इंटरसेक्शनलजेंडर दुपट्टा ठीक से न ओढ़ने वाली ‘बद्तमीज़ लड़कियां’

दुपट्टा ठीक से न ओढ़ने वाली ‘बद्तमीज़ लड़कियां’

इसे दुपट्टा क्यों बोलते है, शराफत नाम रख देते हैं इसका। बाज़ार में बद्तमीज़ लड़कियों /औरतों के लिए ढेर सारी रंग-बिरंगी शराफ़तें बिकती हैं।

“शर्म नहीं आती, सीना दिखाती फिरती हो?” जैसे ही दरवाज़ा बंद करके मैं मुड़ी तो मम्मी ने मुझे तीखे स्वर में डांटा। मैं झेंप गई और थोड़ा सकपका गई। अंदर से गुस्सा भी बहुत आया और रोना भी। मेरी मां ने मुझे यह क्यों कहा कि मैं सीना दिखाती फिरती हूं? हां, मैंने दुपट्टा नहीं लिया था। हां, मैं एक पुरुष डाकिये के सामने खड़े होकर बात कर रही थी। हां, शायद उसने मेरे सीने की तरफ देखा जहां मेरे स्तन किसी दुपट्टे से ढके नहीं थे, शायद उसने ना भी देखा हो। मगर मोहल्ले में ठंड के मौसम में धूप सेंक रही छतों पर खड़ी औरतों और आदमियों ने तो देखा ना! उन्होंने देखा कि एक बद्तमीज़ लड़की को जो अपना सीना ढकना नहीं जानती। जो आदमी के सामने बेशर्म होकर खड़ी है।

मज़ेदार बात तो यह है कि दुपट्टे में सारी शर्म ,शराफत ,तमीज़ और तहज़ीब कहीं छिपी है। तभी तो इस कपड़े के एक टुकड़े के सीने पर लिपटे न होने से इंसान बेशर्म हो जाता है। नहीं! सिर्फ औरत बेशर्म हो जाती है। इसे फिर दुपट्टा क्यों बोलते है, शराफत नाम रख देते हैं इसका। बाज़ार में बद्तमीज़ लड़कियों /औरतों के लिए ढेर सारी रंग-बिरंगी शराफ़तें बिकती हैं। मैं जिस समाज से वास्ता रखती हूं वहां बहुत छोटी उम्र से ही लड़कियों को दो सामाजिक वर्गों में बांट दिया जाता है। एक वे जो बद्तमीज़ हैं और एक वे जो कायदे की हैं। सबसे पहले मैं आपको कायदे की लड़की से मिलाती हूं। कायदे की लड़की वह होती है जो पांचवी-छठी कक्षा के बीच में ही हर फ्रॉक के नीचे लेग्गिंग्स पहनकर अपनी खुले टांगो को ढक लेती हैं और अपनी हर हमउम्र दोस्त को भी यही शिक्षा देती है।

और पढ़ें : हाँ, चरित्रहीन औरतें सुंदर होती हैं!

वह कभी यह नहीं भूलती कि उसके सीने से बंधा होना चाहिए कफ़न का फंदा यानी दुपट्टा और इसे खुद के गले में डालते वक़्त शीशे में वह अपनी मां की निगाहों का फक्र देखती है,”मेरी बेटी कितनी समझदार है।” मानो वह आंखों-आंखों में संदेश देती है, “मां, देखो मैं बाहर जा रही हूं तुम चिंता मत करो “शराफत” मेरे गले पर है और मेरा छोटा सा सीना शराफत में लिपटा है। तुम चिंता मत करो लोगों की पैनी नज़रें मेरे स्तन के आकर को अब नहीं नाप पाएगी । तुम चिंता मत करो लोग यह अनुमान नहीं लगा पाएंगे की मुझे भी अब पीरियड्स होने लगा है। “

इस कपड़े के एक टुकड़े के सीने पर लिपटे न होने से इंसान बेशर्म हो जाता है। नहीं! सिर्फ औरत बेशर्म हो जाती है। इसे फिर दुपट्टा क्यों बोलते है, शराफत नाम रख देते हैं इसका।

बड़े फ़क्र के साथ वो घर से कदम बाहर निकालती हैं। बाप की एक निगाह सीने पर जाती है और थम जाती है,”चलो लड़की पर ज़्यादा ध्यान नहीं देंगे लोग।” वह जो हर छोटी-बड़ी महफ़िल में अपने दुपट्टे को किसी ट्रॉफी समान ऐसे लटकाएं फिरती हैं कि रिश्तेदार उसे देखकर कहते नहीं थकते,”देखो कितनी समझदार है, ऐसी लड़कियां अच्छी लगती हैं। छोटी है मगर कितनी अकल है, देखो खेल रही है फिर भी उसका ध्यान इस पर है कि सीने से दुपट्टा खिसके न ,बराबर बना रहे।” ये वे लड़कियां हैं जो अपने बालों को सलीके से बांधकर रखती हैं, ‘चुड़ैलों’ जैसे खुला नहीं छोड़ती।

ये वे लड़कियां हैं जो घर में किसी आदमी की दस्तक पाते ही तेज़ी से भागते हुए अपनी शराफत कमरों में ढूढ़ती हैं। बिना शराफत के लिबास के अपने आप को सबके सामने नहीं रख सकती। और एक होती हैं बद्तमीज़ लड़कियां। ये वे हैं जो मनपसंद कपड़े पहनना चाहती हैं। यह जब फ्रॉक पहनकर बगल वाली गली के मोड़ पर मौजूद दुकान से अंडे लेने जाती हैं तो दुकान में बैठा आदमी उसकी खुली टांगों को देखकर उससे सही से बात नहीं करता। वहीं, दुकान में बैठी औरत उसे घर की चाची की तरह बोलती है,”लेगिंग्स पहना करो नीचे।”

और पढ़ें : चुनरी में दाग भर से तय नहीं होता ‘चरित्र’

जब वह सामन लेकर आगे बढ़ती है तो ऊपर बालकनी में खड़ी दीदी बोलती हैं,”अब ये सब नहीं पहना करो। अब थोड़े ही अच्छा लगता है। हां, अब तो तुम बड़ी हो गई हो न।” वह आगे बढ़ती है तो हमउम्र की कायदे की लड़कियां तंज़ कसती हैं,”दुपट्टा लिया करो। हमने भी लिया है। मां कहती हैं दुपट्टा लेना चाहिए।” अब यही कायदे की लड़कियां बद्तमीज़ लड़की के सीने पर दुपट्टे की कमी और पैरों में लेग्गिंग्स की कमी को लेकर मन ही मन प्रसन्न होती हैं और अपने आप को एक ऊंचे दर्जे पर रख देती हैं, जैसे कोई कॉम्पीटिशन हो। मुझे मेरे परिवारवाले बद्तमीज़ लड़की के वर्ग में डाल चुके हैं। अक्सर घर में आते-जाते लोग यह नोटिस करते हैं कि आदमियों के सामने मैंने दुपट्टा नहीं लिया। मेरा मन नहीं करता इतना प्रयास करने का, सच में बिलकुल नहीं करता।

मगर असल मसला न मेरी बद्तमीज़ी का है न कायदे की लड़कियों की शराफत का। असल मसला तो आदमी की उस नज़र का है जिससे कायदे की लड़कियां बचना चाहती हैं और बद्तमीज़ लड़कियां समझ नहीं पाती कि आखिर हम क्यों बचें? क्या हम कभी नहीं कबूलेंगे की असल में तो वह आदमी बद्तमीज़ है जिसे कायदे का आदमी बनने की ज़रूरत है।

और पढ़ें : अच्छी लड़कियां गलतियाँ करके नहीं सीखतीं!


यह लेख ज़ीनत ने लिखा है जो पेशे से कम्यूनिटी डेवलपमेंट प्रैक्टिशनर हैं।

तस्वीर साभार : गूगल

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content