हाल ही में मध्य प्रदेश के आईपीएस अधिकारी पुरुषोत्तम शर्मा का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ जिसमें वह अपनी पत्नी की पिटाई करते नज़र आ रहे थे। वीडियो के वायरल होने के बाद और सोशल मीडिया के बढ़ते हुए दबाव की वजह से मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया है। जबकि वीडियो सामने आने के बाद पहले राज्य सरकार ने पुरुषोत्तम शर्मा का सिर्फ स्थानांतरण ही किया था। इस पूरे मामले में जब मीडियाकर्मियों ने उनसे बात कि तो उन्होंने कहा कि साल 2008 में उनकी पत्नी ने उनके खिलाफ पहली शिकायत की थी, बावजूद इसके वे इतने सालों से उनके साथ क्यों रह रही है? वह उनके पैसों पर सारी सुविधाओं का इस्तेमाल कर रही थी? जब उनसे उनके द्वारा अपनी पत्नी के साथ की गई मार-पीट के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने उसे नकारा नहीं, बल्कि ये कहकर सही ठहराया कि घर में तो इस प्रकार की छोटी-मोटी बातें होती रहती है। वह आगे यह भी कहते हैं कि यह हमारा पारिवारिक मामला है और वह कोई अपराधी थोड़े ही हैं।
अपनी पत्नी के साथ मार-पीट करना हमारे देश में कोई नई बात नहीं है। अपनी पत्नी को मारना और घरेलू हिंसा को हमारे देश के अधिकतर घरों में एक सामान्य बात समझी जाती है। पुरुषोत्तम शर्मा का यह मामला तो बस हमें यह याद दिला रहा है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा हमारे घरों में कितनी आम बात है। साल 2014 की यूनाइटेड नेशंस पापुलेशन फंड (UNFPA) की स्टडी बताती है हर दो में से एक भारतीय पुरुष यह मानता है कि परिवार को साथ रखने के लिए औरतों को घरेलू हिंसा झेलनी ही चाहिए। इस स्टडी में यह बात भी सामने आई कि 76.9 फ़ीसद पुरुष यह मानते हैं कि अगर औरत कुछ गलत करती है, तो मर्द के पास उसे पीटने का अधिकार है।
पुरुषोत्तम शर्मा का तर्क भी कुछ यही कहता हुआ नज़र आता है। उन्हें लगता है कि दूसरी औरतों के साथ हिंसा करना अपराध है और अपनी पत्नी के साथ हिंसा करना अपराध नहीं है। हमारे देश में महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा को अक्सर पारिवारिक मामला कहकर बात रफा-दफा कर दी जाती है। साल 2014 की टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस की क़्वेस्ट फॉर जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार भारतीय पुलिस और कोर्ट, दोनों ही औरतों को कानूनी उपायों की मदद लेने की जगह, मामले को ‘सेटल’ करवाने की कोशिश करते है। ऐसे में मन में यह सवाल उठता है कि ऐसे क्यों? क्यों हमारे देशवासियों को यह लगता है कि अपनी पत्नी पर हाथ उठाना गलत नहीं है ? बावजूद इसके कि यह एक कानूनन अपराध है और घरेलू हिंसा को रोकने के लिए हमारे देश में घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 मौजूद है।
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घरेलू हिंसा के सामान्यीकरण के पीछे कई वजहें हैं। एक बहुत बड़ी वजह है हमारे घर का माहौल और जिस तरीके से बच्चों को भारतीय घरों में बड़ा किया जाता है। भारतीय परिवारों में आमतौर पर यही माना जाता है कि पारिवारिक फैसले मुख्य रूप से पुरुष ही लेंगे। पैसा कमाने की जिम्मेदारी लड़कों/ पुरुषों की ही होती है, जबकि लड़कियों को यह सिखाया जाता है कि उनकी जिम्मेदारी बच्चों और पति का ख्याल रखने की है। इस प्रकार की व्यवस्था में लड़कियों/महिलाओं की आवाज़, उनके विचारों की कोई कदर नहीं होती। वे परिवार के पुरुषों के खिलाफ अपनी आवाज़ नहीं उठा सकती, फिर भले ही उनके खिलाफ होने वाली हिंसा का मुद्दा ही क्यों न हो और अगर वे आवाज़ उठाना भी चाहे तो उसके लिए उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम होना बेहद जरूरी है, क्योंकि आवाज़ उठाने का मतलब है दुर्व्यवहार, परित्याग और अपमान के लिए तैयार रहना। इसी प्रकार के बर्ताव से बचने के लिए कई बार लड़कियां/ महिलाएं आवाज नहीं उठाना उचित समझती है। नतीजन, उनकी चुप्पी इस हिंसा को और बढ़ावा देती है। उनकी इस चुप्पी का मतलब पुरुष ये समझने लगते है कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है, जबकि वास्तव में इस चुप्पी की वजह महिलाओं/ लड़कियों की लाचारी होती है।
अपनी पत्नी को मारना, घरेलू हिंसा को हमारे देश के अधिकतर घरों में एक सामान्य बात समझी जाती है। पुरुषोत्तम शर्मा का यह मामला तो बस हमें यह याद दिला रहा है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा हमारे घरों में कितनी आम बात है।
हमारे घरों में लड़कियों/ औरतों को विनम्रता की आड़ में चुप रहना सिखाया जाता है। वहीं, दूसरी और लड़कों/ पुरुषों को मर्दानगी की आड़ में हावी होना और आक्रामक होना सिखाया जाता है। इस प्रकार के मूल्यों के साथ जब हमारे बच्चे बड़े होंगे, तो वे हिंसा को सामान्य ही समझेंगे न। इसके अतिरिक्त, भारतीय समाज में लड़कों को लड़कियों की तुलना में ज्यादा ध्यान और महत्व मिलता है। इस प्रकार का विशेष बर्ताव उनके अहंकार को बढ़ावा देता है। वे यह तक मानने लगते हैं कि वे जो भी करते हैं, वह सही ही होता है, फिर भले ही वह अपनी पत्नी पर हिंसा ही क्यों न हो। सार में कहे तो लड़कों को मिलने वाला ख़ास महत्व, लैंगिक भेदभाव लड़कों के अहंकार को बढ़ावा देता है। और जब भी कोई महिला/ लड़की उनके इस अहंकार को चुनौती देती है, तो वे उन पर हिंसा करके जवाब देते है।
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ये कुछ कारण होते हैं जिस वजह से घरों में होने वाली हिंसा को सामान्य समझा जाता है। वजह चाहे कुछ भी हो, बात सिर्फ इतनी सी है कि कोई भी लड़की/ महिला के साथ घरेलू हिंसा करना एक कानून अपराध है। इसके अगर पुरुष ऐसा करते है तो वो दिन दूर नहीं जब देश की हर महिला/ लड़की घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ सड़कों पर नज़र आएगी। हमारे देश में घरेलू हिंसा को रोकने के लिए एक सामाजिक और जन आंदोलन की बेहद जरूरत है, तभी कुछ बदलाव हो सकता है। ज़रूरत है हमारे घरों में पलने वाले पितृसत्तात्मक और लैंगिक भेदभाव को खत्म करने की क्योंकि घरेलू हिंसा की जड़ वही हैं।
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तस्वीर : आश्वरी कुलकर्णी