भारत के इतिहास में अनसूया साराभाई उन नामों में से है जिनकी बार-बार चर्चा की जानी चाहिए। श्रम आंदोलन के साथ-साथ लैंगिकता समानता के अधिकारों के लिए भारत में हुए संघर्षों के दृष्टिकोण से उनके जीवन की कहानी बेहद ज़रूरी है। उन के काम और शब्द तमाम लोगों को एक बेहतर और बराबरी की दुनिया बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्हें प्यार से ‘मोटा बेन’ जिसका मतलब गुजराती में ‘बड़ी बहन’ होता है, कहकर पुकारा जाता था। अनसूया का जन्म साल 1885 में गुजरात के अहमदाबाद के एक संभ्रांत परिवार में हुआ। जब वह नौ साल की थी तब उनके माता-पिता का देहांत हो गया। उनके चाचा चिमनभाई साराभाई ने उन्हें पाला। उस समय की अन्य औरतों के तरह उन्हें अपने चाचा के साथ रहते हुए पढ़ने-लिखने की आज़ादी नहीं थी।
उस दौर की परंपरा के अनुसार, कम उम्र में अनसूया की शादी हो गई। जब अनसूया तेरह साल की थी, तभी उनका विवाह हो गया था लेकिन उनकी शादी अधिक समय तक चली नहीं। तलाक लेकर घर लौटी अनसूया अब पढ़ना चाहती थी। उनके भाई अम्बालाल ने उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और आगे की पढ़ाई के लिए लंदन भेज दिया। उन्हें मेडिकल की पढ़ाई के लिए भेजा गया था लेकिन उनका दाख़िला ‘लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स’ में हुआ। वह साल था 1912। भविष्य में अनसूया और उनके चहेते भाई अम्बालाल अपनी विचारधाराओं और उसूलों के कारण विरोधी बिंदुओं पर खड़े आमने-सामने होने वाले थे। इसकी शुरुआत हुई जब लंदन में अनसूया सामाजिक न्याय के विचार से परिचित हुई। अनसूया समाजवाद की फिलोसॉफी से बेहद प्रभावित थी। उस दौर में ब्रिटेन में फेबियन सोसाइटी नाम का एक समूह हुआ करता था जो गणतांत्रिक समाजवाद की बात करता था। अनसूया के विचारों पर उनके लंदन प्रवास का गहरा असर पड़ रहा था। वे वहां ब्रितानी महिला आंदोलन का भी हिस्सा रही। यह आंदोलन महिलाओं के मतदान के अधिकार की मांग कर रहा था। बाल विवाह का सामना कर चुकी अनसूया अपने जीवन को नए तरह से देख रही थी, सीख रही थी।
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पारिवारिक समस्या के कारण साल 1913 में वह भारत लौट आई। हाशिये पर रह गए समाज के लोगों के लिए काम करना उन्हें व्यक्तिगत तौर पर ज़रूरी समझने लगी थी। पहला कदम उठाते हुए उन्होंने ग़रीब बच्चों के लिए स्कूल खोला। पढ़ाने के साथ-साथ अनसूया उन्हें नहलाती, उनकी सफ़ाई का ध्यान रखती। अन्य सामाजिक कार्यक्रम जैसे महिलाओं और लड़कियों के लिये टॉयलेट की व्यवस्था करना, प्रसूति गृह बनाना इत्यादि में वह शामिल रहीं। उनके ज़्यादातर कार्यक्रम कालिको मिल के परिसर में रहने वाली महिला श्रमिकों और उनके बच्चों के लिए थे। कालिको मिल उनके परिवार का ही कारखाना था। इन सब एक बीच वह विशेष घटना घटी जिसने अनसूया पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उनके शब्दों में, “एक सुबह मैं कंपाउंड में बैठी एक बच्चे के बाल में कंघी कर रही थी जब मैंने लगभग बेहोशी की हालत में वहां से 15 श्रमिकों को गुज़रते देखा। मैं उन्हें नहीं जानती थी लेकिन मैंने उन्हें पुकारा। मैंने पूछा, “क्या बात है? आप इतने उदास थके हुए लग रहे हैं?”उन्होंने कहा, “हम अभी कभी लगातार 36 घंटे काम कर के छूटे हैं। हमने दो रातें और एक दिन बिना रुके काम किया है और अब हम घर जा रहे हैं।” अनसूया यह सुनकर सन्न रह गई। जैसे-जैसे वह मिल के मजदूरों के की हालत, उनके काम करने के अंतराल, ग़रीबी और उत्पीड़न के बारे में अधिक जानने लगीं, उनके लिए लड़ने का उनका संकल्प और दृढ़ होता गया। वह उन मजदूरों को संगठित करना चाहती थीं।
अनसूया साराभाई ने अपने पीछे एक महत्वपूर्ण संदेश छोड़ा। अपने विचारों और संघर्षों में किसी को अनादर भी नहीं करना और उनके सामने घुटने भी नहीं टेकना। भले ही वो उन विचारों के बनने में मदद करने वाला कोई क़रीबी ही क्यों न हो।
साल 1914 में जब अहमदाबाद प्लेग महामारी की चपेट में आ गया था तब मिल के मजदूरों ने अनसूया से मदद मांगी। अनसूया ने निवेदन कबूलते हुए साबरमती नदी तट पर मजदूरों की पहली सभा बुलाई। सभा में तय होने के बाद मिल मजदूरों की तरफ़ से उनके लिए बेहतर सुविधाएं और ज्यादा मजदूरी देने की मांग रखी गई। उस समय मिल मालिकों के कमिटी के अध्यक्ष उनके भाई अम्बालाल साराभाई थे। दोनों वैचारिक रूप से प्रतिद्वंदी बन गए थे। भाई से बिगाड़ के डर के कारण पीछे नहीं हटते हुए अनसूया ने मिल मालिकों को मांगें पूरी करने के लिए 48 घंटे का समय दिया वरना मिल मजदूर हड़ताल करने को तैयार थे। गांधी जी को इस घटनाक्रम के बारे में ख़बर थी। उन्होंने मिल मालिकों को मजदूरों की बात मानने को कहते हुए चिट्ठी लिखी थी। 21 दिनों के हड़ताल के बाद मिल मजदूरों से बातचीत के बाद मिल मालिकों ने मजदूरी बढ़ाने की बात को मान लिया। शहर के नागरिक ये देखकर आश्चर्य में पड़ जाते कि मजदूरों ने कितने अनुशासित तरीक़े से इस हड़ताल का आयोजन किया था। इस तरह अनसूया के नेतृत्व में भारत में ट्रेड यूनियन की स्थापना के बीज पड़े।
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अनसूया रौलट बिल के ख़िलाफ़ महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में खेड़ा सत्याग्रह का मुख्य हिस्सा रही थी। साल 1918 में अहमदाबाद के मिल मजदूर मजदूरी की रक़म में 35 फ़ीसद की बढ़ोतरी की जायज़ मांग कर रहे थे। मिल मालिक 20 फ़ीसद की बढ़ोतरी तक राज़ी थे। महात्मा गांधी के साथ अनसूया दस हजार से ज्यादा मजदूरों द्वारा किये गए शांतिपूर्ण हड़ताल का हिस्सा बनीं। आखिरकार उन्हें कामयाबी तब मिली जब 12 मार्च, 1918 को महात्मा गांधी ने आमरण अनशन का फैसला लिया। इस घटना ने गुजरात के सबसे पुराने मजदूर यूनियन, मजदूर महाजन संघ की नींव रखी। 25 फरवरी, 1920 में इसकी स्थापना हुई थी। यूनियन की पहली सभा में गांधी जी ने अनसूया को इस संघ का आजीवन अध्यक्ष घोषित कर दिया था। साल 1927 में मिल में काम करने वाले श्रमिकों की बेटियों की शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए स्कूल खोला। अनसूया साराभाई के नेतृत्व में मिल मालिकों के विरोध में कार्य करने के बजाय मुख्य रूप से यूनियन मजदूरों की स्थिति बेहतर करने के लिए काम करता रहा। वह मजदूरों के प्रति समर्पित थी, मिल मालिकों से बातचीत के दरवाज़े खुले रखने में मानती थीं। वह गांधीवादी विचारों की अनुयायी थी।
11 नवंबर 1972 को ‘मोटाबेन’ ने दुनिया को अलविदा कह दिया। अनसूया साराभाई ने अपने पीछे एक महत्वपूर्ण संदेश छोड़ा। अपने विचारों और संघर्षों में किसी को अनादर भी नहीं करना और उनके सामने घुटने भी नहीं टेकना। भले ही वो उन विचारों के बनने में मदद करने वाला कोई क़रीबी ही क्यों न हो। जैसे उनके लिए भाई अम्बालाल रहे थे। साथ ही अपनी पैदाइश के साथ मिली सुख सुविधाओं के बाहर झाँकर दुनिया की समस्याओं को समझना और उसके लिए कुछ कर पाना। भारतीय महिलाओं के इतिहास में इस नाम को अपना नाम स्थान बना रहेगा।
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