राहुल जी का फ़ोन आया था। कह रहे थे कि पूजा के लिए एक रिश्ता आया है। लड़के का अपना व्यापार है, अच्छे खानदान से है, पढ़ा लिखा है, और सबसे अच्छी बात तो यह है कि लड़के उन्हीं के शहर में रहता है। उनका मानना था कि इस रिश्ते को पूजा को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। राहुल जी जैसे रिश्तेदार हम सभी के घरों में होते है जो बिना मांगे सलाह देते है, लड़की थोड़ी सी बड़ी हुई नहीं कि ऐसे रिश्तेदार शादी के रिश्ते भेजने लगते हैं और इस पूरी प्रक्रिया में खुद को हमारा शुभचिंतक बताते हैं। उनके मुताबिक वे हमारी फिक्र करते हैं इसलिए हमारे लिए शादी के रिश्ते भेज रहे हैं। ये शुभचिंतक कहां होते हैं जब हम 11वीं में विषय को लेकर फैसला नहीं कर पाते? ये शुभचिंतक तब कहां होते हैं जब हम अपने करियर को लेकर परेशान होते हैं? ये शुभचिंतक उस वक्त कहां होते हैं जब हम समझ नहीं पाते कि हमें हमारे पैसे को कैसे निवेश करना है? ये शुभचिंतक तब कहां होते है जब हम किसी वजह से हम परेशान होते हैं? आखिर ‘शादी’ ऐसी क्या बात है जो ये शुभचिंतक एकाएक जाग जाते हैं और इन्हें हमारी फिक्र होने लगती है।
ये शुभचिंतक क्या सच में हमारे लिए चिंतित भी होते हैं या उन्हें तो सिर्फ अपने सामाजिक मापदंडों की चिंता होती है और अगर ये हमारे लिए इतने चिंतित होते भी हैं तो कभी हमसे पूछते क्यों नहीं कि हमें शादी करनी भी हैं या नहीं और अगर करनी भी है तो किसके साथ करनी है, कब करनी है, कहां करनी हैं, कैसे करनी है, इन सब के बारे में हर फैसला ये शुभचिंतक अपने आप क्यों कर लेते हैं ? इतनी चिंता है तो कभी हमसे इन सारे सवालों के जवाब क्यों नहीं मांगते? शुभचिंतक के नाम पर ऐसे रिश्तेदार शादी जैसे ज़रूरी फैसले को हमारे लिए खुद लेने की कोशिश करते है।
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ये शुभचिंतक समझते नहीं या समझना नहीं चाहते कि शादी किसी भी इंसान का एक निजी फैसला होता है। माना कि हमारे देश में शादी जैसे फैसले में परिवार का, रिश्तेदारों का एक अहम योगदान होता है, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि परिवार/रिश्तेदार/ समाज हमारे लिए इस मुद्दे पर फैसले ले और अपना फैसला हम पर थोपे। ऐसे फ़ैसलों में हमारे परिवार और रिश्तेदारों की भूमिका एक संचालक के तौर पर नहीं, बल्कि एक यात्री के तौर पर होनी चाहिए। परिवार/ समाज की एक ऐसी भूमिका होनी चाहिए जिसमें फैसले हम लें और ये हमारी मदद करें इन फ़ैसलों को लेने में। इनकी एक ऐसी भूमिका होनी चाहिए जिसमे ये हमारे अधिकारों को छीने नहीं बल्कि उनकी इज़्ज़त करते हुए अपने सीमाओं में रहकर हमें सलाह दें।
समस्या सिर्फ ये नहीं है की अक्सर लड़कियों को शादी जैसे मुद्दे पर अपने विचार भी व्यक्त करने का मौका नहीं मिलता, बल्कि ये भी है की अपने पार्टनर का चुनाव करते समय महिलाओं और पुरुषों के लिए आज भी दोहरे मापदंडो का उपयोग होता है।
इनकी एक ऐसी भूमिका होनी चाहिए जिसमें इन्हें सिर्फ सिर्फ ‘मेरी शादी’ की चिंता न हो, बल्कि ‘मेरी’ भी चिंता हो। इनकी एक ऐसी भूमिका चाहिए जिसमें इन्हें सिर्फ ‘अपनी इज़्ज़त’ की परवाह न हो, बल्कि ‘मेरी’ भी परवाह हो। इनकी एक ऐसी भूमिका चाहिए जिसमे ये मेरी शादी इसलिए न कराए क्योंकि ये अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते हैं, बल्कि इसलिए करवाए क्योंकि मैं अब जिम्मेदारियां लेने के लिए तैयार हूं। इनकी एक ऐसी भूमिका चाहिए जिसमे ये समाज के डर की वजह से मेरी शादी न कराए, बल्कि इसलिए कराए क्योंकि मैं अब शादी करना चाहती हूं।
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समस्या सिर्फ ये नहीं है की अक्सर लड़कियों को शादी जैसे मुद्दे पर अपने विचार भी व्यक्त करने का मौका नहीं मिलता, बल्कि ये भी है की अपने पार्टनर का चुनाव करते समय महिलाओं और पुरुषों के लिए आज भी दोहरे मापदंडो का उपयोग होता है। अगर कोई लड़का बहुत पढ़ा-लिखा हो, गुणी हो, महत्वाकांक्षी हो, तो समाज कभी यह नहीं सोचता कि उसकी होने वाली पार्टनर भी उतनी ही पढ़ी-लिखी हो, उतनी हो महत्वाकांक्षी हो, उतनी ही कमाऊ हो। ऐसा इसलिए क्योंकि आज भी समाज का एक बहुत बड़ा तबका ये मानता है कि लड़कियों की मुख्य ज़िम्मेदारी घर और परिवार है। अगर कोई लड़की इस ज़िम्मेदारी को लेने में सक्षम प्रतीत होती है तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह कितनी पढ़ी-लिखी है या कितना कमाती है।
वहीं दूसरी और अगर कोई लड़की बहुत पढ़ी-लिखी हो, अच्छा कमाती हो, ऊंचे ख़्वाब देखती हो, तो हम सबको ख़ुशी कम, चिंता ज्यादा होती है। चिंता कि उसकी शादी कैसे होगी? चिंता कि उसके बराबर का लड़का कैसे मिलेगा? आखिर ये दोहरे माप दंड क्यों, आखिर ये चिंता क्यों, आखिर ये डर क्यों? क्यों यह अजीब लगता है हमें अगर एक पढ़ी-लिखी महिला का पति अनपढ़ हो। लेकिन एक पढ़े-लिखे पुरुष की पत्नी अगर अनपढ़ है, तो ये सामान्य क्यों हैं ? शायद इसलिए कि इससे चोट लगती हैं पितृसत्ता को, उसके अहंकार को।
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तस्वीर : श्रेया टिंगल