इंटरसेक्शनलजेंडर बेटे की चाह में लैंगिक भेदभाव को कब तक सहती रहेंगी बेटियां

बेटे की चाह में लैंगिक भेदभाव को कब तक सहती रहेंगी बेटियां

बेटी होने का पहला मतलब है कि उसकी सुरक्षा करना, समाज से उसको बचाना। साथ ही उसकी शादी के लिए पैसे इक्कठा करना।

हाल ही में एक खबर आई थी जो शायद हम सभी ने अख़बारों और कुछ न्यूज़ चैनल्स पर देखी और सुनी होगी। उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में पांच बेटियों के एक पिता ने अपनी गर्भवती पत्नी का पेट काट दिया था। दरअसल, वह ये पता करना चाहता था कि उसकी पत्नी के गर्भ में पल रहा बच्चा बेटा है या बेटी। जो लोग कहते हैं कि अब समाज में बेटा और बेटी में कोई अंतर नहीं है। वे खुद जानते हैं कि हमारे परिवारों और समाज ने इस अंतर को, इस लैंगिक भेदभाव को कभी कम होने ही नहीं दिया है। बेटे की चाह में किया गया यह अपराध लिंग भेद के साथ लड़कियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को भी साफ़ दर्शाता है। साल 2018 में भारत सरकार की रिपोर्ट में कहा गया है कि बेटा पाने की इच्छा ने 21 मिलियन लड़कियों को “अवांछित” बताया है। इस रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि कई जोड़े तब तक बच्चे पैदा करते रहते हैं, जब तक कि एक लड़का नहीं पैदा होता। जनसंख्या अनुसंधान संस्थान के अनुसार, साल 1990 और साल 2018 के बीच जन्म से पहले लिंग चयन के कारण भारत में लगभग 15.8 मिलियन लड़कियां लापता हो गईं।

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की खबर जब आई थी तब भी कई हिंदी की ऑनलाइन साइटों और न्यूज़ पेपर में खबर छपी थी, ‘चार बहनों के बाद हुआ था सुशांत का जन्म, मां ने मंदिर-मंदिर जा कर मांगी थी मन्नत।’ हम इस बात को स्वीकार करें या नहीं, पर यह सच हैं कि हमारे समाज में आज भी लड़के के जन्म को उत्सव की तरह देखा जाता है। मैंने कभी ऐसी खबर नहीं सुनी कि बेटी की चाह में परिवार या मां-बाप ने मंदिर-मंदिर जा कर मांगी थी मन्नत।  आज भी हमारे परिवारों में यदि पहला बच्चा लड़का होता है तो परिवारों की ख़ुशी अलग दिखाई देती है। पहला बच्चा यदि लड़की होती है तो अधिकतर जोड़े दूसरा बच्चा ‘बेटे की चाह’ में ही करते हैं। बेटे की चाह में महिला दोबारा मां बनना चाहती है या नहीं, महिला का स्वास्थ्य और आने वाले बच्चे की देख-रेख, परवरिश और परिवार की आर्थिक स्थिति जैसी बातों को दरकिनार कर दिया जाता है।

बेटी होने का पहला मतलब है कि बेटी की सुरक्षा करना, समाज से उसको बचाना। साथ ही बेटी की शादी के लिए पैसे इक्कठा करना क्योंकी बेटी की पढ़ाई-लिखाई हो ना हो लेकिन उसकी शादी और दहेज़ उसके पैदा होने के वक्त से ही तय हो जाते हैं।

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लिंग आधारित भेदभाव के उदाहरण प्रतिदिन आस-पास और परिवार में ही देखने को मिलते हैं। अक्सर मैं खुद अपने आस-पास सुनती हूं जैसे “फलां व्यक्ति की दो बेटियां हैं, अब उसको समझ में आएगा।” क्या समझ में आएगा। दो बेटियां हैं तो अब उस ‘फलां व्यक्ति’ के लिए लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई है। क्योंकी बेटी होने का पहला मतलब है कि बेटी की सुरक्षा करना, समाज से उसको बचाना। साथ ही बेटी की शादी के लिए पैसे इक्कठा करना क्योंकी बेटी की पढ़ाई-लिखाई हो ना हो लेकिन उसकी शादी और दहेज़ उसके पैदा होने के वक्त से ही तय हो जाते हैं। बेटी का जन्म होते ही बेटी की शादी, दहेज़ और उसका मां बनना तय हो जाता है। बेटी खुद क्या करना चाहती है –‘शादी करना चाहती है कि नहीं, मां बनना चाहती है कि नहीं’ ये तो कोई विकल्प ही नहीं रह जाता है। 

आज भी कई परिवार यह मानते हैं कि बेटा ही उनकी देखभाल करेगा, सम्पत्ति की देखभाल करेगा। बेटा होना जरूरी है, बेटे को पढ़ाओ-लिखाओ, बेटा कमाएगा और जीवनभर साथ रहेगा। बेटा पराया नहीं है और बेटा कहीं नहीं जाएगा आदि। बेटियां तब तक ही माता-पिता की देखभाल करेंगी जब तक उनकी शादी नहीं हुई हो, वे अगर संपत्ति में अपना हक मांगेंगी भी तो संपत्ति लेकर अलग हो जाएंगी। बेटियों का जीवनभर साथ होना ज़रूरी नहीं हैं। बेटियों को पढ़ाना ज़रूरी नहीं है क्योंकी बेटियों की कमाई नहीं खानी चाहिए और यदि वे कमाएंगी भी तो उनकी कमाई से माता-पिता को क्या लाभ। बेटी जीवन भर साथ नहीं रहेगी। बेटी परायी है और बेटी का दूसरे घर जाना तय है।

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समाज के लिए आज भी बेटी और बेटे का अंतर एक सामान्य बात है, यह सामान्य बात ही यह दर्शाती है की पितृसत्ता में बेटे की चाह ने इंसान को क्रूर और निर्दयी बना दिया है। पितृसत्ता के तहत बनाया गया बेटे की चाह का ढांचा और लड़कियों पर की जाने वाली हिंसा हमारे समाज में लड़कियों की स्थिति की सच्चाई को दर्शाती हैं। बेटे की चाह में लड़कियों पर होने वाली यह हिंसा इतनी व्यापक है कि अक्सर इस प्रकार की हिंसा की रिपोर्ट या आंकड़े भी मौजूद नहीं होते। कई लड़कियां जो बेटे की चाह में परिवार द्वारा की जाने वाली हिंसा की पुलिस में रिपोर्ट करने जाती हैं उनको पुलिस थाने से वापिस भेज दिया जाता है। पुरुषों द्वारा की जाने वाली हिंसा की शिकायत दर्ज करने जाना लड़कियों के लिए एक चुनौती बन गया है। 

यदि यह हमारा विकास है और यही हमारी स्वतंत्रता है तो हमें अपने विकास और स्वतंत्रता से जुड़े सवालों पर फिर से सवाल करने की आवश्यकता है। हमें समाज के पुनर्गठन की आवश्यकता है, हमें समाज को बदलने की आवश्यकता है। यह दर्शाता है कि हमें ऐसा समाज बनाना होगा जहाँ सभी जाति, धर्म और लिंग के लोगों को जीने का और खुद के लिए फैसले लेने का अधिकार हो। हमें जातिगत भेदभाव, रंग भेद, लिंगभेद रहित समाज खुद बनाना होगा, और इसके लिए हमको आज से और अभी से अपने परिवारों और समाज की इस ‘बेटा पाने की’ सोच और समझ पर सवाल उठाना होगा।

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Comments:

  1. Anwesha Mahankuda says:

    Thought provoking write up didi. We have to raise the questions. 👌👌

  2. Anwesha Mahankuda says:

    Indeed a thought provoking writeup didi. We have to question about these practices of society.

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