1. चन्नार क्रांति : दलित महिलाओं की अपने ‘स्तन ढकने के अधिकार’ की लड़ाई– ईशा
बात 19वीं सदी की है। दक्षिण भारत के त्रावणकोर राज्य (जिसे आज हम केरला के नाम से जानते हैं) में ‘नीची जात’ की औरतों को अपने स्तन ढकने की इजाज़त नहीं थी। नंगी छाती को ग़ुलामी का माना जाता है, इसलिए जहां ‘नीची जात’ के मर्दों को कपड़े पहनना मना था, औरतों को भी शरीर के ऊपरी हिस्से को नंगा रखना पड़ता था। यहां तक कि ऊंची जात की औरतों को भी पति के सामने कपड़े पहनने की इजाज़त नहीं थी, चाहे वो कहीं और क्यों न पहनें। एक दलित लड़की के स्तन निकलते ही उसके परिवार से ‘स्तन कर’ लिया जाता था।
2- राष्ट्रीय महिला किसान दिवस : महिलाओं के पास क्यों नहीं है ज़मीन का मालिकाना हक़?– गायत्री यादव
मैं उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र से आती हूं। मेरे गांव में लगभग हर परिवार आजीविका के लिए खेती पर आश्रित है। आम भारतीय कृषि क्षेत्र की तरह इस इलाके की भी अपनी समस्याएं हैं और परिणामस्वरूप खेती लोगों की घरेलू खाद्य ज़रूरतों को ही पूरा कर पाती है। परिवार के पुरुष पलायन कर शहरों में चले गए हैं। खेती का पूरा कामकाज औरतें करती हैं। बीज बोने से लेकर रात को पानी भरने तक समूची व्यवस्था महिलाओं द्वारा ही देखी जाती है। फिर भी एकाध अपवाद छोड़कर पूरी ज़मीन परिवार के पुरुषों के नाम है। मेरे अपने घर की ज़मीन मेरे दादा के नाम है। यह व्यवस्था इसी तरह चलती आई है। संविधान या कानून बदलने के बावजूद भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।
3. दक्षिण एशिया की पांच मशहूर लेखिकाएं जिन्हें पढ़ना चाहिए – ईशा
साहित्य की दुनिया में महिलाओं का योगदान बहुत ज़रूरी रहा है। सदियों से अपनी ज़िंदगी की कहानियों को लेखन की शक्ल देकर उन्होंने अपनी आवाज़ दुनिया तक पहुंचाई है। भारत और उसके पड़ोसी देशों की कई महिलाएं भी अपने अनुभवों और आसपास की सामाजिक व्यवस्थाओं के बारे में लिखकर साहित्यकार के तौर पर प्रसिद्ध हुईं हैं। अलग-अलग देशों में रहने के बावजूद दक्षिण एशिया की औरतों की सामाजिक परिस्थितियां लगभग एक जैसी हैं, जो उनके लेखन में साफ़ उभरकर आती हैं।
4. रिया चक्रवर्ती : मीडिया ट्रायल और दम तोड़ती पत्रकारिता – रितिका
लड़कियां सिर्फ पैसों के लिए लड़कों के साथ होती हैं, गर्लफ्रेंड अपने पार्टनर को परिवार से दूर कर देती है, लड़कियां अपने पार्टनर पर हुक्म चलाती हैं, वे सिर्फ अपने फायदे के लिए लड़कों का इस्तेमाल करती हैं और न जाने कितने ही अनगिनत पूर्वाग्रहों को इस सुशांत सिंह राजपूत के केस के मीडिया ट्रायल ने मज़बूती दी है। रिया चक्रवर्ती के मीडिया ट्रायल से पत्रकारिता के छात्रों और युवा पत्रकारों को यह सीख लेनी चाहिए कि पत्रकारिता कैसे नहीं करनी चाहिए। पितृसत्ता और औरतों से जुड़े पूर्वाग्रहों की नींव शुरू से ही कमज़ोर करने की ज़रूरत इसीलिए होती है ताकि कोई आगे चलकर ऐसे पैकेज न लिखे- ‘जानें, सुशांत को कैसे रिया ने अपने वश में किया था।’
5. घरेलू हिंसा से जुड़े कानून और कैसे करें इसकी शिकायत? आइए जानें | #AbBolnaHoga– सोनाली खत्री
घरों में होने वाली हिंसा को घरेलू हिंसा कहते है। आमतौर पर घरेलू हिंसा का सामना अधिकतर महिलाओं को ही करना पड़ता है। इसीलिए, समय-समय पर भारत में घरेलू हिंसा को रोकने के लिए अलग-अलग बनाए गए और पारित किए गए। घरेलू हिंसा को रोकने के लिए हमारे देश में कानून हैं, आइए जाने उनके बारे में।
6. एक आदर्श महिला की छवि से जेएनयू ने मुझे आज़ाद किया– ख़ुशबू शर्मा
लड़की के जन्म के पहले से ही पुरुषों की कल्पना के अनुसार उसे एक आदर्श महिला बनाने की जद्दोजहद शुरू होती है वह उसके मरने तक भी जारी रहती है। ऐसे में कोई भी लड़की अपने आप को एक पुरुष द्वारा गढ़ी गई महिला से अलग करके सोच ही नहीं पाती। वह तो ताउम्र उसी आदर्श महिला की मूर्ती की तरह बनने की कोशिश में लगी रहती है जिसे किसी पुरुष ने अपनी सहूलियत, अपने आप के लिए तराशा है। फिर से सवाल वहीं का वहीं है, अगर आज भी महिला एक पुरुष द्वारा ही परिभाषित की जाती है, तो आखिर एक महिला के नज़रिए से महिला होना क्या होता है? यह सवाल बहुत कठिन है, जिसके जवाब की खोज में हम औरतें आजकल दिन रात लगी रहती हैं। यह खोज, यह तलाश हमारे अस्तित्व की तलाश है।
7. रूप कंवर : भारत की वह आखिरी महिला जिसकी मौत सती प्रथा के कारण हुई – ईशा
रूप कंवर की हत्या का मामला यही दिखाता है कि कानून में चाहे कितने भी बदलाव आएं, समाज और लोगों की मानसिकता को बदलना ज़्यादा मुश्किल है। सती प्रथा जैसे जघन्य कानूनन अपराध के लिए एक प्रगतिशील समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए, फिर भी इसके शिकार हुई महिलाओं का महिमामंडन करके इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। रूप कंवर की मृत्यु को 33 साल पूरे होने को आए हैं, फिर भी समाज आज भी वैसा का वैसा ही है।
8. खास बात: TISS हैदराबाद स्टूडेंट काउंसिल की पहली दलित महिला चेयरपर्सन भाग्यश्री बोयवाड से – रितिका श्रीवास्तव
भाग्यश्री बोयवाड ने टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान हैदराबाद से वूमेंस स्टडीज में एमए किया है। भाग्यश्री TISS हैदराबाद में 2019-20 में स्टूडेंट्स कांउसिल की पहली दलित महिला चेयरपर्सन हैं। वर्तमान में भाग्यश्री आनंदी एरिया नेटवर्क एंड डेवलपमेंट, पंचमहल दहोत, गुजरात में वायलेंस अगेंस्ट वूमेन एंड गर्ल्स में प्रोजेक्ट को-ऑर्डिनेटर के पद पर कार्यरत हैं। भाग्यश्री का जीवन और शिक्षा के लिए संघर्ष दलित परिवारों की वास्तविक सच्चाई को उजागर करता है।
9. महिलाओं के ‘चरमसुख’ यानी ऑर्गेज़म पर चुप्पी नहीं बात करना ज़रूरी है– ऐश्वर्या राज
भले ही आज के फीमेल ऑर्गेज़म के बारे में बात करने को समाज मंजूरी नहीं देता लेकिन इसका इतिहास आपको नया दृष्टिकोण देगा। हमेशा से यह विषय नैतिक तकिये और संस्कृति के ढोंग के नीचे दबाकर नहीं रखा गया था। ‘बसल ‘ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्यकालीन समाज में रोमांस पर लिखे गए उपन्यास चाहे आपको जो कहें लेकिन उस समय समाज की यह एक प्रचलित मान्यता थी कि महिलाएं सेक्स के दौरान ऑर्गेज़म की प्राप्ति वैसे ही करने में सक्षम थी जैसे पुरूष थे। 1700 के दशक में औरतों के शरीर को देखे जाने का नज़रिया बदलने लगा था।
10. आज भी लड़कियों के जीवन में शादी एक बड़ी बाधा की तरह मौजूद है– निशा करदम
शादी आज हमें पहले के मुकाबले अपने विकराल रूप में अधिक दिखाई देती है क्योंकि आज पितृसत्ता के साथ-साथ बाजार भी जुड़ गया है जिसने शादी जैसी संस्था की संरचनाओं को और अधिक जटिल बना दिया है। जहां पहले दहेज के तौर पर सामान लिया और दिया जाता था उसे आज बड़े गर्व से उपहार का नाम देकर बेशर्मी से दिया जा रहा है। जिनके पास धन-संपत्ति है वे दहेज देने के लिए तैयार होते हैं लेकिन लड़की को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं दे सकते। विडंबना देखिए समाज की, जिन लोगों के पास देने के लिए कुछ नहीं भी होता, वे भी अपना सब कुछ लुटाकर बेटी को विदा करना चाहते हैं। लोग कर्ज़ लेकर बड़े स्तर पर शादी संपन्न करना चाहते हैं, चाहे बाद में कितनी भी मुश्किलों का सामना क्यों न करना पड़े।
11. मैं अपनी कहानी और आगे बढ़ने की अपनी ज़िद लिख रही हूं– वंदना
आज मैं कई गांव में महिलाओं और किशोरियों के साथ काम करती हूं। उन तक हर वो अवसर और सूचना पहुंचाने की कोशिश कर रही हूं, जो मुझे कभी नहीं मिले। इस काम ने मुझे मेरी पहचान दी है। पहले मुझे मेरे गांव के लोग नहीं जानते थे और जानते भी तो उनके लिए मेरी पहचान एक मज़दूर से ज़्यादा नहीं थी। लेकिन आज मैं गांव में संस्था का प्रतिनिधित्व करती हूं, गांव के जनप्रतिनिधियों से मिलती हूं और गांव के लोग, महिलाएं और किशोरियां मुझे जानने लगी हैं। मैं सीख रही हूं, बढ़ रही हूं और ज़िद कर रही हूं कि मुझे और मेरी जैसी हर लड़की को अपने सपने पूरा करने का समान अवसर मिले। इसलिए मैं अपनी कहानी और आगे बढ़ने की अपनी इस ज़िद को लिख रही हूं।
12. लव जिहाद : एक काल्पनिक भूत जो महिलाओं से प्यार करने का अधिकार छीन रहा– तन्वी सुमन
‘लव जिहाद’ का भूत एक बार फ़िर से भारत को सता रहा है। भारतीय समाज मूल रूप से प्रेम का विरोधी है। एक ऐसा समाज जहां प्रेम के बजाय दहेज को अधिक महत्व दिया जाता है, एक ऐसा समाज जहां महिलाओं को महज उनकी पसंद का साथी चुनने के लिए ‘खोखले सम्मान’ के नाम पर मार दिया जाता है, उस समाज से प्रेम और सौहार्द की उम्मीद करना ही बेमानी है। पत्रकार रविश कुमार ने ‘लव जिहाद’ के नाम पर चल रही साजिश को अपने प्राइम टाइम शो में बख़ूबी बेनकाब किया है। एक ऐसा समाज जो सोते जागते हिंदी फ़िल्मों का प्रेम तो गीत सुनता है लेकिन प्रेम से इतना डरता है कि उस डर के आधार पर लव जिहाद नाम का भूत ही खड़ा कर देता है। भारतीय समाज में पुरुषों की विजय और औरतों के जीवन पर एकाधिकार का रूप है ‘लव जिहाद’। उस समाज की बेवक़्त, सियासी ज़रूरत है ‘लव जिहाद’ जिस समाज में आए दिन होने वाले महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा याद नहीं रहती और होगी भी कैसे, समाज की कड़वी सच्चाई उजागर हो जाएगी जिसे झूठी मर्दानगी के तले दबा दिया गया है।
13- समाज में मर्दानगी के पैमाने लड़कों को बना रहे हैं ‘हिंसक मर्द’– रोकी कुमार
मर्दानगी की दौड़ और पैमानें की हद तो तब हो गई जब हाल ही में इंस्टाग्राम पर 14 से 15 साल के लड़के एक ग्रुप बनाते है जिसका नाम बॉयज लॉकर रूम है । अगर हम इसके मतलब को समझने की कोशिश करें तो समझ में आता है कि ऐसी जगह जहाँ कोई अपनी निजी बातें कर सके । 14 से 15 साल के लड़के इस बॉयज लॉकर रूम में लड़कियों की तस्वीरें साझा करके उनके साथ रेप करने की बातें किया करते थे । यह वास्तव में हमारे पूरे समाज के लिए चेतावनी है कि हमारी नई पीढ़ी किस दिशा की तरफ बढ़ रही हैं । इन लड़को में ‘विषाक्त मर्दानगी’ का असर साफतौर पर नजर आ रहा है, जिसका बहुत बुरा प्रभाव हमारे समाज पर पड़ रहा है ।
14- सेक्स वर्कर्स: लॉकडाउन में एक तबका, जिसकी कोई सुध लेने वाला नहीं है!– हिना फ़ातिमा
कई रिपोर्टस बताती हैं कि देश में ज्यादातर सेक्स वर्कर्स दूसरे राज्यों से आकर यह काम करती हैं जिसकी वजह से उनके पास पहचान पत्र और आधार कार्ड जैसे कागजात अपने राज्य के होते हैं। इसी वजह से यह महिलाएं जनधन जैसी कई योजनाओं का लाभ नहीं ले पाती हैं। देशभर में सरकारों की तरफ से मजदूरों को राशन देने के दावे किए जा रहे हैं लेकिन सेक्स वर्कर्स इन दावों को गलत बता रही हैं। उनका कहना है कि सरकार की बजाय कुछ सामाजिक संगठन ऐसे हैं जो इस दौरान उन्हें राशन मुहैया करा रहे हैं।
15- 5 दलित लेखिकाएं जिनकी आवाज़ ने ‘ब्राह्मणवादी समाज’ की पोल खोल दी ! -ईशा
साहित्य के क्षेत्र पर हमेशा से अभिजात सवर्णों का वर्चस्व रहा है। पिछड़े वर्गों को कभी पढ़ने लिखने के लिए, अपनी आवाज़ दुनिया तक पहुँचाने के लिए वो अवसर ही नहीं मिला जो ऊंची जातियों को पीढ़ी दर पीढ़ी मिलता आ रहा है। इसलिए जब हम भारत के साहित्य या भारतीय लेखकों की बात करते हैं तो ऐसा कम ही होता है कि दिमाग़ में किसी दलित लेखक, ख़ासतौर पर लेखिका का नाम आए। पर अब ज़माना बदल रहा है। आज दलित लेखक और कलाकार अपने साहित्य और संगीत के ज़रिए अपनी कहानी पूरी दुनिया के सामने बयां कर रहे हैं। उन सारे अनुभवों और विचारों को व्यक्त कर रहे हैं जिनकी बात करने का मौक़ा ही नहीं मिला। और इनमें से एक बड़ा अंश महिलाओं का है, जिन्हें जातिवाद के साथ पितृसत्ता का भी मुक़ाबला करना पड़ता है। मिलवाते हैं आपको पांच दलित लेखिकाओं से जिनकी बुलंद आवाज़ एक क्रूर समाज का पर्दाफाश करती है, जिसने सदियों से उन्हें शोषित और लांछित किया है।
16- धर्म और परिवार : कैसे धर्म औरतों के जीवन पर प्रभाव डालता है– प्रीति कुमारी
बचपन से ही घर-परिवार और अपने आस-पास के माहौल में हम धर्म के अलग-अलग रूप का सामना करते हैं। धर्म हमारी जिंदगियों पर गहरा प्रभाव डालता है। धीरे-धीरे यह हमारे स्वतंत्र विचारों को नियंत्रित करता है। हमारे घर में भी एक आम हिन्दू परिवार की तरह ही त्योहार व्रत, पूजा- पाठ, कीर्तन आदि होते हैं। पूजा-पाठ परिवार के सदस्यों की दिनचर्या का हिस्सा है। घर में सबसे ज्यादा धार्मिक मेरी मां ही हैं। बचपन से मैं उन्हें इसी एक रूप में देखते आई हूं। पढ़ने-लिखने में रुचि होने के बावजूद मैंने उन्हें अखबार के अलावा किसी दूसरी किताब को पलटते नहीं देखा। पढ़ने के लिए उनके पास वही धार्मिक ग्रंथ, व्रत कथाओं की किताबें हैं। अब पूजा-पाठ उनके व्यक्तित्व का ज़रूरी हिस्सा बन चुका है। एक मध्यम वर्गीय हिन्दू औरत की तरह करवाचौथ से लेकर जीतिया, नवरात्र, जन्माष्टमी और सारे धार्मिक पर्व और सैंकड़ो व्रत-अनुष्ठान उनके जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। सोमवार का व्रत तो उनका नियमित व्रत है। पापा भी नियमित पूजा-पाठ करते हैं। पूजा-पाठ वाला घर हो तो व्रत के दौरान खाना भी शुद्ध शाकाहारी बनता है। मम्मी को छोड़कर घर में सब ही मांसाहारी है। इसके बावजूद वह हमारे लिए बड़ी सहजता से मांसाहारी भोजन बना लेती हैं।
17- औरत कोई ‘चीज़’ नहीं इंसान है, जिसके लिए हमें ‘अपनी सोच’ पर काम करना होगा।- चेतना
महिलाओं का अपमानजनक निरूपण या वस्तु के समान चित्रण करना कोई नई बात नहीं है। इसका एक अच्छा खासा इतिहास है, जो हमें फिल्म जगत की ओर ले जाता है। क्या आपको नब्बे के दशक की फिल्मों में अभिनेत्री की ड्रेस याद हैं? वो कपड़े शरीर से इतने चिपके हुए होते थे कि सामान्य दिनचर्या में उन्हें पहनने पर सांस लेना भी मुश्किल हो सकता है। पर उस समय से ही फिल्मों में एक अभिनेत्री की शारीरिक बनावट को ज्यादा से ज्यादा दर्शाने की कोशिश होती थी, ताकि लोगो को फिल्म में मसाला मिल सके। जितना उन फिल्मों में अभिनेत्री मटक कर चलती थीं, क्या असलियत में भी कोई लड़की इतना मटक कर चलती हैं?
18- तलाक़ का फ़ैसला हो स्वीकार क्योंकि ‘दिल में बेटी और विल में बेटी’| नारीवादी चश्मा– स्वाती सिंह
‘तलाक़’ यानी कि शादी के बाद पति-पत्नी का अपनी सहमति से अलग होने का फ़ैसला। वो फ़ैसला जिसे हमारा समाज स्वीकार नहीं कर पाता है। अगर ‘तलाक़’ के फ़ैसले की पहल पुरुष करता है तो इसे स्वीकारना समाज के थोड़ा आसान होता है, क्योंकि ऐसे में महिला के चरित्र पर सवाल खड़े करना उसके अस्तित्व को कठघरे में लाना आसान होता है। लेकिन अगर तलाक़ के फ़ैसले की पहल महिला ने की होतो ये हमारे समाज के गले नहीं उतरता है और वो दोगुनी गति से महिला के चरित्र पर सवाल उठाता है।
19- देश की औरतें जब बोलती हैं तो शहर-शहर शाहीन बाग हो जाते हैं– रितिका
तिरंगा थामे, माइक थामकर प्रदर्शनों में भाषण देती, मीडिया के सामने आत्मविश्वास से जवाब देती औरतें, उनका ऐसा मिज़ाज बहुत दिनों बाद नज़र आ रहा है। 90 साल की औरतें भी उंगलियां नचा-नचाकर कह रही हैं, “आप हमें 500 में खरीदने आए हैं, हम आपको 1 लाख रुपये देते हैं, हमारे साथ आंदोलन में बैठकर देखो।” जिन मैदानों में, जिन पब्लिक स्पेसेज़ में महिलाओं की मौजूदगी कभी-कभार ही नज़र आती थी, अब वो मैदान 24 घंटे महिलाओं से पटे पड़े हैं। जिन सड़कों पर रात के अंधेरे में महिलाएं खुद को सबसे ज़्यादा असुरक्षित महसूस करती थी, आज उन्हीं सड़कों पर वे डटकर बैठी हैं। इन प्रदर्शनों में “रिक्लेम पब्लिक स्पेस” का नारा भी अपने आप हकीकत में बदलता जा रहा है। पुलिस आकर उन्हें धमकाती है तो वे भी पुलिस से सवाल-जवाब करती नज़र आ रही हैं। जबकि इनमें से आधे से अधिक वे महिलाएं हैं जो आज से पहले कभी प्रदर्शनों का हिस्सा रही ही नहीं।
20. राष्ट्रवाद और मानवाधिकार के संघर्ष में धुंधला पड़ा थाँगजम मनोरमा का इंसाफ़ – श्वेता चौहान
हालांकि राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है लेकिन इसके लिए स्थानीय लोगों के सहयोग की आवश्यकता है क्योंकि ये वही लोग है जो सुरक्षा के लिए अपने अधिकारों का बलिदान देंगे पर यह राष्ट्रीय सुरक्षा अगर किसी के जीवन और आत्मसम्मान के अधिकार पर खतरा हो तो यहां मानवाधिकार सर्वोपरि है। इसलिए जरूरी है अफस्पा जैसे कानूनों पर केंद्र का थोड़ा शिकंजा हो जिससे सेना में भी अधिकारों के हनन के मामले में खौफ रहे।