हंसा मेहता एक भारतीय नारीवादी होने के साथ-साथ एक लेखक, समाज सुधारक, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षक होने से लेकर संविधान सभा का हिस्सा थी। जहां उन्होंने भारत में महिलाओं के लिए समानता और न्याय की वकालत की। यह निराशाजनक है कि हंसा मेहता का विकिपीडिया पेज संविधान सभा के सदस्य के रूप में शिक्षा की विभिन्न श्रेणियों में उनके योगदान के बारे में जानकारी प्रदान करने में न्याय नहीं करता है। हंसा मेहता का जन्म 3 जुलाई, 1897 को गुजरात के सूरत में हुआ था। उनके पिता मनुभाई मेहता बड़ौदा के दीवान थे। उन्होंने अपनी शिक्षा बड़ौदा विश्वविद्यालय के साथ-साथ लंदन से प्राप्त की। लंदन में, वह सरोजिनी नायडू और राजकुमारी अमृत कौर के निकट संपर्क में आईं, जिसके बाद वह राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गईं।
वह 1946-47 तक अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (AIWC) की अध्यक्ष रहीं। AIWC एक गैर-सरकारी संगठन है जो महिलाओं के अधिकारों पर आधारित मुद्दों पर काम करता है। हैदराबाद में आयोजित AIWC कन्वेंशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में, उन्होंने महिलाओं के अधिकारों का एक चार्टर प्रस्तावित किया। उस वक्त AIWC ने खुद को एक गैर-पक्षपातपूर्ण, गैर-राजनीतिक दल के रूप में पेश किया जो समाज में महिलाओं को शिक्षित, सशक्त बनाने और बढ़ाने का प्रयास करेगा। वह साल 1945 से 1960 तक भारत में विभिन्न पदों पर रही। वह एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय की कुलपति, अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की सदस्य, इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड ऑफ इंडिया की अध्यक्ष और महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय की कुलपति भी रहीं। इस अवधि के दौरान उन्होंने नई दिल्ली में गृह विज्ञान, शैक्षिक अनुसंधान और शिक्षक प्रशिक्षण के लिए एक महिला कॉलेज लेडी इरविन कॉलेज की भी स्थापना की।
और पढ़ें : लीला रॉय: संविधान सभा में बंगाल की एकमात्र महिला| #IndianWomenInHistory
हंसा मेहता ने बंबई विधान परिषद की सीट जीती और वहां प्रमुख सचिव के रूप में कार्य किया। वह 1937-1939 और 1940-1949 तक परिषद में रहीं और उन्होंने संविधान सभा में बॉम्बे (अब मुंबई) का प्रतिनिधित्व भी किया। संविधान सभा की बहसों में उनका एक महत्वपूर्ण योगदान यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) को संविधान का एक उचित हिस्सा बनाने की कोशिश थी। वह हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार करने वाली समिति का भी हिस्सा थी। द हिंदू कोड बिल के माध्यम से एक सामाजिक क्रांति बनाने का रास्ता बना जिसने यह सुनिश्चित किया कि महिलाओं को उन कानूनों से बाध्य नहीं किया जाएगा जो कानून उनके अधिकारों को दबाने की कोशिश करते हैं और धर्म की रूढ़िवादी व्याख्याओं में उन्हें बांधते हैं करते हैं। आगे चलकर वह साल 1950 में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की उपाध्यक्ष बनीं। वह UNESCO के कार्यकारी बोर्ड की सदस्य भी थी। हंसा मेहता ने एक मजबूत महिला आंदोलन की भागीदार के रूप में एक अभिन्न भूमिका निभाई जो बाल विवाह के उन्मूलन, देवदासी प्रथा के उन्मूलन, महिलाओं के लिए बेहतर शिक्षा के अवसर और व्यक्तिगत कानून सुधारों की वकालत की। हंसा मेहता ने अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में मानवाधिकारों पर जोर देने की मांग की।
और पढ़ें : सुचेता कृपलानी: भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री | #IndianWomenInHistory
असेंबली में उनके आखिरी सत्र एक यादगार सत्र बन गया था, वह भी महिलाओं पर की गई महिला-विरोधी टिप्पणी के कारण। रोहिणी कुमार चौधरी ने टिप्पणी की कि असंबेली ने संविधान में “महिलाओं के खिलाफ सुरक्षा” के लिए कोई प्रावधान नहीं किया है। उनकी इस बात को हंसा मेहता ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि “दुनिया पुरुषों के बारे में अच्छी सोच नहीं रखती अगर उन्होंने इस संविधान में महिलाओं के खिलाफ सुरक्षा का प्रावधान जोड़ा होता तो। हंसा मेहता ने शिक्षा और महिलाओं के अधिकारों के लिए लगन से काम किया। उन्हें साल 1959 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ बड़ौदा, जहां उन्होंने इसके पहले कुलपति के रूप में कार्य किया वहां उनके सम्मान में एक पुस्तकालय है। हंसा मेहता ने अपने पीछे जो विरासत छोड़ी है, वह उनकी अथक भावना का प्रमाण है।
और पढ़ें : मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखे गए इस लेख को पढ़ने के लिए क्लिक करें
तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया