इंग्लैंड की बेरिल कुक अपने समय की सबसे चर्चित और लोकप्रिय चित्रकार थी। उन्हें आमतौर पर ‘वीमेन हू पेंटेड फ़ैट लेडीज़’ भी कहा जाता है। हालांकि उन्हें एक ओर सफ़लता मिली तो दूसरी ओर आलोचना भी। कई लोग उनके काम को घटिया और अश्लील कहते थे। ख़ैर, बीसवीं सदी इंग्लैंड के रूढ़िवादी समाज को दर्शाती पेंटिंग्स की आलोचना की जानी असामान्य बात तो नहीं है। लेकिन, बिना किसी आधिकारिक ट्रेनिंग के 30 साल की उम्र से लेकर मरने तक चित्र बनाने वाली सशक्त महिला ज़रूर सामान्य से हटकर है, जो सामाजिक ढांचों को नहीं मानते हुए उन खुशहाल औरतों के चित्र बना रही है, जिनकी मोटी जांघें और भारी स्तन हो। आइए, जानते हैं उनके बारे में।
बेरिल कुक का जन्म 10 सितंबर 1926 को बेरिल फ्रांसिस लैंसले के रूप में इंग्लैंड में हुआ था। वह चार बहनों में से एक थी। उनके पिता एड्रिअन एस. बी लैंसले और माता इला फार्मर-फ्रांसिस बेटियों के जन्म के बाद जल्दी ही अलग हो गए थे। जिसके बाद बेरिल और बहनें मां के साथ रहने लगी। 14 साल की उम्र में बेरिल ने स्कूल छोड़ दिया और वह छोटी- मोटी नौकरियां करने लगी। द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने पर उन्होंने लंदन जाकर शो गर्ल बनने और मॉडलिंग में हाथ आजमाया। कुछ समय बाद उन्होंने अपने बचपन के दोस्त से शादी कर ली और बेटे के जन्म के बाद परिवार के साथ ज़िम्बाब्वे जाकर बस गई। दक्षिण अफ़्रीका के हैंगओवर में 1960 में बेरिल की पहली पेंटिंग का जन्म होता है, जिसमें उन्होंने अपने बेटे की तस्वीर बनाई और इसमें उन्हें ऐसा आनंद मिला कि वह फिर कभी नहीं रुकी। वह किसी भी सतह पर चित्र बनाने लगती थी, जो कुछ भी उन्हें मिलता, जैसे- लकड़ी का टुकड़ा, ब्रेड बनाने वाला बोर्ड। यह उनकी शरुआती चित्र संग्रहों में से एक ‘बॉलिंग लेडीज़’ में देखा जा सकता है।
और पढ़ें : एनहेडुआना : विश्व का सबसे पहला साहित्य लिखने वाली मेसोपोटामिया की महिला
एक कलाकार के रूप में बेरिल
कुछ समय बाद उनका परिवार इंग्लैंड वापस लौटता है और वे एक गेस्ट हाउस चलाने लगते हैं। इसी दौरान कुक की चित्रकारी का काम चलता रहता है और वह और अधिक गंभीरता से इसमें रूचि लेने लगती हैं। 70 के दशक के मध्य में पहली बार उनकी पेंटिंग्स गेस्ट हाउस में आने वाले अतिथियों का ध्यान खींचती हैं , जिनमें से एक व्यक्ति उनकी बातचीत और मुलाकात प्लायमाउथ आर्ट्स सेंटर की संचालन टीम के बर्नार्ड सैम्युएल से करवाता है, जहां नवंबर 1975 में उनके चित्रों की पहली प्रदर्शनी लगती है। यह समारोह बेहद सफ़ल सिद्ध होता है
पहली प्रदर्शनी से ही उन्हें काफ़ी जान-पहचान और तारीफ़ मिलनी शुरू हो जाती है। उन्हें ‘सन्डे टाइम्स’ के कवर पेज पर फीचर होने का अवसर मिलता है। इसके बाद उनकी दूसरी प्रदर्शनी 1976 में लंदन के पोर्टल गैलरी में आयोजित होती है और यहां मिली प्रतिक्रिया के पश्चात वह मरने तक यानी लगभग 32 साल तक नियमित रूप से इसी स्थान का उपयोग प्रदर्शनी के लिए करती रही। वह अपनी बढ़ती प्रसिद्धि से खुश थी और बढ़ते फ़ेम को आनंद ले रही थी। कलाप्रेमियों के बीच उनके चित्रों की भारी मांग होने लगी। उनकी मांग वर्गहीन थी और जल्द ही वह ब्रिटेन की सबसे चर्चित चित्रकार बन गईं। वे दिलोदिमाग़ से तल्लीन होकर पेंट करती थीं और उनका समर्पण उनके चित्रों में उभरकर दिखता था। उनकी पेंटिंग्स में उल्लास था। उनका अंदाज़ मौलिक था, चित्रों में सहजता थी, जिससे लोग आसानी से जुड़ जाते थे। इसी सहजता और गर्मजोशी के कारण उनके चित्र स्थानीय कलात्मकता के भाग बन गए।
अपने चित्रों के संबंध में बेरिल कुक कहती हैं, “मैं नहीं जानती ये कैसे बन गए हैं, बस बन गए हैं। वे मौजूद हैं लेकिन मैं अपने होने तक में उनकी व्याख्या नहीं कर सकती।”
और पढ़ें : इडा लॉरा फ़ाएफर: दुनिया की पहली महिला घुमक्कड़
दरअसल, कुक के चित्रों की प्रसिद्धि का एक कारण उनका यथार्थवादी होना था। उनके अधिकतर चित्रों में रोज़मर्रा की घटनाओं का उल्लेख होता था, वे ऐसे लोगों की तस्वीरें बनातीं, जो उन्हें रोज़ आते-जाते, उठते-बैठते, पब में नाचते, आनंदित दिखते जैसे, पिकनिक मनाता एक परिवार, खरीददारी करने जातीं लड़कियां, सिनेमा देखती औरतें और बेडौल आकार की महिलाएं, जिन्हें उस दौरान के लंदन में सभ्य नहीं माना जाता, वे उनके चित्रों की नायिकाएं होती थीं। दरअसल, बेरिल कुक ने जीवन भर मोटी औरतों के चित्र बनाए। ये ऐसी औरतें थी, जो जीवन का हर सुख भोग रही थीं, खुश थी और मौज में जी रही थी। ये महिलाएं औरतों के लिए वर्जित सभी क्रियाकलापों में संलग्न थी और आनंद लूट रही थी। बेरिल की पेंटिंग्स ने बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कला और उसके सामाजिक विज्ञान के हर स्थापित सूत्र पर सवाल उठाते हुए प्रतिघात किया।
इतने सजीव और यथार्थवादी चित्रों को रचने वाले और चित्रकारी के सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने वाली बेरिल कुक ने इस संबंध में कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं ली थी, न ही ऐसा भी था कि वे बचपन से चित्रकारी करने लगी हो। 30 साल की उम्र से पहले वे इस क्षेत्र में नहीं आई थी। इस प्रकार, चित्र और चित्रों की सामाजिकता उनके अपने अनुभवों और सोच का सृजन थी। वह निजी तौर पर अंतर्मुखी और एक शर्मीली व्यक्ति थी लेकिन उनके चित्रों में दर्शाए गए व्यक्तित्व अक्सर बेहद अलग हुआ करते थे। यह बताता है कि इन चित्रों के माध्यम से वह जो होना चाहती थी, उसकी अभिव्यक्ति कर रही हो। उस दौरान का इंग्लैंड सामंतवादी प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं हुआ था, औरतों के शरीर को लेकर एक ख़ास ढांचा गढ़ा गया था, मोटी और भारी शरीर वाली महिलाओं को सुंदर नहीं माना जाता था और उनकी उपेक्षा की जाती थी, मगर बेरिल की पेंटिंग्स की मोटी औरतें इन सभी पैमानों को तोड़ती और समाज की धारणाओं को ध्वस्त करते हुए अपना जीवन खुलकर जी रही थी। अपने चित्रों के संबंध में बेरिल कुक कहती हैं, “मैं नहीं जानती ये कैसे बन गए हैं, बस बन गए हैं। वे मौजूद हैं लेकिन मैं अपने होने तक में उनकी व्याख्या नहीं कर सकती।”
और पढ़ें : एंजेला डेविस : एक बागी ब्लैक नारीवादी क्रांतिकारी
लंदन जाकर काम ढूढ़ने के दौरान जब वे मॉडलिंग में हाथ आज़मा रही थी, तभी उन्होंने ‘द जिप्सी प्रिंसेस’ के टूरिंग प्रोडक्शन में शो गर्ल के रूप में काम किया। उस दौरान उन्हें कपड़ों के पहनने और लोगों के दिखने के बारे में जानकारी मिली, जो बाद में चलकर उनके चित्रों में गहन सामाजिक विमर्श के संदेश के रूप में देखने को मिलता है।वह मौलिकता की खोज में और अपने चित्रों की प्रेरणा के लिए यात्राएं करती थीं। इस दौरान वे एक छोटी दफ़्ती पर रेखा-चित्र खींचती रहतीं। कलात्मक प्रेरणा के उद्देश्य से वह क्यूबा, ब्यूनस आयर्स, न्यूयॉर्क और बार्सिलोना जैसे शहरों में गई थीं। 30 वर्ष की उम्र में पहला चित्र बनाने वाली बेरिल ने जीवन भर में लगभग 500 पेंटिंग्स बनाई।
उन्होंने मानवीय कमज़ोरियों और बेतुकेपन को समाज से इतर अपनी अद्वितीय दृष्टि से दर्ज किया। वे एक समूह में मौजूद लोगों को देखतीं और इसके बाद उन्हें चित्रों में उतारतीं। उनकी नज़र इतनी पारखी थी कि कुछ भी छूटता नहीं था। वह उस दृश्य या घटनाक्रम के छोटे से छोटे विवरण को भी दर्ज करतीथीं, मानो उन्होंने अपने मन में चित्र खींच लिया हो और उसे दफ़्ती पर उतार रही हो। बेरिल व्यापक दृष्टी अंग्रेज़ी कलाकार स्तानले स्पेंसर की सराहना करती थी। निडर-मोटी औरतों के चित्र बनाने और संयोजन के पीछे कहीं न कहीं स्पेंसर की ही प्रेरणा थी। उनकी दृष्टि और परंपरा के संबंध में चित्रकार एडवर्ड बर्रा भी यह दावा करते थे कि कुक की तरह वह भी कैफ़े, नाईट क्लब, गे बार, नाविकों और वेश्याओं का चित्र बनाते हैं, हालांकि समीक्षकों ने दोनों की दृष्टि में बेहद अंतर पाया। कुक के चित्रों में बर्रा की तरह फूहड़पन और द्वेष का भाव नहीं था। कुक के चित्रों का आकर्षण उनकी सादगी, प्रचुरता तथा उनमें निहित हास्य-भाव था। उनके चरित्र सदैव आनंदित रहते थे।
इतनी विशेष कला कौशल के साथ ब्रितानी समाज में पैदा हुई कुक को जनता ने सिर-आंखों पर बिठा लिया। उन्हें काफ़ी मान और शोहरती मिली। साल 1979 में एल.डब्ल्यू.टी के साउथ बैंक शो के लिए बेरिल पर एक फ़िल्म भी बनाई गई। इस फ़िल्म के प्रस्तुतकर्ता थे- मेलविन ब्रैग, जो कुक के प्रशंसक थे और उनकी कलात्मक प्रेरणाओं के बारे में उन्होंने देर तक बात की। साल 1995 में उन्हें ओबीई यानि ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे उत्कृष्ट सम्मान (ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर) दिया गया। यह सम्मान कला और विज्ञान के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान के लिए प्रदान किया जाता है। एक टीवी कम्पनी टाइगर आस्पेक्ट ने ‘इररिप्रेसेबल वीमेन’ नाम से उनपर दो आधे घंटे की एनिमेटेड फ़िल्म भी बनाई। साल 2005 में एक अन्य चैनल ने उनके काम पर एक शार्ट फ़िल्म भी बनाई। साल 2006 में बीबीसी-2 पर प्रसारित ‘आर्ट स्कूल’ नाम के प्रोग्राम में भी वे शामिल हुईं, इसी साल प्रसारित ‘कल्चरल शो’ में भी वे फीचर्ड आर्टिस्ट के रूप में गईं। मई 2008 में उनकी मृत्यु हुई। इस खबर को सुनकर दुनिया भर के कलाप्रेमियों के बीच में दुख की लहर फैल गई। उनके काम को देश-विदेश में सराहा जाता है और उनकी पेंटिंग्स प्लायमाउथ आर्ट गैलरी व ग्लॉसगो म्यूज़ियम ऑफ मॉडर्न आर्ट में सुरक्षित की गई हैं। अभी भी दुनिया के अलग-अलग भाग में उनकी स्मृति में पेंटिंग्स की प्रदर्शनी आयोजित की जाती है।
और पढ़ें : अब बेशकीमती है ‘तुम्हारी अमृता शेरगिल’
तस्वीर साभार : Victoria Art Gallery