सीमा (बदला हुआ नाम) ने पाँचवी क्लास के बाद पढ़ाई छोड़ दी। दलित जाति से ताल्लुक़ रखने वाली सीमा जैसे ही खेतों में मज़दूरी करने के लायक़ हुई तो घरवालों ने उसपर खेत में मज़दूरी, घर के सारे काम और जानवरों का भी बोझ डाल दिया। काम का बोझ उसके शरीर पर ही नहीं उसके मन में भी इस कदर डाला गया कि उसकी ज़ुबान से शब्द कब निकलने कम हुए पता ही नहीं चला। गाँव में किसी संस्था ने जब किशोरी नेतृत्व विकास के लिए कार्यक्रम शुरू किया तो सीमा ने उसमें हिस्सा लिया, लेकिन एक दिन किशोरियों के बीच आपस में बहस हुई और सीमा ने जब इसके बारे में घर में बताया तो घरवालों ने तुरंत उसको उसके ‘आत्मसम्मान’ का हवाला देकर कार्यक्रम में भाग लेने से रोक दिया। छह महीने के अंदर सीमा की शादी हो गयी। शराबी पति जितनी मज़दूरी से कमाता है सब पी जाता है और घरेलू हिंसा तो मानो सीमा की नियति बनती जा रही है। जब भी वो इसके ख़िलाफ़ जाने के बात करती है तो घरवाले ये कहकर उसे चुप करवा देते है कि ‘रिश्ता है निभाओ नहीं नाक कट जाएगी। औरत की ज़िंदगी को सहने के लिए है।‘
सीमा अकेली नहीं है ऐसी ढेरों लड़कियाँ हैं, जिनकी हर संभावनाओं को कतरने में परिवार कभी पीछे नहीं हटता है। अक्सर गाँव में काम करते हुए देखती हूँ कि जैसे ही लड़की का रुझान पढ़ाई में कम होता है, उसे तुरंत आज़ादी के नामपर स्कूल छोड़ने को कह दिया जाता है, इतना ही नहीं इस बात पर बड़े नाज़ से घर वाले कहते हैं, ‘हम तो पढ़ाने के लिए तैयार थे। इसी ने मना कर दिया।‘
जब आप आठ-नौ साल की लड़की से सुबह उठकर स्कूल जाने से पहले घर का सारा काम करवाएँगें और स्कूल से आने के बाद फिर से उसे चूल्हा-चौका और अपने छोटे भाई-बहन को संभालने की ज़िम्मेदारी सौपेंगें तो वो एक समय के बाद पढ़ाई को बोझ ही तो समझेंगीं। बच्ची किस कक्षा में है, उसकी पढ़ाई कैसी चल रही है, घर वालों का इन सबके के प्रति उदासीन रवैया लड़कियों में पढ़ाई करने की रुचि ख़त्म करने लगता है और जब किसी बस्ती या समुदाय की एक बच्ची स्कूल जाना छोड़ती है तो धीरे-धीरे वहाँ की सभी बच्चियों का एक समय के बाद के स्कूल जाना छूटने लगता है।
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क्योंकि न वो अपनी जैसी बच्चियों को स्कूल जाते देखती है और न इसके बारे में सोचती है और एक समय के बाद स्कूल छोड़ना उनके लिए सामान्य हो जाता है। बात सिर्फ़ पढ़ाई तक ही नहीं है। आमतौर पर जैसे ही लड़कियाँ किसी अवसर के तरफ़ अपने कदम बढ़ाती है, उसी समय से वो समाज को खटकने लगती है और उन्हें रोकने के लिए हर तरह के प्रयास किए जाने लगते है। ऐसे में अगर किसी लड़की के साथ किसी भी तरह की कोई दिक़्क़त आती है तो घरवाले उसका सिर्फ़ एक उपाय करते है, ‘वो अवसर छोड़ने का।‘
पितृसत्ता के तहत महिलाओं के लिए निर्धारित ढाँचे को तोड़कर जब महिला अपने विकास के अवसरों की तरफ़ कदम बढ़ाती है तो वो पूरे समाज को खटकती है।
मैंने अक्सर ऐसी बच्चियों को देखा है जो अपने साथ होने वाली यौन हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा पाती है और न ही इसके बारे में अपने घर में बताती है, जिसके चलते कई बार वे बड़ी घटना का शिकार भी हुई है। जब उनकी चुप्पी की वजह उन्हें पूछी गयी तो उन्होंने बताया कि ‘अगर घर में बताया कि मेरे साथ किसी ने कुछ ग़लत किया या ग़लत कहा है तो घर वाले हमें फिर कहीं जाने नहीं देंगें।‘ लड़कियों को ये अच्छे से पता होता है कि ‘सुरक्षा’ के नामपर उन्हीं पर ‘पाबंदी’ लगायी जाएगी।
सोचने वाली बात है कि वो समाज जो शादी से पहले लड़कियों को उनके विकास से जुड़े किसी भी अवसर में उनकी ‘सुरक्षा’ और ‘इज़्ज़त’ के नामपर भाग लेने से रोक लगाने पर इतनी तत्परता और ताक़त दिखाता है, शादी के बाद उसकी लड़की के साथ होने वाली घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ उसकी लड़ाई में वो लड़कियों का साथ क्यों नहीं देता है? वजह और नियत साफ़ है कि ‘पितृसत्ता के तहत महिलाओं के लिए निर्धारित ढाँचे को तोड़कर जब महिला अपने विकास के अवसरों की तरफ़ कदम बढ़ाती है तो वो पूरे समाज को खटकती है। इसलिए उसपर लगाम लगाने के लिए समाज अपनी पूरी ताक़त और नीति लड़कियों के अवसरों को सीमित करने में झोंक देता है।’
वो देश जहां हर मंच से महिला सशक्तिकरण की बात कही जाती है, वहाँ की इस ज़मीनी हक़ीक़त से हम इस अवधारणा के सरोकार को आंक सकते है। हम अक्सर कहते हैं कि समय बदला रहा है। पर जनाब हम तो वैसे ही है। वही महिलाओं को सीख देने, पढ़ाने-बढ़ाने की बात के साथ उनकी सुरक्षा के नामपर उन्हें घर में समेटने की बात करने वाले। इसलिए अब इस बदलाव को थोड़ा बड़े नज़रिए से देखने की ज़रूरत है, जिसमें शक्ति और सुरक्षा सिर्फ़ महिलाओं के पर्याय न हो बल्कि लैंगिक समानता की तर्ज़ पर समाज की ताक़त और नीति इसकी संरचना, सोच और पुरुषों पर भी होनी चाहिए। वरना लड़कियों के लिए विकास के हर अवसर को कतरने की संस्कृति वाले हमारे समाज में महिला सशक्तिकरण हमेशा सवाल के घेरे में होगा।
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तस्वीर साभार : cbn