26 जनवरी, 1950 के दिन देश में संविधान लागू किया गया था। संविधान तैयार करने के लिए कुल 389 सदस्यों की एक टीम का गठन किया गया था। इन सदस्यों में केवल 15 महिलाएं शामिल थी। सभी महिलाएं हिम्मत से लबरेज एवं शक्ति से भरपूर थी। आजादी की लड़ाई में न सिर्फ इन महिलाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई बल्कि इन्होंने पुलिस की मार और जेल की हवा तक को सहा था। वह सभी महिलाओं के अधिकार, उनकी समानता और लैंगिक न्याय की जबरस्त पक्षधर थीं। संविधान समिति की हर बैठक में वे उपस्थित रहती थीं और हर बहस में आगे बढ़कर भाग लेती थीं। उन 15 महिलाओं में अम्मू स्वामीनाथन भी थीं। इनका पूरा नाम अम्मूकुट्टी स्वामीनाथन था।
अम्मू का जन्म 1894 में केरल के पलक्कड़ जिले में हुआ था। बचपन में ही उनके पिता पंडित गोविंदा मेनन की मृत्यु हो गई थी। इसलिए वह अपनी मां के घर में ही पली-बढ़ी। 13 भाई- बहनों में सबसे छोटी होने के कारण वह सबकी लाडली थी। उनकी मां परिवार की मुखिया थी और उनके मजबूत व्यक्तित्व का असर उन पर भी पड़ा। उस जमाने में घर से दूर केवल लड़कों को पढ़ने भेजा जाता था, इसलिए अम्मू स्कूल नहीं जा पाई। उन्होंने घर पर ही मलयालम में थोड़ी- बहुत शिक्षा ग्रहण की थी।
और पढ़ें : तारकेश्वरी सिन्हा : बिहार से संसद का सफ़र तय करनेवाली नेता| #IndianWomenInHistory
बचपन में ही अम्मू के पिता ने स्वामीनाथन नाम के लड़के की प्रतिभा को देखते हुए उनकी मदद की थी। छात्रवृतियों के सहारे स्वामीनाथन को देश-विदेश में पढ़ने का मौका मिला और उन्होंने मद्रास में वकालत शुरू कर दी। डॉ० स्वामीनाथन जब आनकरा, अम्मू के गांव पहुंचे तब उन्हें अम्मू के पिता के देहांत की खबर मिली। स्वामीनाथन ने बिना कुछ सोचे-समझे अपना प्रस्ताव अम्मू की मां के सामने रख दिया कि यदि उनकी कोई बेटी शादी के लायक हो, तो वह उससे शादी करने के लिए उत्सुक हैं। अम्मू की मां ने कहा, सबसे छोटी ही बची है। उस वक्त अम्मू 13 साल की थी और स्वामीनाथन लगभग उनसे उम्र में 20 साल बड़े थे। उनकी मां ने उनको यह कहकर मना कर दिया कि वह बहुत चंचल स्वभाव की है घर क्या संभालेगी? तब स्वामीनाथन ने खुद अम्मू से बात करने की इच्छा जाहिर की। उनको अम्मू की बातें अच्छी लगीं और उन्होंने पूछ लिया, क्या तुम मुझसे शादी करोगी? अम्मू बचपन से ही मुखर स्वभाव की रही है। अतः स्वामीनाथन के पूछने पर उन्होंने मुखरता से कहा, कर सकती हूं पर मेरे कुछ शर्त है। मैं गांव में नहीं, शहर में रहूंगी और मेरे आने-जाने के बारे में कोई कभी सवाल न पूछे क्योंकि उन्होंने शुरू से ही अपने घर में अपने भाइयों से कोई सवाल होते हुए नहीं देखा था। स्वामीनाथन ने सारी शर्तें मान लीं।
अपनी शादीशुदा जिंदगी में भी अम्मू स्वामीनाथन को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि वह एक छोटे जाति से थी और उनके पति ऊंची जाति ब्राह्मण से, जिसकी वजह से उन्हें उनके पति के पैतृक घर में भी जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा।
उस जमाने में किसी ब्राह्मण की शादी नायर महिला से नहीं होती थी, केवल संबंध स्थापित करना संभव था। स्वामीनाथन संबंध जैसी प्रथा के सख्त विरोधी थे। उन्होंने अम्मू से साल 1908 में शादी की और विलायत जाकर कोर्ट मैरिज भी की। ब्राह्मण समाज ने इस शादी का जमकर विरोध किया पर स्वामीनाथन ने समाज की परवाह किए बिना हमेशा अम्मू स्वामीनाथन का हौसला अफजाई किया। उन्होंने उनको घर पर ट्यूटर रखकर उन्हें पढ़ाया। अम्मू ने मन लगाकर पढ़ाई की फिर अंग्रेजी बोलने लगी और सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगी। डॉक्टर स्वामीनाथन हमेशा अम्मू को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते थे। उन्हीं की प्रेरणा से वह स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हुईं। 1934 में वह तमिलनाडु में कांग्रेस का प्रमुख चेहरा बन गईं। उन्होंने साल 1917 में मद्रास में एनी बेसेंट, मालती पटवर्धन, मार्गरेट, श्रीमती दादा भाई और श्रीमती अंबुजमल के साथ मिलकर “महिला भारत संघ” की स्थापना की। इसके तहत उन्होंने महिला अधिकारों और सामाजिक स्थितियों के जिम्मेदार कारणों पर अपनी आवाज बुलंद की। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदार होने की वजह से उन्हें एक साल के लिए वेल्लोर जेल भी जाना पड़ा था।
और पढ़ें : तारा रानी श्रीवास्तव : स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल गुमनाम सेनानी| #IndianWomenInHistory
अम्मू स्वामीनाथन ने भीमराव आंबेडकर के साथ मिलकर संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने में भी अहम भूमिका निभाईं। उन्होंने संविधान में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने की बात प्रमुखता से रखी। 1952 में तमिलनाडु के डिंडिगुल लोकसभा से चुनाव जीतकर वह संसद में पहुंचीं। वह तमिलानाडु की तेज तर्रार गांधीवादी नेता थीं। 1959 में जब सत्यजीत राय फेडरेशन ऑफ फिल्म सोसाइटी के प्रेसिडेंट थे तब वह इसकी वाइस प्रेसिडेंट बनी। बाद में उन्होंने सीबीएफसी, भारत स्काउट्स एंड गाइड का भी नेतृत्व किया। अम्मू स्वामीनाथन के चार बच्चे थे दो बेटे और दो बेटियां। उन्होंने सभी बच्चों को समान शिक्षा और समान अवसर प्रदान किया था। सभी को अपनी पसंद का करियर चुनने की आजादी दी थी। अम्मू लैंगिक और जातिगत उत्पीड़न का हमेशा से विरोध करती थी। नायर जाति होने के कारण उन्होंने जातिगत उत्पीड़न को करीब से देखा था। उन्होंने खुद को “पंडित जी” कहलवाने पर नेहरू जी की भी निंदा की थी क्योंकि यह टाइटल उनके उच्च जाति को दर्शाता था। हालांकि बाद में जवाहरलाल नेहरू ने इसकी वजह दी थी कि वह किसी से पंडित कहने को नहीं कहते लोग उन्हें कहते हैं पर फिर भी अम्मू को इस बात से परेशानी थी कि वो “पंडित जी” कहे जाने पर कोई प्रतिक्रिया क्यों देते हैं।
अपनी शादीशुदा जिंदगी में भी अम्मू स्वामीनाथन को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि वह एक छोटे जाति से थी और उनके पति ऊंची जाति ब्राह्मण से, जिसकी वजह से उन्हें उनके पति के पैतृक घर में भी जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। उनकी बेटियों को घर के बाहर बरामदा में खाना खाने की अनुमति थी क्योंकि उनके पति के परिवार के अनुसार वे संपूर्ण ब्राह्मण नहीं थी जिसका अम्मू स्वामीनाथन ने विरोध किया और ऐसी-ऐसी रितियों के खिलाफ अभियान भी चलाया। 4 जुलाई 1978 को केरल में उनका निधन हुआ। अम्मू ने बचपन से ही गलत के खिलाफ आवाज उठाना सीखा था। अपनी बात को मुखरता से कहना सीखा था। उनका व्यक्तित्व संभावनाओं से परिपूर्ण था। वह संभावनाएं जो एक आम स्त्री के अंदर दबकर रह जाती हैं।
और पढ़ें : हंसा मेहता : लैंगिक संवेदनशीलता और महिला शिक्षा में जिसने निभाई एक अहम भूमिका| #IndianWomenInHistory
तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया