समाजख़बर प्रवासी मज़दूरों, डॉक्टरों की मौत और बेरोज़गारी के आंकड़ों पर केंद्र सरकार की चुप्पी

प्रवासी मज़दूरों, डॉक्टरों की मौत और बेरोज़गारी के आंकड़ों पर केंद्र सरकार की चुप्पी

बेरोज़गार, प्रवासी मज़दूरों और डॉक्टरों की मौत पर भले ही केंद्र सरकार ने चुप्पी साधी हो लेकिन इससे जुड़ी जानकारियां सामने आ रही हैं।

24 मार्च को पूरे देश में कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने सख़्त लॉकडाउन लागू किया था। संक्रमण रुका या नहीं इस बात की गवाही तो भारत में 52 लाख से अधिक मामले और 84 हज़ार कोरोना मरीज़ों की मौत के आंकड़े दे रहे हैं। ख़ैर, लॉकडाउन लागू होने के बाद जब पूरा व्यापार ठप पड़ गया, बाज़ार बंद हो गए, यातायात की हर सुविधा बंद हो गई। तब भारत के सामने एक अलग संकट आ खड़ा हुआ। धीरे-धीरे हज़ारों-लाखों की संख्या में मुंबई, दिल्ली, पंजाब, चेन्नई जैसे बड़े शहरों से प्रवासी मज़दूर पैदल ही अपने घरों की ओर निकलने लगे। कोई मुंबई से मध्य प्रदेश पैदल जा रहा था, तो कोई दिल्ली से बिहार। हर दिन इन शहरों की सड़कों पर अपने परिवार के साथ बड़ी संख्या में मज़दूर अपने गांवों की ओर लौटते नज़र आते। रोज़गार नहीं था, खाने के पैसे नहीं थे, घर का किराया देने के पैसे नहीं थे। ऐसे हालात में ये मज़दूर वापस न लौटते तो क्या करते।

प्रवासी मज़दूरों के इस संकट को कई लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी भी कहा। इस दौरान घर पहुंचने के रास्ते में मालगाड़ियों से कुलचकर, टेम्पो-ट्रैक्टरों के नीचे आकर, भूख, बीमारी की वजह से भी कई प्रवासी मज़दूरों की मौत हुई। यहां तक कि केंद्र सरकार द्वारा देर से ही सही प्रवासी मज़दूरों के लिए चलाई गई श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में प्रवासी मज़दूरों की मौत हुई।

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लेकिन इस बार संसद का सत्र शुरू होने पर जब केंद्र सरकार से विपक्ष ने सवाल पूछा कि इस त्रासदी में कितने मज़दूरों ने अपनी जान गंवाई और क्या उनके परिवारों को मुआवज़ा मिला है? तब केंद्रीय श्रम मंत्रालय की तरफ़ से जवाब मिला-  “लॉकडाउन के दौरान हुई प्रवासी मज़दूरों की मौत से संबंधित कोई आंकड़ा सरकार के पास मौजूद नहीं है, इसलिए मुआवज़े का सवाल ही नहीं उठता।” केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार ने सदन को यह जानकारी भी दी कि लॉकडाउन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों से करीब 1 करोड़ प्रवासी मज़दूर अपने-अपने गृह राज्य लौटे। केंद्र सरकार के इस जवाब की बेहद आलोचना हुई जिसके बाद सरकार की तरफ यह सफाई आई कि किसी ज़िले में प्रवासी श्रमिकों की मौत पर आंकड़े इकट्ठा करने के लिए नगरपालिका स्तर पर कोई तंत्र मौजूद नहीं है। इसलिए यह श्रम मंत्रालय द्वारा दिए गए जवाब पर सवाल उठाना एक अपरिपक्व व्यवहार है। साथ ही बीते शनिवार को रेल मंत्री पीयूष गोयल ने टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में सदन को जानकारी दी कि लॉकडाउन के दौरान चलाई गई श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में 97 लोगों की मौत हुई।

प्रवासी मज़दूरों की त्रासदी पर केंद्र सरकार की तरफ से सदन के इस सत्र में दी गई यह पहली अमानवीय दलील थी। प्रवासी मज़दूरों पर विपक्ष के ही एक और सवाल के जवाब में केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय ने जवाब दिया कि बड़ी संख्या में मज़दूरों का पलायन फेक़ न्यूज़ के कारण हुआ। फेक़ न्यूज़ ने लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों के बीच घबराहट पैदा की और वे भोजन, पानी, स्वास्थ्य सुविधा, शेल्टर जैसी बुनियादी सुविधाओं की सप्लाई को लेकर चितिंत हो गए थे। हालांकि केंद्रीय मंत्री से यह सवाल पूछना ज़रूरी है कि क्या सड़कों पर लाखों की संख्या में पैदल लौटते सारे मज़दूर सिर्फ फेक़ न्यूज़ के कारण घर लौटे थे? अगर हां तो क्या केंद्र सरकार इस बात का जवाब देगी कि क्या उसने लॉकडाउन की घोषणा के 4 घंटों के अंदर ही सारी बुनियादी सुविधाएं प्रवासी मज़दूरों को उपलब्ध करवाने की कवायद शुरू कर दी थी? क्या यह फेक न्यूज़ टीवी चैनलों से फैली क्योंकि उस वक्त भी मीडिया का एक बड़ा तबका मज़दूरों की त्रासदी तो कवर नहीं कर रहा था। अगर सरकार को श्रमिकों की इतनी ही चिंता थी तो श्रमिक स्पेशल ट्रेनें 1 मई से क्यों चलवाई गई?

प्रवासी मज़दूरों के इस संकट को कई लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी भी कहा।

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क्या केंद्र सरकार ने अपने ही सांसदों और नेताओं द्वारा कोरोना वायरस पर फैलाई गई फेक न्यूज़ के खिलाफ कोई कार्रवाई की? जब असम से बीजेपी विधायक सुमन हरिप्रिया ने कहा था कि गौमूत्र और गोबर से कोरोना वायरस ठीक हो सकता है। या जब केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा था कि भाभी जी पापड़ खाने से कोरोना वायरस ठीक हो सकता है। 

सरकार के दावे से अलग रिपोर्ट्स क्या कहती हैं

केंद्र सरकार भले दावा कर रही है कि उसके पास लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों की मौत से जुड़ा आंकड़ा मौजूद नहीं है लेकिन रिपोर्ट्स कुछ और कहती हैं। प्रवासी मज़दूरों के संकट के दौरान उनकी मदद में शामिल कई गैर- सरकारी संगठनों ने भी आंकड़े इकट्ठा किए हैं। गैर-सरकारी संगठन सेव लाइफ फाउंडेशन के मुताबिक 31 मई तक 198 प्रवासी मज़दूरों की मौत सड़क दुर्घटनाओं में हुई। फाउंडेशन के मुताबिक इस अवधि के दौरान 1,416 सड़क दुर्घटनाएं हुई। इन दुर्घटनाओं में 1390 लोग ज़ख्मी भी हुए। फाउंडेशन की रिपोर्ट बताती है कि सबसे ज़्यादा प्रवासी मज़दूरों की मौत  उत्तर प्रदेश (94) मध्य प्रदेश (38), बिहार (16), तेलंगाना (11) और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में हुई (9)। एनजीओ द्वारा इकट्ठा किया गया यह आंकड़ा मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित है।

वहीं, स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटर्वक (SWAN) के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान अलग-अलग वजहों जैसे- भुखमरी और आर्थिक संकट, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, सड़क दुर्घटना, आत्महत्या से मौत, क्वारंटीन सेंटर्स में हुई मौत, पुलिस हिंसा आदि कारणों से 4 जुलाई तक 971 लोगों की मौत हुई। ऐसे में यह सवाल उठना जायज़ है कि अगर गैर-सरकारी संगठन प्रवासी मज़दूरों की मौत पर आंकड़े इकट्ठा कर सकते हैं तो क्या केंद्र सरकार के लिए यह एक मुश्किल काम होगा जिसके अंतर्गत पूरी मशीनरी आती है?

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बेरोज़गारी पर सरकार की चुप्पी

केंद्र सरकार ने सदन में एक लिखित जवाब में यह भी कहा कि लॉकडाउन के दौरान कितनी नौकरियां गई इससे संबंधित आंकड़े भी सरकार के पास मौजूद नहीं है। सरकार को यह लिखित जवाब देने से पहले थोड़ा समय लेना चाहिए था क्योंकि लॉकडाउन के दौरान कितनी नौकरियां गई इससे संबंधित कई आंकड़े अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा जारी किए जा चुके हैं। इंटरनैशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन और एशियन डेवलपमेंट बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 महामारी के दौरान देश में 41 लाख लोगों की नौकरियां चली गई। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में लागू हुए लॉकडाउन ने 4 करोड़ मज़दूरों को प्रभावित किया है। हाल ही में आई सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) मई से अगस्त के दौरान 60 लाख वाइट कॉलर प्रोफेशनल वर्कर्स की नौकरी चली गई। इन वर्किंग प्रोफेशनल्स में टीचर, अकाउंटेंट, इंजीनियर, फीज़िशियन जैसे प्रोफेशन शामिल हैं।

हालांकि यह पहली बार नहीं जब बेरोज़गारी के आंकड़ों पर केंद्र सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। इससे पहले मोदी सरकार ने बेरोज़गारी पर NSSO की वह रिपोर्ट भी देरी से जारी की जिसमें 2017-18 के दौरान बेरोज़गारी की दर 6.1 फीसदी बताई गई है जो 45 साल में बेरोज़गारी का सबसे ऊंचा स्तर है। सरकार द्वारा रिपोर्ट जारी करने से पहले ही बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार ने इस ख़बर का खुलासा किया था जिसमें यह भी दावा किया गया था कि सरकार जानबूझकर इस रिपोर्ट को जारी नहीं कर रही थी। बेरोज़गारी पर सरकार की चुप्पी का ही यह नतीजा है कि 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन को देश के युवाओं ने राष्ट्रीय बेरोज़गारी दिवस के रूप में मनाया। 2 करोड़ नई नौकरियां देने का वादा कर सत्ता में आई बीजेपी बेरोज़गारी के आंकड़ों पर पर्दा डालने में अधिक कामयाब नज़र आती है। 

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डॉक्टरों की मौत पर सरकार की चुप्पी

आपको शायद याद हो कि स्वास्थ्यकर्मियों को केंद्र सरकार ने कोरोना वॉरियर्स का दर्जा देते हुए उनके लिए थालियां बजवाई थी, अस्पतालों पर फूल बरसाए गए थे। लेकिन इन्हीं स्वास्थ्यकर्मियों ने जब पीपीई किट और अन्य ज़रूरी सुविधाओं के लिए विरोध-प्रदर्शन किए तो मीडिया के कैमरे इन कोरोना वॉरियर्स की तरफ से मुड़ गए। संसद में अपने बयान में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन द्वारा डॉक्टरों की मौत का ज़िक्र न होने पर भी आईएमए ने आपत्ति ज़ाहिर की है। डॉक्टरों की मौत की एक सूची जारी करते हुए इंडियन मेडिकल असोसिएशन ने कहा है कि जितने डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की मौत कोरोना का इलाज करने के दौरान भारत में हुई है, उतनी मौतें किसी देश में नहीं हुई। आईएमए के मुताबिक अब तक भारत में 382 डॉक्टरों की मौत हो चुकी है। आईएमए ने मांग की है कि इन मृतक डॉक्टरों को शहीद का दर्जा दिया जाए। आईएमए ने सरकार पर आरोप लगाया है कि मुश्किल वक्त में लोगों के लिए नैशनल हीरो के रूप में खड़े हुए डॉक्टरों को बिल्कुल अकेला छोड़ दिया गया।

बेरोज़गारी, प्रवासी मज़दूरों और डॉक्टरों की मौत के सवालों पर भले ही केंद्र सरकार ने चुप्पी साध ली हो लेकिन इससे जुड़ी जानकारियां अलग-अलग माध्यमों से धीरे-धीरे ही सही सामने आ रही हैं। 50 लाख से अधिक कोरोना मामले होने के बावजूद सरकार ने अब तक कम्यूनिटी ट्रांसमिशन की बात आधिकारिक रूप से नहीं स्वीकार की है। आंकड़ों को लेकर यह सरकार हमेशा विवादों में रही है, कोरोना काल में बेरोज़गारी, आर्थिक मंदी आदि समस्याओं को भी ‘एक्ट ऑफ गॉड’ कहकर जवाबदेही से बचना शायद इस वक्त सरकार की पहली प्राथमिकता है।

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तस्वीर साभार : गूगल

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