इतिहास दुर्गा देवी : क्रांतिकारी महिला जिसने निभाई थी आज़ादी की लड़ाई में अहम भूमिका | #IndianWomenInHistory

दुर्गा देवी : क्रांतिकारी महिला जिसने निभाई थी आज़ादी की लड़ाई में अहम भूमिका | #IndianWomenInHistory

दुर्गा देवी अपनी पार्टी के लिए हथियारों के इंतजाम करने में भी अहम भूमिका निभाती थी। उन्होंने 9 अक्टूबर, 1930 को गवर्नर हैली पर गोली चला दी।

आज़ादी की लड़ाई में पुरुषों की भूमिका का ज़िक्र अक्सर ही किया जाता है लेकिन इन सभी में कहीं छिप जाती हैं तो वे महिलाएं जिन्होंने उस समय के कट्टर रूढ़िवादी परंपरा के बावजूद अपने क्रांतिकारी रूप को प्रदर्शित किया और बड़े ही साहस के साथ वह कर दिखाया जिसकी कल्पना शायद पुरुष स्वतंत्रता सेनानियों ने भी नहीं की थी। स्वतंत्रता संघर्ष में अपनी भूमिका अदा करने वाली ऐसी बहुत सी महिला सुधारक रही जिनमें से एक हैं दुर्गा देवी जिन्हें ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से भी बुलाया जाता था। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन (HSRA) के क्रांतिकारियों सुखदेव थापर, भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और अन्य सदस्यों के साथ मिलकर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दुर्गा देवी ने न सिर्फ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जारी स्वतंत्रता संग्राम में एक अहम भूमिका निभाई थी बल्कि इस लड़ाई में महिलाओं की भागीदारी को भी एक दिशा दी थी।

दुर्गा देवी का जन्‍म 7 अक्टूबर, 1902 को शहजादपुर गांव में पंडित बांके बिहारी के यहां हुआ था। दुर्गा देवी के पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे। 11 साल की छोटी सी उम्र में ही बंगाल की रहने वाली दुर्गा देवी की शादी प्रसिद्ध क्रांतिकारी और भगतसिंह और राजगुरु के सहयोगी भगवती चरण वोहरा से हो गई थी। उनके पति ने अपनी पत्नी को वे सारे अधिकार दिए, जिनकी वह एक इंसान होने के नाते हकदार थी। जल्दी ही दुर्गा देवी अपने पति के कार्यों में सहयोग देने लगी। उनका घर क्रांतिकारियों का आश्रयस्थल था इसलिए सभी क्रांतिकारी उन्हें दुर्गा भाभी कहने लगे और यही उनका यही नाम प्रसिद्ध हो गया। 

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भगवती चरण वोहरा क्रांतिकारी आंदोलनों में अक्सर शामिल रहते थे। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। यह दाखिला न सिर्फ भगवती चरण वोहरा, बल्कि दुर्गा देवी की जिंदगी को भी पूरी तरह से बदलकर रखने वाला था क्योंकि यहीं नेशनल कॉलेज में आकर वोहरा भगत सिंह और सुखदेव से मिले। वोहरा ने दुर्गा देवी को पढ़ने के लिए प्रोत्साहत किया, इसी के साथ नौजवान भारत सभा और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन का भी हिस्सा बनाया। दुर्गा देवी के पति भगवती चरण वोहरा 28 मई 1930 को रावी नदी के किनारे पर अपने कुछ क्रांतिकारियों के साथ बम बनाने में लगे हुए थे। उसी दौरान वोहरा बम का एक्सपेरिमेंट करते वक्त शहीद हो गए। पति की मौत के बाद दुर्गा देवी ने टीचर के तौर पर काम किया।

दुर्गा देवी अपनी पार्टी के लिए हथियारों के इंतजाम करने में भी अहम भूमिका निभाती थी। दुर्गा देवी ने 9 अक्टूबर, 1930 को गवर्नर हैली पर गोली चला दी थी। इस दौरान वह तो बच गए लेक‍िन उनका एक सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। इसके बाद दुर्गा देवी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और वह 3 सालों तक जेल में रही थी। दुर्गा देवी पिस्तौल चलाने में माहि‍र थी। अंग्रेजों से लड़ते समय चंद्रशेखर आजाद ने जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी वह पिस्तौल उन्‍हें दुर्गा भाभी ने ही लाकर दी थी।

19 दिसंबर 1928 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू ने असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन सॉर्डर्स की हत्या कर दी थी जो लाला लाजपत राय की हत्या का ज़िम्मेदार था। इसके बाद पुलिस इन तीनों की खोज में जुट गई। पुलिस के छापों के बीच उन्होंने दुर्गा भाभी को मदद के लिए याद किया। अपनी सुरक्षा की चिंता न करते हुए दुर्गा ने न सिर्फ अपने पति द्वारा आपातकाल में इस्तेमाल के लिए दिए गए पैसे उन्हें देदिए बल्कि वह भगत सिंह की पत्नी की भूमिका निभाने के लिए भी तैयार हो गई ताकि वे लाहौर से आसानी से निकल सकें। उन्होंने कलकत्ता के लिए ट्रेन पकड़ी और दुर्गा के साहस के कारण वे सब अंग्रेज़ों की नाक के नीचे से सफतलापूर्वक निकलने में कामयाब रहे।

दुर्गा देवी अपनी पार्टी के लिए हथियारों के इंतजाम करने में भी अहम भूमिका निभाती थी। दुर्गा देवी ने 9 अक्टूबर, 1930 को गवर्नर हैली पर गोली चला दी थी।

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दुर्गा के पति वोहरा, साथी भगत सिंह और सुखदेव की मृत्यु के बाद वह अकेलेपन का शिकार हुई क्योंकि उस समय के नेहरू, गांधी के अहिंसा के विचार क्रांतिकारी दुर्गा के विचारों से ज़रा भी मेल नहीं खाते थे। अपने बेटे के साथ गुमनामी का जीवन जीने लगी और बेटे को पालन-पोषण में लग गई। 1931 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को मिली फांसी के बाद संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपबल्किन एसोशिएशन कमजोर पड़ने लगा था। संगठन के खत्म होने के बाद भी दुर्गा देवी ने समाज के लिए अपना संघर्ष जारी रखा। उन्होंने मद्रास से मांटेसरी सिस्टम की ट्रेनिंग ली और 1940 में लखनऊ में एक मांटेसरी स्कूल की नींव रखी। इस दौरान वो देश के कई हिस्सों में रही। 1975 में इस स्कूल के बंद पड़ने के बाद वो गाजियाबाद आ गई और वहीं पर अपनी आखिरी सांसे लीं।उनकी मृत्यु 92 साल की उम्र में 15 अक्टूबर 1999 हो गई थी।

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