19वीं सदी में पश्चिमी फ़िल्म उद्योग में ‘व्हाइट वाशिंग’ फ़िल्म की चयन की एक प्रक्रिया थी जिसमें ब्लैक लोगों की भूमिकाओं के लिए श्वेत कलाकारों को चुना जाता था। मेर्रीअम-वेबस्टर के अनुसार व्हाइटवाश ऐसे ढांचे के तहत काम करती थी जिसका लक्ष्य श्वेत लोगों का हित साधना होता था। जैसे, एक ब्लैक किरदार के लिए श्वेत अभिनेता या अभिनेत्री को चुनना। फ़िल्म उद्योगों में यह लंबे समय से चलती आ रही प्रक्रिया थी। यहां तक कि फिल्मों में अलग-अलग नस्लों के किरदार श्वेत अभिनेता-अभिनेत्री आज भी निभाते हैं। अफ्रीकाई और एशियाई किरदारों के लिए अक्सर ही श्वेत कलाकारों को चुनकर उनसे अभिनय करवाया जाता है। हालांकि समय के साथ पश्चिम में नस्लभेद और रंगभेद के ख़िलाफ़ आंदोलन हुए और कुछ हद तक बदलाव आ रहे हैं लेकिन अभी भी ब्लैक लोगों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है और समाज की तरह सिनेमाई दुनिया में भी श्वेत आबादी का प्रभुत्व है। हालांकि वाइटवॉश की ही तर्ज पर आधारित इस तरह का भेदभाव सिर्फ हॉलीवुड तक ही सीमित नहीं है। बॉलीवुड भी इस तरह के विरोधाभासों में जकड़ा हुआ है।
भारतीय मुख्यधारा का सिनेमा अप्रत्याशित रूप से अल्पसंख्यक विरोधी, पितृसत्तात्मक और रंगभेदी है। इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जैसे- ‘बाला’ में एक गोरी अभिनेत्री भूमि पेडनेकर को जबरन काला दिखाया जाता है, जबकि इस भूमिका के लिए डार्क कॉम्प्लेक्सन वाली किसी अभिनेत्री को चुना जा सकता था। वहीं फिल्म लक्ष्म में अक्षय कुमार, जो कि एक प्रिविलेज्ड पुरुष एक्टर है, ट्रांस महिला का किरदार निभा रहे हैं। मणिपुर से महिला मुक्कबाज़ मैरी कॉम के जीवन पर आधारित बायोपिक फ़िल्म ‘मैरी कॉम’ में किसी मणिपुरी अभिनेत्री को न चुनकर प्रियंका चोपड़ा को चुना गया। इस बारे में सवाल उठाने पर अक्सर लोग ‘अभिनय’ या ‘मेरिट’ का हवाला देते हुए भटकाने की कोशिश करते हैं कि चुना गया व्यक्ति अन्य विकल्पों की बजाय उक्त भूमिका को निभाने के लिए ज़्यादा सफ़ल या योग्य है। हालांकि यह उसी तरह का तर्क है जिसके तहत उच्च वर्गीय लोग नौकरियों में अपनी बहुसंख्यक और समाज में अपने प्रभुत्व के पीछे ‘अपनी योग्यता’ अथवा ‘मेरिट’ का होना बताते हैं और तमाम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों को खारिज़ करते हुए जातिगत भेदभाव को बनाए रखने की पक्षधरता करते हैं।
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समकालीन समय में देखें तो अलग-अलग पहचानों के लोग अपने आप को खुलकर अभिव्यक्त कर रहे हैं और बने बनाए सामाजिक ढांचे को चुनौती भी दे रहे हैं लेकिन निर्माता उन्हें नकारते हुए पहले से सफ़ल लोगों को चुन रहे हैं। ऐसा दो कारणों से हो रहा है- पहला इसलिए कि वे लोग, जो स्थापित चेहरे हैं जनता के बीच उनकी पहुंच है और इसलिए पूंजीवाद उन्हें बाज़ार में सहज स्वीकार्य चेहरे और कहानी के रूप में परोसता है। इससे सीधे तौर पर उसका फ़ायदा होता है, क्योंकि समाज की वैचारिकी में उससे मिले-जुले तत्व पहले से ही मौजूद होते हैं। दूसरा, सिनेमा पूंजीवाद के टूल की तरह काम कर रहा है। पूंजीवाद कुछ भी ऐसा नहीं दिखाता जिससे ‘बेस’ या ‘सुपर स्ट्रक्चर’ में कोई बड़ा बदलाव आए। न ही ऐसे विचारों को बढ़ावा दिया जाता है, जो बने बनाए ढांचे में कोई बड़ा बदलाव लेकर आए क्योंकि कोई बड़ा क्रांतिकारी बदलाव उसके अपने अस्तित्व के लिए ही खतरा होता है। पूंजीवाद का पूरा बाज़ार ‘पॉपुलर’ विचारों पर आधारित है। वह बहुसंख्यक संस्कृति का सहारा लेकर कई बार ‘पॉपुलर’ विचार गढ़ता भी है, इसलिए वह अल्पसंख्यकों की बात पुख़्ता तौर पर करते हुए अपनी ज़मीन खतरे में नहीं डालना चाहता।
बॉलीवुड ने शुरुआत से ही भारतीय समाज में स्त्री के लिए तय की गई परिभाषा को स्वीकार करते हुए उन्हीं आधारों पर अभिनेत्रियों का चयन किया। अभिनेत्री बनने के लिए गोरापन और छरहरी काया का होना ज़रूरी माना जाता है। सिनेमा के शुरुआती दौर से आज की तुलना करने पर पता चलता है कि ये मानक अभी भी जस का तस बने हुए हैं। दरअसल, भारतीय सिनेमा गोरेपन से ‘ऑब्सेस्ड’ है। यह नस्लीय भेदभाव करता है। अभिनेत्री और प्रोड्यूसर नंदिता दास बॉलीवुड में प्रचलित रंग आधारित पूर्वाग्रह के बारे में आलोचनात्मक रवैया मुखरता से रखती हैं। वे 2013 से पहले ‘इंडिया गॉट कलर’ नाम से एक अभियान चला रही हैं। 2019 में इसी के तहत एक म्यूज़िक वीडियो जारी किया था, जो चमड़ी के रंग के आधार पर होने वाले भेदभाव पर व्यंग्य था। वे अक्सर इस बारे में बात करती हैं कि कैसे उनपर छपने वाली खबरों में उनके रंग ‘डार्क एंड डस्की’ का हमेशा ही उल्लेख किया जाता है मानो यह सिद्ध करना हो कि वह सांवली है फिर भी अभिनेत्री है।’
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दरअसल, गोरेपन को भारतीयों का रवैया प्राचीन विचारों से नियंत्रित है। इस बारे में समाजशास्त्री संजय श्रीवास्तव, जो कि दिल्ली में स्थित आर्थिक वृद्धि संस्थान में कार्यरत हैं। उनका कहना है कि यह औपनिवेशिक काल से पहले का है और जाति से संबंधित है। हिंदू धार्मिक ग्रन्थ नस्लीय रूढ़िवाद से भरा पड़ा है। इनमें निचली जातियां आमतौर पर काले और बदसूरत दिखाए गए हैं। काला होना यानी दिहाड़ी मजदूर होना, दिनभर धूप में काम करना, वहीं गोरी चमड़ी ‘क्लास’ का प्रतीक होती है। बाद में 18वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों के आने के बाद यह पूर्वाग्रह और अधिक गहरा हुआ। अंग्रेज़ी मूल की रंगत के जो जितना ज़्यादा क़रीब होता, नस्लीय क्रमानुक्रम में उसका स्थान उतना ही ऊंचा रहता था।
भारतीय मुख्यधारा का सिनेमा अप्रत्याशित रूप से अल्पसंख्यक विरोधी, पितृसत्तात्मक और रंगभेदी है। इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जैसे- ‘बाला’ में एक गोरी अभिनेत्री भूमि पेडनेकर को जबरन काला दिखाया जाता है, जबकि इस भूमिका के लिए डार्क कॉम्प्लेक्सन वाली किसी अभिनेत्री को चुना जा सकता था।
दरअसल, देखा जाए तो बॉलीवुड पारंपरिक भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करता है। टीवी आने से इसकी पहुंच समाज के कोने-कोने तक हो गई है। पूंजीवाद ने इसकी नस पकड़ ली है। भारतीय समाज आज के उत्तर-आधुनिक युग में भी धर्म और धार्मिक प्रवृत्तियों से आज़ाद नहीं हुआ है। यहां की आबादी के जीवन में धर्म बहुत बड़ी भूमिका में मौजूद है। यह केवल स्त्री-पुरुष संबंधों को ही वैध संबंध मानता है। इसके अलावा सभी तरह के संबंध अमान्य हैं, अप्राकृतिक हैं। कुछ फिल्मों को छोड़कर शायद ही बॉलीवुड ने एलजीबीटीक्यूआई संबंधों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश की है। ऐसे वैचारिकी वाले समाज में ‘अलीगढ़’ जैसी फिल्में नहीं चलतीं, जबकि इसमें अभिनय करने वाले अभिनेताओं की मुख्यधारा में व्यापक पहुंच है और उनकी कॉमर्शियल फिल्में ख़ूब कमाई करती हैं। दूसरी बात,भारतीय फिल्म उद्योग ट्रांस समुदाय को को गलत तरीके और अक्सर मज़ाक के रूप में पेश करती हैं। मुख्यधारा की अधिकतर फिल्में गे या ट्रांस समुदाय को लेकर ‘स्टीरियोटाइप’ गढ़ती हैं, उन्हें इस तरह का दिखाया जाता है कि वे जबरन अन्य पुरुषों को देखते हुए उनपर हावी होते हैं। उनकी बोलचाल और शरीर के हाव-भाव और पहनावे को अजीब दिखाया जाता है जबकि असलियत में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, वे अन्य लोगों की तरह ही सामान्य लोग होते हैं। इतने बंधन और सामाजिक शोषण के बीच भी ट्रांस समुदाय के लोग उभरकर सामने आ रहे हैं। वैकल्पिक सिनेमाई माध्यमों के आने के बाद ऐसी फिल्में बनाई जा रही हैं, जिनमें पहले की स्थापित मिथ्या ट्रांस छवि को हटाकर वास्तविक छवि दर्शकों के सामने रखी जा रही है, हालांकि फिर भी वैचारिकी बदलने में लंबा समय लगेगा।
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बॉलीवुड पर उत्तर-भारत का विशेष प्रभाव है। उत्तर-भारत असल में समूचे भारत का सबसे प्रभुत्व संपन्न क्षेत्र है। यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से सत्ता का केंद्र रहा है। आज भी देश की राजनीति उत्तर-भारत या हिंदी-भाषी क्षेत्रों से ही नियंत्रित है। इसकी संस्कृति ही आज के दक्षिणपंथ की राजनीति में पूंजीवाद के सहयोग से भारतीय राष्ट्रवाद का पर्याय बन रही है। इसमें विरोधाभास यह है कि इन सब के बावजूद भी शिक्षा, रोज़गार, लैंगिक संवेदनशीलता जैसे ज़रूरी क्षेत्रों में यह सबसे पिछड़ा क्षेत्र है। शिक्षा की कमी के कारण पूर्वाग्रह मौजूद हैं और वैज्ञानिक सोच का अभाव है। यहां के लोगों की मान्यताएं, परंपरा और प्रतिष्ठा छोटी सी बात पर आहत हो जाती है। आबादी अधिक होने के नाते पूंजीवाद नियंत्रित भारतीय सिनेमा में ऐसी फिल्में नहीं बनतीं, जिससे उत्तर-भारतीय जनमानस असन्तुष्ट हो। मिसाल ले लीजिए, अगर मैरी कॉम की बायोपिक फ़िल्म में कोई मणिपुरी अभिनेत्री होती, तो क्या वह वैसी हिंदी बोलती, जैसी प्रियंका चोपड़ा बोलती है? असल में, यहां प्रमुख बायोपिक बनाना या मैरी कॉम और उनके संघर्ष दर्शाना नहीं है। यहां प्रमुख है फ़िल्म का अधिक से अधिक पैसा बटोरना और वह एक चेहरे के दम पर होगा, वह चेहरा उत्तर-भारतीय हिंदी भाषी जनता द्वारा स्वीकार्य चेहरा होना चाहिए।
बॉलीवुड में विदेशी रूप-रेखा वाली अभिनेत्रियों को भी स्वीकार नहीं किया जाता, यह भेदभाव उसी आधार पर होता है। कल्कि जैसी बेहतरीन अभिनेत्री को भी मुख्यधारा की गिनी-चुनी फिल्मों में लिया जाता है। यह भारतीय जनमानस और बॉलीवुड में निहित विरोधाभास ही हैं। फिर भी वैकल्पिक ओटीटी प्लेटफॉर्म्स आने के बाद कई सारे प्रयोग हो रहे हैं। महिलाएं भी सिनेमा के तकनीकी भाग में शामिल हो रही हैं। प्रगतिशील लोग लैंगिक संवेदनशीलता पर लगातार बोल-लिख रहे हैं। मुंबई के एक फिल्मनिर्माता फ़राज़ आरिफ़ अंसारी ने 27 अक्टूबर,2018 में सीधे ट्विटर का सहारा लेते हुए यह लिखा कि उन्हें उनकी आने वाली फिल्म ‘सब्र’ में मुख्य भूमिका के लिए 60 वर्षीया एक ट्रांस महिला की आवश्यकता है। इस ट्वीट को सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कई देशों के एक्टर्स और प्रगतिशील लोगों द्वारा सराहा गया। उस दौरान यह मालूम हुआ कि ट्रांस समुदाय के तमाम युवा फ़िल्मी जगत में अभिनय करने के इच्छुक हैं। दक्षिणपंथी राजनीति के उभार होने और पूंजीवाद के पांव पसारने के कारण आज के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न अल्पसंख्यक पहचानों की हालत बदतर है, फिर भी फ़राज़ आरिज़ अंसारी जैसे निर्माताओं और तमाम प्रगतिशील लोग अपने प्रयासों से इस दिशा में एक उम्मीद जगाए रखते हैं।
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