यह बात ज़ाहिर है कि हम जिस दुनिया में रहते हैं, वह पुरुष प्रधान है। हर क्षेत्र में पुरुषों का ही वर्चस्व है चाहे वह खेलकूद हो या अध्यापन हो, राजनीति हो, मीडिया हो, कॉर्पोरेट दुनिया हो या फ़िल्म जगत। साहित्य की दुनिया भी पुरुष प्रधानता से मुक्त नहीं है। सदियों तक तो महिलाओं को लिखने की ही इजाज़त नहीं थी। पुरुषों के नाम से अपनी किताबें प्रकाशित करके महिला साहित्यकार फिर भी इस दुनिया में अपने लिए थोड़ी सी जगह बना लेती थी। आज भी लेखिकाओं और महिला साहित्यकारों को उतनी अहमियत नहीं दी जाती जितनी पुरुषों द्वारा रचे साहित्य या उनके द्वारा लिखी गई किताबों को दी जाती है। ऐसे में एक प्रसिद्ध साहित्यकार की पत्नी के लिए खुद को लेखिका के तौर पर साबित करना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना हम कर ही सकते हैं। हम यहां बात कर रहे हैं महान हिंदी साहित्यकार प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी की।
प्रेमचंद का नाम तो हर उस इंसान ने सुना है, जिसे हिंदी साहित्य जगत के बारे में थोड़ा भी ज्ञान हो। पर शायद हर कोई यह नहीं जानता होगा कि उनकी पत्नी भी एक प्रतिभाशाली साहित्यकार थी जिनकी कृतियों में नारीवादी मुद्दों का बखूबी वर्णन है। क्यों ऐसे एक लेखिका को अपने पति की सफलता की परछाई में सीमित रहना पड़ा?? क्यों उन्हें अपने योग्य सम्मान नहीं मिल सका? इन सवालों का एक ही जवाब है और वह जवाब है पितृसत्ता। शिवरानी देवी के जन्म और जीवन के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। वे प्रेमचंद की दूसरी पत्नी थी। प्रेमचंद से उनका विवाह, उनका भी दूसरा विवाह था। वे बचपन में विधवा हो गई थी और साल 1905 में उनके पिता मुंशी देवीप्रसाद ने अपनी रचना, ‘कायस्थ बाल विधवा उद्धारक पुस्तिका’ में उनके दूसरे विवाह के लिए विज्ञापन छपवाया। प्रेमचंद ने यह विज्ञापन देखा और साल 1906 में उनका विवाह हो गया। विवाह के बाद साहित्य रचना की ओर शिवरानी देवी का आग्रह बढ़ा और उनके पति ने उन्हें प्रोत्साहित किया।
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शिवरानी देवी लघुकथाएं लिखती थी। सशक्त महिला किरदारों पर केंद्रित यह लघुकथाएं महिलाओं के जीवन, उनके ख्याल और उनसे संबंधित मुद्दों पर प्रकाश डालती हैं। उनकी लघुकथा ‘कप्तान’ एक सैनिक की पत्नी, सुभद्रा के बारे में है जो युद्ध की घनघोर परिस्थितियों में अपने पति के साथ खड़ी रहती है और उसका हौसला बढ़ाती है। एक और कहानी ‘विध्वंस की होली’ एक औरत, उत्तमा के बारे में है जो अपना घर-परिवार खोने के बाद एक नए सिरे से ज़िंदगी जीना शुरू करती है और पुराने गमों को भुलाकर एक बेहतर भविष्य का स्वागत करने के लिए प्रस्तुत होती है। यह लघुकथाएं ‘कौमुदी’ नाम के संकलन के रूप में प्रकाशित हुईं।
लंबे समय तक लोग यह समझते थे कि यह लघुकथाएं प्रेमचंद ने ही किसी महिला के नाम से लिखी हैं। यह धारणा इतनी आम हो गई थी कि प्रेमचंद को खुद आगे आकर कहना पड़ा कि यह कृतियां वाकई उनकी पत्नी शिवरानी देवी की हैं।
इसके बाद ही शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंद: घर में’ नाम से अपने पति के बारे में एक उपन्यास लिखा। इसमें वे हिंदी साहित्य के महान लेखक से हमारा परिचय एक पत्नी, एक साथी के नजरिए से करवाती हैं। अपने पति के बारे में वे लिखती हैं, “मानवता की दृष्टि से भी यह व्यक्ति कितना महान था, कितना विशाल था, यही बताना इस पुस्तक का उद्देश्य है, और यह बताने का अधिकार जितना मुझे है, उतना और किसी को नहीं, क्योंकि उन्हीं के शब्दों में हम दोनों ‘एक ही नाव के यात्री’ थे…दुख और सुख में मैं हमेशा उनके साथ, उनके बगल में थी।”
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अपने साहित्य के लिए शिवरानी देवी को वह प्रशंसा ही नहीं मिली थी जिसकी वह अधिकारी थी। लंबे समय तक लोग यह समझते थे कि यह लघुकथाएं प्रेमचंद ने ही किसी महिला के नाम से लिखी हैं। यह धारणा इतनी आम हो गई थी कि प्रेमचंद को खुद आगे आकर कहना पड़ा कि यह कृतियां वाकई उनकी पत्नी शिवरानी देवी की हैं। अपनी पत्नी के साहित्य के बारे में प्रेमचंद ने लिखा है, “कहानियों की कल्पना श्रीमती प्रेमचंद की हैं, और उसे पूरे तौर पर रूप भी उन्हीं ने दिया है। एक योद्धा स्त्री उनकी प्रत्येक पंक्ति में बोल रही है। मेरे जैसा शांतिमय स्वभाव वाला आदमी इस प्रकार के अक्खड़पन से भरे जोरदार स्त्री जाति संबंधी प्लाटों की कल्पना भी नहीं कर सकता था।”
शिवरानी देवी बागी और क्रांतिकारी सोच वाली महिला थीं। लेखिका होने के साथ साथ वे राजनीति की दुनिया में भी सक्रिय थीं और स्वतंत्रता संग्राम में कई बार शामिल हुई थीं। 1929 में स्वदेशी आंदोलन के दौरान उन्होंने 56 महिलाओं के विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व किया था, जिसके लिए उन्हें जेल जाना पड़ा था। ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ अपनी राजनैतिक गतिविधियों की वजह से उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा था, और इस बात के लिए उनके पति को उन पर बहुत गर्व था। 5 दिसंबर 1976 को शिवरानी देवी की मृत्यु हुई। एक उत्तम साहित्यकार होने के साथ वे एक बागी, सशक्त, साहसी और बेबाक महिला थीं। आज की पीढ़ी की महिलाओं, ख़ासकर महिला साहित्यकारों के लिए वे एक प्रेरणा है और भारतीय साहित्य जगत में उनका योगदान वाकई अमूल्य है। उनका नाम आसानी से भुला नहीं दिया जा सकता।
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तस्वीर साभार : फेमिनिज़म इन इंडिया