समाजख़बर रेल की पटरी पर लेटे देश के किसानों को मीडिया से कवरेज की उम्मीद क्यों होगी ?

रेल की पटरी पर लेटे देश के किसानों को मीडिया से कवरेज की उम्मीद क्यों होगी ?

कृषि विधेयकों के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में शामिल किसानों ने बिल पास करने वाली मोदी सरकार के साथ-साथ मीडिया के ख़िलाफ भी नारे लगाए।

जब मीडिया बॉलीवुड में तथाकथित ड्रग्स रैकेट के खुलासे के लिए अभिनेत्रियों की गाड़ियों का पीछा करने में लगा था। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के फिटनेस आइकन्स के साथ बातचीत में व्यस्त थे। उस वक्त पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, तेलंगाना आदि राज्यों के किसान सड़कों पर थे। केंद्र सरकार द्वारा पारित किए गए तीन कृषि विधेयकों के ख़िलाफ़ बीते 25 सितंबर को देशभर के कई किसान संगठनों ने भारत बंद बुलाया था। बड़ी संख्या में इन प्रदर्शनों में देशभर के किसान शामिल हुए। इन प्रदर्शनों में शामिल किसानों ने कई जगहों पर मोदी सरकार के साथ-साथ मीडिया के ख़िलाफ भी नारे लगाए। कई जगहों के ऐसे वीडियो सामने आए जहां किसानों ने अपने भाषणों में मीडिया की आलोचना की। किसानों को अंदाज़ा था कि इन तीन बिलों के ख़िलाफ़ बुलाए गए बंद की जगह मेनस्ट्रीम मीडिया तथाकथित बॉलिवुड ड्रग रैकेट को ही तवज्जो देगा। मीडिया का जन विरोधी और सत्ता की चाटुकारिता का चरित्र कुछ इस कदर उजागर हो चुका है कि देश के किसानों को मेनस्ट्रीम मीडिया से कोई उम्मीद नहीं है कि वह उनका पक्ष दिखाएगा।

सीएए और एनआरसी के बाद किसानों का यह प्रदर्शन, मौजूदा सरकार के ख़िलाफ देश का दूसरा बड़ा प्रदर्शन है। लेकिन इस बार मेनस्ट्रीम मीडिया को किसानों के प्रदर्शन को अलग रंग देने की ज़रूरत नहीं पड़ी। मीडिया के पास पहले से ही पिछले 3 महीने से ‘बॉलीवुड ड्रग रैकेट’ का खुलासा करने की ज़िम्मेदारी है। जब किसान सड़कों पर नारे लगा रहे हैं तब न्यूज़ चैनल बॉलीवुड एक्टर्स के वॉट्सऐप चैट पढ़कर दर्शकों को बता रहे हैं। किसी शख्स की वॉट्सऐप चैट कैसे न्यूज़ चैनलों तक पहुंच रही है यह निजता के अधिकार से जुड़ा एक बेहद गंभीर मसला है। लेकिन हमारे देश में निजता के अधिकार की बहस अब बैकफुट पर जा चुकी है। जाए भी क्यों न, जिस देश में मूलभूत ज़रूरतों और बुनियादी अधिकारों पर ही संकट हो वहां निजता की बात कौन करे भला।

तथाकथित मेनस्ट्रीम चैनलों की यह आलोचना अब बोरियत पैदा करने लगनी है कि वह जनसरोकार की खबरें नहीं दिखाता। सोशल मीडिया के आलोचकों ने जैसे इसमें सैडेस्टिक प्लेज़र खोज़ लिया है। टीवी मीडिया ने अनगिनत मौकों पर स्पष्ट संदेश दिया है कि वह क्या दिखाएगा। जो उसकी लाइन के विपरित दिखेगा, वह उसे अपना दुश्मन मानेगा। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ शुरू हुए व्यापक प्रदर्शनों में शामिल लोगों को बतौर ‘देशद्रोही’ दिखाने में क्या टीवी मीडिया ने कोई कसर बाकी छोड़ी थी क्या? इस कानून का विरोध देश के अल्पसंख्यक और धर्मनिरपेक्ष वर्ग को क्यों कर रहे थे यह टीवी चैनलों ने दिखाया ही नहीं। मेनस्ट्रीम मीडिया का ज़ोर इस बात पर था कि लोग सरकार का पक्ष समझें और जो न समझें वे देशद्रोही, आतंकी, टुकड़े-टुकड़े गैंग समर्थक आदि हैं। केंद्र सरकार ने जब कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया तब मीडिया ने यह बताने की कोशिश की कि 5 अगस्त के बार एक नया कश्मीर बनेगा। अगर हम टीवी के फ्रॉड को लेकर अबतक हैरानी जता रहे हैं तो यह मज़ाक हम पर है।

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कृषि विधेयकों के ख़िलाफ़ पंजाब में प्रदर्शन करते किसान। तस्वीर साभार- The Scroll

सोशल मीडिया और वैकल्पिक मीडिया की भूमिका

मेनस्ट्रीम मीडिया की व्यापक और गंभीर आलोचनाओं के बावजूद कुछ बदलता नहीं दिखता। मसलन, जन विरोधी पत्रकारिता और उसके आलोचकों ने दो अपने-अपने तरह का बिजनेस मॉडल खड़ा कर लिया है। एक जनसरोकार से जुड़ी खबरों की जगह बेवजह के सनसनीखेज़ मसलों पर बहस करने का मॉडल। दूसरा, इन वेबजह की खबरों के मॉडल पर आलोचनाओं का मॉडल और इसमें छूट जाते हैं बहस के असली मुद्दे। आपने सोशल मीडिया पर टीवी चैनलों के छोटे-छोटे क्लिप वायरल होते देखे होंगे। एंकर उसमें आला दर्ज़े की नौटंकी करते मालूम पड़ते हैं। लिबरल और प्रगतिशील लोग इन वीडियो क्लिप को शेयर करते हुए आलोचना लिखते/करते दिखते हैं। बेशक यह आलोचना ज़रूरी है। लेकिन क्या हमारी सारी ऊर्जा की खपत इन आलोचनाओं में ही गुजर जाना चाहिए? लोगों तक सही सूचनाएं और किसी भी मुद्दे से संबंधित सरोकारी दर्शन कैसे पहुंचेगा? मेरे ख्याल में यह हमारी ज्यादा बड़ी चिंता होनी चाहिए।

क्या आपने नए कृषि विधेयक पर सोशल मीडिया पर जानकारी साझा होते देखी? जानकारी का मतलब यह नहीं कि कहां आंदोलन हो रहा है। जानकारी का मतलब यह भी आखिर कृषि विधेयक में ऐसे क्या मसले हैं जिससे भारत की खेती प्रभावित होने वाली है। क्या सोशल मीडिया पर तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया की ऐसी आलोचनाओं को पढ़कर आपको कोई राजनीतिक दृष्टि मिल पा रही है? राजनीतिक दृष्टि का मतलब बीजेपी और कांग्रेस की बाइनरी नहीं। वह उस दृष्टि का एक छोटा सा हिस्सा है। मसलन यह कि कांग्रेस और भाजपा के कृषि विधेयकों में क्या फर्क है? यह इसीलिए अहम हो जाता है क्योंकि हमने एक ही मुद्दे पर पार्टियों के बदलते स्टैंड देखे हैं। एक वक्त जिस शिद्दत से बीजेपी एफडीआई का विरोध किया करती, सत्ता में आते ही उसने दोगुनी शिद्दत से एफडीआई का रास्ता साफ किया। यहां तक कि डिफेंस में भी एफडीआई को मंजूरी दे दी। एफसीआरए और यूएपीए जैसे कानून लेकर आने वाली कांग्रेस आज उसके खिलाफत में टेबल पीट-पीटकर लोकतंत्र बचाने की दुहाई देती है। कहने का मतलब है कि क्या हम नागरिक बने रह सकते हैं? क्या हम चीज़ों को संदर्भ सहित देख पा रहे हैं? या हम सब बेकार में राजनीतिक दलों के वॉर रूम के प्रौपगैंडे में शामिल किए जा चुके हैं? प्रथमदृष्ट्या यही लगता है।

जन विरोधी पत्रकारिता और उसके आलोचकों ने दो अपने-अपने तरह का बिजनेस मॉडल खड़ा कर लिया है। एक जनसरोकार से जुड़ी खबरों की जगह बेवजह के सनसनीखेज़ मसलों पर बहस करने का मॉडल। दूसरा, इन वेबजह की खबरों के मॉडल पर आलोचनाओं का मॉडल और इसमें छूट जाते हैं बहस के असली मुद्दे।

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नेटफ्लिकस की फिल़्म सोशल डिलेमा देखने के बावजूद हम यह मानते हैं कि सोशल मीडिया ने लोगों को इंपावर किया है। लोगों के जीवन में कई सकारात्मक बदलाव किए हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया से नाउम्मीदी के दौर में डिजिटल मीडिया एक सशक्त विकल्प बनकर उभरा है। सीमित संसाधनों में छोटे-छोटे संस्थानों ने काबिल-ए-तारीफ काम किया है। उनके रिपोर्टरों ने गांव-देहात छान मारा है। लेकिन क्या उनके काम को पहचान मिल रही है? क्या सोशल मीडिया पर आलोचकों की नई खेप को इन पत्रकारों का काम दिखता है?

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मैनुफैक्चरिंग कंसेंट– नॉम चॉमस्की और एडवर्ड हरमन द्वारा साल 1988 में लिखी गई यह किताब मीडिया पर आधारित सबसे बेहतरीन किताबों में गिनी जाती है। इस किताब में नॉम चॉमस्की ने बेहद वृहद तरीके से समझाया है कि कैसे मीडिया पांच फिल्टर्स के ज़रिए काम करता है। इन पांच फिल्टर्स में शामिल हैं- मीडिया ओनरशिप यानी मीडिया मालिक कौन हैं, एडवरटाइज़िंग रेवेन्यू यानी विज्ञापनों से होने वाली कमाई, मीडिया एलीट यानी मीडिया को प्रभावित करने वाले ताकतवर लोग जिनके हाथ में सत्ता है, फ्लैक– जो पत्रकार, मीडिया संस्थान आदि सत्ता से अलग रुख अख्तियार करके हैं उनके साथ होने वाली कार्रवाई या बर्ताव और आखिरी फिल्टर है कॉमन एनेमी यानी एक दुश्मन जिसमें साम्यवाद, आतंकवाद, अवैध प्रवासी नागरिक जिसकी मदद से मीडिया इनके ख़िलाफ राय बनाकर लोगों के बीच डर पैदा करता है, एक जनमत तैयार करता है।

तस्वीर साभार: Lokniti

अगर हम मैनुफैक्चरिंग कंसेट के इन पांच फिल्टरों को देखे तो पाएंगे यह हर एक फिल्टर भारतीय मीडिया के चरित्र का एक हिस्सा बन चुका है। चाहे वह कॉरपरेट द्वारा मीडिया की ओनरशिप हो या एक कॉमन एनेमी तैयार करने की, भारतीय मीडिया हर जगह आगे नज़र आता है। देश के अधिकतर मीडिया संस्थान का मालिकाना हक कॉरपरेट्स के पास है या इन संस्थानों के निवेशक कॉरपोरेट्स है। ऐसे में कॉरपोरेट मीडिया के जनवादी होने की उम्मीद बेमानी है। यह कॉरपोरेट मीडिया उस हद तक ही जनता के हक़ में बात कर सकता है जहां तक कॉरपोरेट जगत ने लकीर खींचकर रखी हो।

ऐसे में बतौर जनवादी पत्रकार हमारा सबसे बड़ा संघर्ष यह है कि हम सही सूचनाओं का तंत्र गढ़ने की कोशिश करें। यह लोगों से नागरिक बने होने की अपील करता है। मेनस्ट्रीम की जनविरोधी पत्रकारिता से हताश होकर हम अफ़सोस जताते नहीं रह सकते। अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल लोगों को शिक्षित और फर्ज़ी खबरों के संसार को भेदने की होनी चाहिए। मेरे ख्याल में यह हमारी ज्यादा बड़ी चिंता होनी चाहिए क्योंकि हमने समस्या को पहचान लिया है। हमें इस समस्या के समाधान की संभावनाएं तलाशनी और वैकल्पिक व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने की ज़रूरत है।

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तस्वीर साभार : Business Standard

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