है। उसने इस देश की जनता को यह एहसास दिला दिया गया कि रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी ही देश की हर समस्या का समाधान है। यहां पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में शामिल बुलेट थ्योरी का मीडिया ने बखूबी इस्तेमाल किया।
मीडिया, खासकर टीवी चैनलों ने मीडिया ट्रायल से मीडिया ‘लिंचिंग‘ का सफ़र एक दिन में नहीं तय किया है। न ही रिया चक्रवर्ती का केस मीडिया ट्रायल का पहला मामला है। रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2007 में लाइव इंडिया नाम के एक चैनल ने एक प्रोग्राम दिखाया था जिसमें एक लड़की ने यह दावा किया था कि दिल्ली के एक स्कूल की टीचर छात्राओं से जबरन देह व्यापार करवाती है। इस रिपोर्ट के बाद गुस्साए हुए अभिभावकों ने स्कूल-पहुंचकर तोड़-फोड़ मचा दी। आरोपी टीचर उमा खुराना पर भीड़ ने हमला कर दिया। उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया और उनकी नौकरी भी चली गई। बाद में दिल्ली पुलिस ने अपनी जांच में पाया कि यह पूरी रिपोर्ट एक सेट-अप पर आधारित थी और उमा खुराना पूरी तरह निर्दोष थी। तब एक चैनल ने भीड़ को उकसाने का काम किया था, आज मीडिया वह काम खुद ही कर रहा है।
6 सितंबर को जब रिया चक्रवर्ती पूछताछ के लिए नारकोटिक्स ब्यूरो के दफ्तर पहुंची थी। उस वक्त वहां तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया चैनलों के पत्रकारों का जमावड़ा लगा था। रिया के वहां पहुंचने पर चैनलों के इन पत्रकारों ने जिस तरीके से उन्हें घेरकर उनके साथ बर्ताव किया वह अपराध की श्रेणी में आना चाहिए। यह भी एक तथ्य है कि रिया चक्रवर्ती मीडिया इस विच हंट और बेहूदे ट्रायल की आखिरी उदाहरण नहीं हैं। कभी पाकिस्तान, कभी ज़मात तो कभी चीन, मीडिया के कार्यक्रम जनसरोकार से इतर हर मुद्दे पर तैयार रहते हैं।
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हमने कभी समस्या की जड़ की ओर ध्यान ही नहीं दिया जो है मीडिया, खासकर टीवी मीडिया का मर्दवादी चरित्र जिसमें राष्ट्रवाद का तड़का भी शामिल है। टॉक्सिक मेसकुलिनिटी या हिंसक मर्दानगी की वह परंपरागत संस्कृति जहां हिंसा, आक्रमकता, ताकत को मर्दों से जोड़कर देखा जाता है और कोमलता, संवेदनशीलता को औरतों की कमज़ोरी से, इस संस्कृति का अब लाइव टेलिकास्ट टीवी चैनलों के माध्यम से हमारे घरों में हो रहा है। पत्रकारिता के कोर्स की शुरुआत में ही पढ़ाया जाता है कि मीडिया के मुख्य काम हैं- सूचना देना, मनोरंजन करना, शिक्षित करना। लेकिन आज के मौजूदा दौर में मीडिया ने अपनी भूमिका बदलकर खुद को समाज में मौजूद लैंगिक भेदभाव, हिंसक मर्दानगी की संस्कृति, स्त्री द्वेष को बढ़ावा देने का एक माध्यम बना लिया है। टीवी मीडिया के इस हिंसक मर्दानगी के साथी हैं स्त्री द्वेष, आक्रमक बॉडी लैंग्वेज, भाषा और कंटेंट।
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पत्रकारिता के कोर्स की शुरुआत में ही पढ़ाया जाता है कि मीडिया के मुख्य काम हैं- सूचना देना, मनोरंजन करना, शिक्षित करना। लेकिन आज के मौजूदा दौर में मीडिया ने अपनी भूमिका बदलकर खुद को समाज में मौजूद लैंगिक भेदभाव, हिंसक मर्दानगी की संस्कृति, स्त्री द्वेष को बढ़ावा देने का एक माध्यम बना लिया है।
दंगल, आर-पार, ताल ठोक के, बुलेट 100, ये बस चंद नाम हैं टीवी चैनलों पर दिखाए जाने वाले प्राइम टाइम कार्यक्रमों के। जिसे जानकारी न हो क्या वह इन नामों को पढ़कर एक बार भी अंदाज़ा लगा पाएगा कि ये नाम न्यूज़ चैनलों के प्राइम टाइम कार्यक्रमों के हैं। हर नाम में एक आक्रामक चरित्र नज़र आता है, टीवी स्टुडियो हमेशा एक युद्ध के लिए ललकारता नज़र आता है। कभी आपने इन प्राइम टाइम शो को होस्ट करने वाले एंकर्स को देखा है? अमीश देवगन, रोहित सरदाना, अर्णब गोस्वामी, अंजना ओम कश्यप, रुबिका लियाकत, राहुल शिवशंकर, नविका कुमार, भूपेंद्र चौबे ऐसे एंकरों की लिस्ट काफी लंबी है जो इस कंटेंट के सूत्रधार हैं। अधिकतर चैनलों का हर ख़बर को पेश करने का एक ही तरीका हो गया है- एंकरों की आवाज़ तेज़ होनी चाहिए, कंटेंट भड़काऊ होना चाहिए, खबरों का उद्देश्य दर्शकों को सूचित करना नहीं बल्कि उकसाना होना चाहिए और सबसे ज़रूरी सत्ता से कोई सवाल नहीं होना चाहिए। टीवी चैनलों की डिबेट के दौरान पैनालिस्टों द्वारा महिला-विरोधी गालियों का इस्तेमाल भी आम हो गया है। ये न्यूज़ चैनल अब हमें वे सारे कंटेंट उपलब्ध कराते हैं जिसकी ज़िम्मेदारी पहले एक आम बॉलीवुड फिल्म पर होती थी।
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स्त्री द्वेष और मीडिया का गठबंधन मौजूदा परिवेश में और अधिक मज़बूत होता दिख रहा है। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी है कि अन्य क्षेत्रों की तरह मीडिया में भी पुरुषों का ही प्रभुत्व है। साल 2019 में आई यूनाइटेड नेशन वीमन की रिपोर्ट के मुताबिक ऑनलाइन पोर्ट्ल्स में जहां सिर्फ 26.3 फीसद महिलाएं ही ऊंचे ओहदों पर मौजूद थी। वहीं, टीवी चैनलों में 20.9 फीसद और मैगज़ीन में 13.6 फीसद महिलाएं ही लीडरशिप पोजिशन पर थी। रिपोर्ट में सैंपल के तौर पर शामिल किसी भी अखबार में (7 हिंदी और 6 अग्रेंज़ी) महिला बॉस नहीं थी। रिपोर्ट भारतीय मीडिया संस्थानों की वही दिक्कत दोहराती नज़र आई कि मीडिया संस्थानों में अधिकतर महिलाओं को ‘सॉफ्ट बीट’ दे दी जाती है। ऐसे में पुरुषों के वर्चस्व वाले मीडिया द्वारा इस बात को जायज़ ठहराना कि लड़कियां ‘गोल्ड डिगर होती हैं’ कोई चौंकाने वाली बात नहीं है।
जनसरोकार के मुद्दों को हाशिये पर ढकेलकर तमाशा दिखाते टीवी चैनल यूंही मुफ्त में यह काम नहीं कर रहे हैं, इसका एक आर्थिक पक्ष भी है। मर्दवादी टीवी चैनलों के इस कंटेट का विरोध करने वाले लाख कहते रहे कि टीवी चैनल न देखिए लेकिन आंकड़े कुछ और कहते हैं। ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल और इंडिया (BARC) के मुताबिक 22 अगस्त से 28 अगस्त के बीच टॉप 5 अंग्रेज़ी चैनलों में रिपब्लिक टीवी और हिंदी चैनलों में रिपब्लिक भारत पहले पायदान पर थे। टीवी चैनलों का यह आर्थिक पक्ष ही है जिसने चैनलों के बीच होड़ लगा दी कि सुशांत सिंह राजूपत के केस को कौन कितना सनसनीखेज़ बना सकता है। जिसने इस खबर को जितना अधिक सनसनीखेज़ बनाया दर्शकों ने उस चैनल को उतना ही सिर-आंखों पर चढ़ाया। जब टीआरपी की वजह सिर्फ एक केस है तो टीवी चैनल आपको किसानों और दिहाड़ी मज़दूरों की आत्महत्या से हुई मौत के बारे में क्यों दिखाएंगे भला।
ऐसा नहीं है कि इन चैनलों को देखने वाला दर्शक-वर्ग बेरोज़गारी, आर्थिक-मानसिक परेशानियों आदि से नहीं गुज़र रहा। दर्शकों के बहुसंख्यक वर्ग के पितृसत्तात्मक, मुस्लिम विरोधी, दलित-बहुजन-आदिवासी विरोधी भावनाओं, दक्षिणपंथी विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का काम मीडिया के एक बहुत बड़े हिस्से ने अपने कंधों पर ले लिया है। एक औरत के चरित्र हनन, उसे घर तोड़नेवाली, मासूम लड़के को फंसाकर उसके पैसे ऐंठने वाली साबित करना पितृसत्ता का पुराना शगल रहा है। बहुसंख्यकों के इसी शगल को भुनाने का हुनर टीवी ने भी बखूबी सीख लिया है। क्योंकि ऐसा तो है नहीं कि टीवी चैनल जिन बातों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं वे आज से पहले हमारे बीच मौजूद ही नहीं थी।
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तस्वीर साभार : economictimes