भारतीय समाज के सबसे पसंदीदा संस्थानों में से एक है हेट्रोसेक्शुल शादी। भारत में दो लोगों को विवाह के बंधन में बंधने के लिए उनके बीच प्रेम और आपसी रज़ामंदी जरूरी चीज़ें नहीं होती। इस रिश्ते को परिवार, नाते-रिश्तेदारों और समाज के बनाए जातिगत, आर्थिक और अन्य कई सामाजिक ढांचों में फिट बैठना पड़ता है। पितृसतात्मक समाज को पिता की सत्ता क़ायम रखने वाला यह वैवाहिक संस्थान हमेशा भाता रहा है। इस संस्थान को चुनौती देते हुए आते हैं लिव-इन रिलेशनशिप। लिव-इन रिश्ते में दो वयस्क आपसी सहमति से एक छत के नीचे रहते हैं बिना किसी वैवाहिक बंधन में बंधे। वे एक दूसरे के रोमैंटिक साथी होते हैं। इस रिश्ते में हेट्रोसेक्शुअल जोड़ा या समलैंगिक/क्वीयर जोड़ा हो सकता है। लिव इन रिलेशनशिप की नींव हर प्रेम के भावनात्मक उतार-चढ़ाव को महसूस करते हुए एक साथ रहने की इच्छा मानी जा सकती है। दोनों लोगों के बीच शारीरिक संबंध होना न होना उन का आपसी मुद्दा है। जैसे किसी अन्य रोमेंटिक रिश्ते में होता है।
लिव इन रिलेशनशिप का सामाजिक गणित
लिव-इन रिलेशनशिप सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर शादी से अलग है। शादी से विपरीत दो लोगों के साथ रहने के इस फैसले में परिवार का दख़ल ज़रूरी नहीं है। ज्यादातर लिव-इन जोड़े परिवार से इस बात को छिपाकर रखने में सुरक्षित महसूस करते हैं। वे परिवार द्वारा उनके रिश्ते को खारिज़ कर देने या परिवार की सहमति के मामले में जो कि बहुत कम ही देखने मिलता है, उसी साथी से शादी कर लेने के मानसिक दवाब से दूर रहना चाहते हैं। ख़ासकर छोटे शहरों, क़स्बों, ग्रामीण इलाकों से बेहतर जीवन के विकल्पों की तलाश में मेट्रो शहर में आई नई पीढ़ी, उच्च शिक्षा लेने के दौरान या बाद या नौकरी करते हुए भी एक बड़ा ‘शुद्धतावादी भार’ उठा रहे होते हैं। ये ‘शुद्धतावादी’ सोच उनके घर-परिवार पर की गई उनकी परवरिश का बड़ा हिस्सा होती है। वे अक्सर इस सोच और प्रगतिशील तरीक़े से प्रेम निभाने के बीच संघर्ष करते हैं। इसी कारण उन्हें लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में घर परिवार को बताना सहज नहीं लगता।
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लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली औरतों के ऊपर अक्सर पुरुष साथी के लिए किए जाने वाले धार्मिक उपवास, तीज-त्यौहार निभाने का कोई सामाजिक दबाव नहीं होता। हालांकि परवरिश के नतीज़े के तौर पर कई बार वे अपने लिव-इन साथी के लिए व्रत उपवास कर सकती हैं लेकिन यह भी कंडिशनिंग की वजह से ही होता है। शादी में पतिव्रता होना ज़रूरी नियम की तरह होता है। शहरी भारत में कई जोड़े लिव-इन में रहना एक अच्छा विकल्प मानते हैं। हालांकि कई बार उन्हें अपने इस रिश्ते के कारण घर तलाशने में परेशानी होती है। शहरी मकान-मालिक उनके प्रेम को स्वागत की भावना से नहीं देखते। लिव-इन में रहने वाले जोड़े जिस बात को प्रमुखता देते हैं वो है कम्पेटिबिलिटी यानी आपसी समझ।
लिव-इन रिलेशनशिप सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर शादी से अलग है। शादी से विपरीत दो लोगों के साथ रहने के इस फैसले में परिवार का दख़ल ज़रूरी नहीं है।
प्रेम में होने के अलावा एक दूसरे के साथ रहते हुए एक दूसरे की छोटी-छोटी लेकिन महवपूर्ण बातें या आदतें समझते हैं। ये आदतें, विचार राजनीतिक समझ, आर्थिक फैसलों, जीवन को देखने का नज़रिया जैसे बिंदुओं से जुड़ी हो सकती हैं। एक ज़रूरी बात यह भी कि यौन रूप से दोनों एक दूसरे को अपने लिए कितना मुनासिब पाते हैं। इन सब बातों को जानने के लिए उन्हें कितने दिन साथ रहना है यह पूरी तरह दोनों वस्यकों पर निर्भर करता है। वे चाहें तो लिव-इन के बाद शादी के बंधन में बंधे, उम्र भर लिव-इन में रहना चुने, प्रेम में रहें पर लिव-इन से अलग हो जाएं, साथ ना रहना चाहें, लिव-इन रिश्ते का परिणाम कुछ भी हो यह उन दिनों का आपसी फैसला होता है। यह फैसला कुछ भी हो सकता है। इसका नतीज़ा शादी हो तभी लिव-इन सफल माना जाएगा ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं होती। लिव-इन रिलेशनशिप दो लोगों प्रेम की सफ़लता की सामान्य, चलाऊ, परिभाषा को भी ज्यादा विस्तृत करती है। हर सफ़ल प्रेम शादी में बदले इस सोच को बदलती है। प्रेम में साथ रहते हुए उस घर से निकलने को ‘खुदगर्ज़ी’ मानने से इनकार करती है। यह रोज़ के प्रेम और आपसी तालमेल पर चलती है।
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लिव-इन रिलेशनशिप से निकलना शादी की तरह नहीं होता। इसमें तलाक़ का कोई प्रावधान नहीं है। शादी के संस्थान को भारतीय समाज इतना आंख मूंद कर मानता है कि वैवाहिक यौन हिंसा यानी पति द्वारा पत्नी का मैरिटल रेप को एक अपराध मानने तक में इन्हें परेशानी है। लिव-इन रिलेशनशिप आपसी सहमति की बुनियाद पर प्रेम में हर कदम और हर दिन को बिना किसी संस्थागत ढांचे में बंधे जीना चाहता है, इसे समाज तिरस्कृत नज़रों से देखता रहा है।
लिव-इन रिलेशनशिप और कानूनी बातें
हालांकि यह रिश्ता अपनी बुनियाद और प्रगति के दृष्टिकोण से खुले विचारों पर टिका है लेकिन इससे जुड़ी क़ानूनी बातें जाननी अहम हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के मुताबिक यह रिश्ता गैरकानूनी नहीं है जब लिव-इन रिलेशनशिप दोनों लोगों की इच्छा से क़ायम रहता है इसमें क़ानून का बहुत दख़ल जरूरी नहीं लगता। कई बार लिव-इन रिलेशनशिप में भी महिलाएं हिंसा का सामना करती हैं इसलिए इसका कानूनी पक्ष भी ज़रूरी है क्योंकि हमारा सामाजिक परिवेश ही पुरूष की सत्ता को पोषित करता है, इस रिश्ते में भी ऐसी घटनाएं होती ही हैं। किसी लिव इन रिलेशनशिप में अगर महिला के साथ हिंसा हो रही है तो घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005 के तरह वह कानूनी मदद पा सकती है। साल 2013 के उच्चतम न्यायालय आज ऐतिहासिक फैसले में महिलाओं के साथ हो रही घरेलू हिंसा की स्थिति में लिव-इन रिलेशनशिप पर गाइडलाइंस बनाते हुए “शादी के प्रकृति का रिश्ता” की अभिव्यक्ति में रखा ताकि इन रिश्तों में रह रहीं महिलाएं और इनमें जन्मे बच्चे सुरक्षित रहें।
तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर महिला और पुरुष एक छत के नीचे जोड़े की तरह कई सालों से रह रहे हैं तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम के सेक्शन 114 के तहत उन्हें पति पत्नी मानते हुए उस रिश्ते से जन्मे बच्चे को नाजायज़ नहीं माना जाएगा। लिव-इन रिलेशनशिप को अगर हेट्रोसेक्सुअल रिलेशनशिप के अलावा देखें तो अभी भी हम काफी पिछड़े हुए नज़र आते हैं। जो भी प्रावधान लिव-इन जोड़े या उसमें रहने वाली महिला के लिए हैं उन्हें हेट्रोसेक्सुअल रिश्ते की तरह देखा जाता है। समलैंगिकता को भारत में आपराधिक गतिविधियों की श्रेणी से साल 2018 में हटाने के बावजूद कई अहम क़ानूनों में उनका कोई ज़िक्र नहीं होता। इसी बीच कुछ अच्छी खबरें भी हैं। जून 2020 में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक फैसले में समलैंगिक जोड़े को लिव-इन में रहने की कानूनी सहमति दी क्योंकि समलैंगिक विवाह को लेकर भारत में क़ानून ठोंस और साफ़ नहीं है, अदालत ने कहा है, “दोनों पक्ष एक लिंग के हों तो आपसी सहमति से साथ रह सकते हैं, भले ही वे वैवाहिक रिश्ते में बंध नहीं सकते।” इस मामले में दो महिलाएं साल 2016 से प्रेम में थीं। उनमें से एक महिला के मुताबिक दूसरी साथी के परिवार ने उसे ज़बरन घर में कैद कर रखा था।
महिलाओं को अपने घर से लेकर वैवाहिक रिश्ते में अपने मन से चुनाव करने की आज़ादी नहीं मिलती है क्योंकि परिवार और विवाह दोनों ही बड़े मजबूत सामाजिक संस्थान हैं। लिव-इन रिलेशनशिप इस मुकाबले महिलाओं को ज्यादा स्पेस देता है। उन्हें कई सामाजिक ढकोसलों को नकारने का स्पेस, उनसे मुक्त रहने का स्पेस। साथ ही शादी से पहले सहमति से किए गए सेक्स की बात को भी समाज लड़की की ‘इज़्ज़त’ से जोड़ता है। विवाह के बाद बच्चे पैदा करने का महिलाओं पर पारिवारिक दवाब आता है। ग्रामीण भारत में कई उदाहरण मिलेंगे जहां पत्नी से बच्चा न होने पर पति की मेडिकल जांच होने की जगह औरत को बांझ का नाम देकर अपमानित किया जाता है। कई ऐसे परिवार जहां भले ही प्रेम विवाह हुआ हो लेकिन आधार वही होता है। दहेज़ के लालच में होने वाली कई शादियां केवल आर्थिक लेनदेन पर हुए समझौते जैसी होती हैं। हालांकि लिव-इन रिलेशनशिप को जीने वाले दोनों लोगों द्वारा अभी तक केवल बड़े शहरों में रोजमर्रा के स्तर पर थोड़ी सहजता हो पायी है। छोटे कस्बों और गांव में इसकी पहुंच बहुत दूर है।
विवाह और उनसे जुड़े सभी कुरीतियों को विवाह के अंतर चुनौती देने के साथ साथ सामाजिक रूप से इस संस्थान में बिना आए प्रेम द्वारा चुनौती दी जानी चाहिए। लिव-इन प्रेम एक ऐसी ही यात्रा है। इसलिए जिस जगह इसका क़ायम होना जरा भी सम्भव हो, उसे स्वीकृति मिलनी चाहिए। फ़िल्मी प्रेम गीत पर दीवाना हो जाने वाला हमारा समाज जब लिव-इन में रहने वाले किसी भी इतरलिंगी या समलैंगिक जोड़े से द्वेष करना बंद करेगा, उन्हें शादी के रिश्ते में बंधने की सलाह देने की जगह उन के फैसले का सम्मान करेगा, उस दिन सारे प्रेम गीत सफ़ल माने जाएंगे।
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तस्वीर : श्रेया टिंगल