इतिहास वो कौन थी : सुनें, देश की पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की कहानी

वो कौन थी : सुनें, देश की पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की कहानी

DW हिंदी के पॉडकास्ट वो कौन थी के पांचवे एपिसोड में आज सुनिए भारत की पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की कहानी।

एडिटर्स नोट : यह लेख फेमिनिज़म इन इंडिया हिंदी और DW हिंदी की सहभागिता के तहत प्रकाशित किया गया है। इसके तहत हम DW हिंदी की नई पॉडकास्ट सीरीज़ ‘वो कौन थी’ के अलग-अलग एपिसोड्स को फीचर करेंगे। इस सीरीज़ के तहत पॉडकास्ट की होस्ट और DW हिंदी की डेप्युटी हेड ईशा भाटिया सानन उन महिलाओं की जीवनी और योगदान को अपने श्रोताओं तक पहुंचा रही हैं जिन्होंने लीक से हटकर काम किया और सपने देखने की हिमाकत की। वो कौन थी के पांचवे एपिसोड में आज सुनिए सावित्रीबाई फुले की कहानी।

आज स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी हर जगह लड़कियां अपने सपनों को साकार कर पा रही हैं न! जब भी किसी लड़की के हाथों में आप किताब देखते हैं, उसे पढ़ता देखते हैं तो कितनी खुशी मिलती है न! लेकिन क्या हमारे देश में लड़कियों के हाथों में किताब खुद इस पितृसत्तात्मक समाज ने दी थी? जवाब होगा बिल्कुल नहीं। आज अगर लड़कियां और महिलाएं पढ़ पा रही हैं तो इसके पीछे एक महिला का लंबा संघर्ष छिपा है। वह महिला जिसे घर से निकाल दिया गया, उस पर कीचड़ और गोबर फेंका गया। जानते हैं क्यों, क्योंकि वह लड़कियों को शिक्षित करना चाहती थी। हम बात कर रहे हैं भारत की पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की। वह सावित्रीबाई फुले जो किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं लेकिन आज अगर हम महिलाएं पढ़ पा रही हैं तो इसके लिए हमें उनका शुक्रिया अदा हर रोज़ करना चाहिए। 

DW हिंदी के पॉडकास्ट ‘वो कौन थी’ के पांचवे एपिसोड में होस्ट ईशा भाटिया सानन सुना रही हैं, सावित्रीबाई फुले की कहानी।  सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के पुणे ज़िले के नायगांव में हुआ था। आज से 150 सालों से भी पुरानी कहानी सुनाता यह पॉडकास्ट अपने बैकग्राउंड म्यूज़िक के ज़रिये सुनने वालों को बिल्कुल उसी दौर में ले जाता है। इस संगीत में आपको भारतीय पृष्ठभूमि की भी झलक महसूस होती है। अब आगे बढ़ते हैं सावित्रीबाई फुले की कहानी की ओर! ईशा बताती हैं कि यह वह दौर था जब लड़कियों की शादी प्यूबर्टी यानि पीरियड्स आने से पहले ही कर दी जाती थी। ऐसा ही उनके साथ भी हुआ। 9 साल की सावित्रीबाई फुले को 13 साल के ज्योतिबा फुले से ब्याह दिया गया। ऐसे में उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में बात करना तो दूर, कोई सोचता भी नहीं था। शिक्षा का अधिकार था भी तो अंग्रेज़ों और ब्राह्मणों के पास। हालांकि, उनके इस विशेषाधिकार को जल्द ही चुनौती मिलने वाली थी।

ज्योतिबा फुले यह जान चुके थे कि समाज में व्याप्त भेदभाव को मिटाने का ज़रिया सिर्फ और सिर्फ शिक्षा है। लेकिन उस वक्त का ब्राह्मणवादी समाज इस अधिकार को अपने हाथों से जाने नहीं देना चाहता था। इसलिए ज्योतिबा फुले ने अपने इस मिशन की शुरुआत की सावित्रीबाई फुले को पढ़ाकर। ईशा बताती हैं कि ज्योतिबा फुले सावित्री को उस वक्त पढ़ाते जब वह खेतों में उनके लिए खाना लेकर जाती थी। लेकिन जब यह ख़बर फैली तो ज्योतबा फुले के पिता ने दोंनो को ही घर से निकाल दिया। लेकिन वे दोनों हार कहां मानने वाले थे, इस घटना को तो ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने अपने संघर्ष की शुरुआत के तौर पर लिया। इस संघर्ष में उनका साथ दिया फ़ातिमा शेख़ और उनके भाई उस्मान शेख़ ने। 

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पढ़ना-लिखना सीखकर सावित्रीबाई को यह पता चल चुका था कि शिक्षा उनके जीवन में क्या-क्या बदलाव ला सकती है। वह इस बदलाव को बस खुद तक सीमित नहीं रखना चाहती थी। सावित्रीबाई फुले, ज्योतिबा फुले, फ़ातिमा शेख ने मिलकर आखिरकार पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोल ही लिया। इस स्कूल की शुरुआत नौ लड़कियों के साथ हुई लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ी। उस ज़माने में शिक्षा का मतलब होता था हिंदू ग्रंथों की पढ़ाई लेकिन यह स्कूल अलग था। ईशा बताती हैं कि यहां लड़कियों को गणित, विज्ञान, इतिहास और समाजशास्त्र जैसे विषय पढ़ाए जाते थे। तीन सालों के अंदर फुले दंपत्ति ने तीन स्कूल खोल लिए जहां 150 लड़कियों को शिक्षा दी जा रही थी। अब ऐसा करना तो उस ब्राह्मणवादी शिक्षा पद्धति को चुनौती देना ही था। इसलिए जब सावित्रीबाई पढ़ाने निकलतीं तो लोग उनका पीछा करते, उन पर गोबर और पत्थर फेंका करते। लेकिन सावित्रीबाई जानती थी कि अगर वह इन छोटी लड़ाइयों में उलझ गईं, तो उनका बड़ा उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। इसलिए जब वह हिम्मत हारने लगी, तो ज्योतिबा फुले ने उन्हें एक साफ़ साड़ी दी। अब वह अपने साथ एक और साड़ी लेकर जाती थी ताकि वह स्कूल जाकर अपनी गंदी साड़ी बदल सकें। हमने आज तक सावित्रीबाई फुले के जीवन के इस हिस्से को पढ़ा है लेकिन ईशा ने इस हिस्से को बेहद दिलचस्प तरीके से सुनाया है। पॉडकास्ट के इस हिस्से में सावित्रीबाई अपने ऊपर पत्थर फेंकने वालों से बातचीत करनी सुनाई देती हैं। यह बातचीत पॉडकास्ट को बेहद ही जीवंत बनाती है। 

महज़ 23 साल की उम्र में सावित्रीबाई की कविताओं की किताब ‘काव्य फुले’ भी छपकर आ चुकी थी। उनकी कविताओं में भी जातिवाद पर सवाल, शिक्षा की अहमियत बताई गई। यहां ईशा ने सावित्रीबाई की लिखी कविता ‘मन्नत’ का भी ज़िक्र किया है जिसमें सावित्रीबाई ने भगवान से बेटा मांगने की मन्नत का माख़ौल बनाया है। सावित्रीबाई फुले न सिर्फ लड़कियों को शिक्षित कर रही थी, बल्कि वह जातिवाद, लैंगिक भेदभाव, विधवाओं के साथ होने वाले व्यवहार के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठा रही थी। अक्सर जब भी सावित्रीबाई फुले का ज़िक्र होता तो उनके साथ हर कदम पर साथ रहीं फ़ातिमा शेख़ का ज़िक्र नहीं होता। लेकिन इस पॉडकास्ट में ऐसा नहीं हुआ। 

सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले की अपनी कोई संतान नहीं थी। एक बच्चे को गोद लेना आज भी एक बेहद कठिन प्रक्रिया है लेकिन उस दौर में ऐसा करने की हिम्मत दिखाई थी फुले दंपति ने। उनके इस बेटे यशवंत के बारे में बताया गया है जिसने ब्रिटिश साम्राज्य में पहली अंतरजातीय शादी की थी। जब ज्योतिबा फुले की मौत हुई तब उनकी चिता को आग भी सावित्रीबाई ने ही दी। इतना ही नहीं उनकी मौत के बाद सारा काम सावित्रीबाई ने खुद ही संभाला लेकिन यह भी आसान कहां था। 1897 में जब प्लेग फैला उस वक्त भी लोगों की सेवा से वह पीछे नहीं हटी और आखिरकार खुद इसकी चपेट में आ गईं और 10 मार्च 1897 को देश की पहली शिक्षिका इस दुनिया से चल बसीं। बेटे का प्रेम विवाह, विधवाओं के लिए इतने संघर्ष, अपने पति की चिता को आग देना, जातिवाद से लड़ना ये सब सावित्रीबाई फुले ने तब किया जो आज भी किसी महिला के लिए एक चुनौती जैसा ही है। ये चुनौती तो हमारे सामने हमेशा बरकरार रहेगी लेकिन सावित्रीबाई फुले ने देश की औरतों को एक रास्ता दिखाया- ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से मुक्ति का रास्ता। 

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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया

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