इतिहास दलित, बहुजन और आदिवासी महिला स्वतंत्रता सेनानी जिन्हें भुला दिया गया

दलित, बहुजन और आदिवासी महिला स्वतंत्रता सेनानी जिन्हें भुला दिया गया

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल स्वतंत्रता सेनानियों में कई दलित, बहुजनों, आदिवासी महिला सेनानियों ने भी एक अहम भूमिका निभाई थी।

जातिगत भेदभाव और ऊच्च जाति का श्रेष्ठता बोध स्वतंत्रता संग्राम के पहले से ही हमारे देश में था। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल स्वतंत्रता सेनानियों में कई दलित, बहुजनों, आदिवासी महिला सेनानियों ने भी एक अहम भूमिका निभाई थी लेकिन इनका ज़िक्र हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में बेहद कम देखने को मिलता है। 74वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हम जानेंगे उन दलित, बहुजन और आदिवासी महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक अहम भूमिका निभाई थी लेकिन उन्हें इतिहास ने भुला दिया।

कूयिलि

तस्वीर साभार: द बेटर इंडिया

कूयिलि शिवगंगा की रानी वेलु नचियार की सेनाध्यक्ष थी। वेलु नेचियार उन पहले सम्राटों में से एक थी जिन्होंने 1780 के दशक में अग्रेज़ों से लोहा लिया था। अंग्रेज़ों के खिलाफ इस युद्ध में कूयिलि ने अपने राज्य के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। कूयिलि के चाहने वाले उन्हें एक वीर योद्धा के रूप में याद करते हैं। कूयिलि का जन्म एक गरीब दलित परिवार में हुआ था। उनके पिता रानी के लिए एक जासूस के रूप में काम करते थे जिसके ज़रिए कूयिलि वेलु नचियार के करीब आई। उन्होंने कई बार रानी वेलु रचियार के प्राणों की रक्षा की जिसके बाद उन्हें रानी के अंगरक्षक के रूप में तैनात किया गया और आगे चलकर वह महिला सेना की सेनाध्यक्ष बनी। जब शिवगंगा के महल पर अंग्रेज़ों का हमला हुआ तब उन्होंने वीरता के साथ उनका सामना किया। कूयिलि और उनकी सेना ने अंग्रेज़ों के हथियार छिपाकर उन्हें सकते में डाल दिया। सिर्फ इतना ही नहीं, कूयिलि ने अंग्रेजों के हथियार के जखीरे को बर्बाद करने के लिए अपने शरीर को तेल में डुबोया और आग लगा ली। एक दलित महिला के रूप में उनकी वीरता और जिस बहादुरी के साथ उन्होंने अंग्रेज़ों का सामना किया उसे हमेशा याद किया जाना चाहिए।

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झलकारी बाई

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

झलकारी बाई को हमेशा रानी लक्ष्मीबाई की सबसे विश्वसनीय सलाहकार और साथी के रूप में याद किया जाता है। झलकारी बाई एक कोरी जाति से तालुक्क रखने वाली एक दलित योद्धा थी। उन्होंने साल 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। झलकारी बाई का जन्म 2 नवंबर, 1830 में झांसी के निकट स्थित एक गांव में हुआ था। एक उत्पीड़ित जाति से होने के कारण झलकारी बाई को बुनियादी शिक्षा से वंचित होना पड़ा था लेकिन उन्होंने घुड़सवारी और हथियार चलाने की शिक्षा ज़रूर ली। छोटी उम्र से ही वह अपने आस-पास डकैतों और जगंली जानवरों से लड़ने की कहानियां सुनती आई थी।

झलकारी बाई की वीरता और उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने उन्हें अपनी महिला सेना में शामिल किया जहां अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए झलकारी बाई को बंदूक चलाना और तोप चलाना सिखाया गया। रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की कद-काठी काफी मिलती-जुलती थी इसलिए झलकारी बाई ने रानी का वेश धरकर लड़ाई भी लड़ी। उन्हें युद्ध और उसे जुड़े नतीजों के बारे में अच्छे से पता था लेकिन उन्होंने अपने फैसले के बारे में दोबारा नहीं सोचा और दुश्मनों से लड़ने के लिए उनके ही कैंप में चली गई। झलकारी बाई की मौत की वजह आज तक स्पष्ट नहीं है, इसके इर्द-गिर्द कई कहानियां गढ़ी गई हैं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में भी झलकारी बाई का उल्लेख बेहद कम देखने को मिला क्योंकि दलित महिला स्वतंत्रता सेनानियों का इतिहास बमुश्किल ही दर्ज किया गया है। 

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उदा देवी

तस्वीर साभार: ट्विटर

दलित स्वतंत्रता सेनानी उदा देवी और उनकी वीरांगनाओं ने सन् 1857 की लड़ाई के दौरान वीरता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य का सामना किया था। उदा देवी ने बेगम हज़रत महल से गुज़ारिश की थी कि वह उन्हें एक सेनानी के तौर पर शामिल करें और उन्हें एक महिला सेना तैयार करने की इजाज़त दें। उदा देवी का जन्म अवध (अब उत्तर प्रदेश) के एक छोटे से गांव में हुआ था। वह पासी जाति से तालुक्क रखती थी। आज भी हर साल 16 नवंबर को पासी समुदाय के लोग स्वतंत्रता संग्राम में उदा देवी के संघर्ष और योगदान का जश्न मनाते हैं। उन्हें लोग एक बहादुर दलित महिला के रूप में याद करते हैं जिसने पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद दोनों का ही सामना किया और उसे पराजित किया।

हेलेन लेपचा उर्फ सावित्री देवी

तस्वीर साभार: गोरखापीडिया

हेलेन लेपचा का जन्म साल 1902 में सिक्किम के नामची के एक छोटे से गांव सांगमू में हुआ था। ब्रिटिश साम्राज्य में रह रही हेलेन महात्मा गांधी के चरखा आंदोलन से बेहद प्रभावित हुई थी। साल 1920 में बिहार में आई भीषण बाढ़ के दौरान उन्होंने राहत कार्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उनके काम से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने उन्हें साबरमती स्थिति अपने आश्रम बुलाया और उन्हें सावित्री देवी का नाम दिया।. 

ब्रिटिश साम्राज्य सावित्री देवी के विद्रोही स्वभाव से परिचित हो गए थे इसलिए उनके खिलाफ एक वारंट जारी कर दिया। ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सावित्री देवी कांग्रेस की सबसे वांछित नेताओं में से एक बन गई। एक बार उनके ऊपर गोली भी चलाई गई लेकिन वह बच निकली। सरोजनी नायडू, जवाहर लाल नेहरू, मोरारजी देसाई से उनके संबंध अच्छे हो गए और वे उनके साथ मिलकर काम करने लगी। असहयोग आंदोलन में भी सावित्री देवी का योगदान अहम था। उन्होंने झरिया के कोयला खदानों में काम करने वाले मज़दूरों के साथ मिलकर एक बड़ी रैली भी आयोजित की थी। असहयोग आंदोलन में लोगों की सहभागिता बढ़ाने के लिए सावित्री देवी ने घर-घर जाकर इसका प्रचार भी किया था जिसके लिए उन्हें बाद में जेल भेज दिया था। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आंदोलन करने के साथ-साथ उन्होंने सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर भी काम करना शुरू किया और वह विभिन्न संस्थानों की अध्यक्ष भी रही।

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रानी गाइदिनल्यू

तस्वीर साभार: पीआईबी

नागाओं की रानी के नाम से मशहूर रानी गाइदिनल्यू ने महज़ 16 साल की उम्र में ही ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जारी आंदोलन में हिस्सा लिया था। रानी गाइदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 में मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के तौसेम उप-खंड के नुन्ग्काओ नामक गांव में हुआ था। रानी गाइदिनल्यू जीलियांगरोंग नगा समुदाय से तालुक्क रखती थी। बुनियादी शिक्षा न होने के बावजूद रानी गाइदिन्ल्यू अपने चचेरे भाई हाईपू जदोनांग के साथ मिलकर राजनीतिक आंदोलनों के संपर्क में आई। उन्होंने हेराका आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उन्होंने अपने समुदाय के लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य को दिए जाने वाले कर के खिलाफ भी जागरूक किया था। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उनकी बढ़ती गतिविधियों को देखते हुए ब्रिटिश अफसर उन्हें जल्द से जल्द गिरफ्तार करना चाहते थे। आगे चलकर उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य ने गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें कोहिमा ले जाया गया था। रानी गाइदिनल्यू के साथियों में से अधिकतर लोगों को या तो मौत की सज़ा दी गई या जेल में डाल दिया गया था। करीब 14 सालों बाद उन्हें साल 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद जेल से रिहा किया गया था। रिहा होने के बाद भी वह पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए काम करती रही।

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पुतलिमया देवी पोद्दार

पुत्तलिमया देवी पोद्दार, एक गोरखा महिला थी जिनका जन्म 14 जनवरी, 1920 को कुर्सियांग में हुआ था। उन्हें अपने समुदाय में साम्राज्यवादी और सामाजिक ढांचे के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के लिए ख्याति प्राप्त है। जब वो महज़ 14-15 साल की थी तभी उनकी इच्छा थी कि वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष में कांग्रेस के साथ जुड़ जाए। साल 1936 में जब कुर्सियांग में कांग्रेस कमेटी का दफ़्तर बना, तभी जाकर पुत्तलिमया के स्वतंत्रता सेनानी बनने का सपना पूरा हो सका। हालांकि इस दौरान उनके पिता उन्हें हतोत्साहित करते रहे। उन्होंने कुर्सियांग में ‘हरिजन समाज’ की भी स्थापना की थी जो दलित और शुद्रों को शिक्षा दिलाने में एक अहम भूमिका निभा रहा था। उन्होंने एक महिला संस्थान की भी स्थापना की थी जो लड़कियों को स्वतंत्रता सेनानी बनने के लिए प्रेरित और उनके अंदर देश प्रेम की भावना जगाने का काम करता था। उन्हें पुलिस की तरफ से लगातार चेतावनी दी जाती थी और पुलिस थाने भी बुलाया जाता था लेकिन इन रुकावटों के बावजूद वह अपने काम में लगी रही। 8 अगस्त 1942 के दिन कुर्सियांग में बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के कुछ दिनों बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया था। भारत के आज़ाद होने के बाद भी वह बतौर समाज सेविका काम करती रहीं। उन्हें ‘समाज सेविका’ और ‘ताम्र पत्र’ जैसे सम्मान से भी नवाज़ा गया। आम लोग उन्हें ‘माताजी’ कह कर बुलाते थे। 1 दिसबंर 1984 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था।

ये महिलाएं उन समुदायों से तालुक्क रखती हैं जिन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से कभी बराबरी के अधिकार नहीं दिए गए। लेकिन इन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी के खिलाफ लड़ाई लड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चाहे वह ब्राह्मणवाद हो या अंग्रेज़ों की सत्ता, ये महिलाएं हर दमनकारी व्यवस्था से आज़ाद होने की चाहत और हौसला रखती थी। इन महिलाओं की गाथा किताबों, कहानियों में हमेशा जीवित रहनी चाहिए तभी मौजूदा भारत सही मायनों में आज़ाद भारत की परिभाषा को पूर्ण करेगा।

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तस्वीर साभार : गूगल

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