फिल्म जगत में जो भी अव्वल प्रदर्शन करते हैं उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा जाता है। नवाजा भी जाना चाहिए क्योंकि इन्हीं की वजह से आज यह जगत बन पाया है जो लाखों लोगों को रोजगार देता है। भारतीय सिनेमा जगत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को बनाने वाले दादा साहब फाल्के को तो सभी जानते हैं, लेकिन बहुत कम लोग ही उनकी पत्नी सरस्वती बाई फाल्के को जानते हैं, जिनके बिना दादा साहब फाल्के की पहली फिल्म कभी बन ही नहीं पाती। दरअसल उनकी पहली फिल्म का निर्माण सरस्वती बाई फाल्के के दृढ़ निश्चय और असाधारण सहयोग के कारण ही संभव हो पाया था।
सरस्वती बाई की शादी 14 वर्ष की उम्र में ही घुंडीराज गोविंद फाल्के जिन्हें आमतौर पर दादा साहब फाल्के कहा जाता था, तय कर दी गई थी। वह विधूर थे। उनकी पहली पत्नी की मृत्यु 1899 में प्लेग महामारी से हुई थी। फिर उनकी शादी कावेरी बाई यानी सरस्वती से तय कर दी गई। कावेरी बाई उनसे उम्र में लगभग 19 वर्ष छोटी थी। इसलिए पहले तो दादा साहब ने इस शादी के लिए साफ इमकार किया था लेकिन फिर परिवार वालों के दबाव की वजह से 1902 में उन्होंने कावेरीबाई से शादी की। मराठी समाज के रीती-रिवाजों के अनुसार कावेरी बाई का नाम बदल कर सरस्वती बाई रख दिया गया।
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फिल्म जगत में जाने से पहले दादा साहब ने कई काम किए। एक बार उन्होंने अपना प्रिंटिंग प्रेस भी शुरू किया था। जिसमें युवा होने के बाद भी उनकी पत्नी ने उन्हें बहुत सहयोग किया था। साल 1910 में दादा साहब अपनी पत्नी सरस्वती बाई को एक अमेरिकन शॉर्ट फिल्म ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ दिखाने ले गए। इसके पहले सरस्वती बाई ने सिर्फ स्थिर चित्र देखे थे लेकिन यहां पर्दे पर चलते-फिरते चलचित्र को देखकर वह काफी प्रभावित हुई। इसके बाद फाल्के उन्हें प्रोजेक्टर रूम में लेकर गए और कहा कि वह भी एक दिन फिल्म बनाएंगे। फिल्म बनाने के सपने को लेकर उनके परिवारवाले और दोस्तों ने उन पर काफी तंज कसा और उनका मजाक बनाया लेकिन सरस्वती बाई ने उन्हें हमेशा प्रोत्साहित किया।
सरस्वती बाई फाल्के के बिना दादा साहब का फिल्म बनाने का सपना कभी पूरा नहीं हो पाता। लेकिन फिर भी इस पुरुष-प्रधान समाज में उन्हें वह पहचान नहीं मिल पाई जो दादा साहब को मिली।
दादा साहब ने जैसे-तैसे फिल्म का निर्माण शुरू किया और इसके लिए कहानी पर काम करने लगे। रुपाली भावे की किताब “लाइट्स, कैमरा, एक्शन” के मुताबिक, सरस्वती बाई और उनके बच्चे भी कहानी पर साथ में मंथन करते। किसी आइडिया को सरस्वती बाई मना कर देती तो किसी को उनके बच्चे। अंत में उन्होंने राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म बनाने की ठानी क्योंकि यह हिंदू पौराणिक कथा थी तो दर्शक इसे पसंद करते। जब दादा साहेब एक फिल्म निर्माता के रूप में उभरे तब उनकी पत्नी ने ना सिर्फ उनको सहारा दिया बल्कि वे उनके फिल्म निर्माण का एक अहम हिस्सा रहीं।
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फिल्म के निर्माण में पोस्टर बनाने से लेकर फिल्म की एडिटिंग तक, हर जगह सरस्वती बाई ने दादासाहेब फाल्के की मदद की। फाल्के ने उन्हें कैमरा चलाने से लेकर एडिटिंग के लिए शॉट्स हटाने और लगाने तक सभी कुछ सिखाया। उनकी पत्नी सेट पर भरी दोपहरी में घंटों सफेद रंग की चादर लेकर खड़ी रहती थी। यह सफेद चादर उस समय लाइट रिफ्लेक्टर का काम करती थी। इसके अलावा फाल्के के निर्देशन में उन्होंने फिल्म डेवलपिंग, मिक्सिंग और फिल्म पर केमिकल कैसे इस्तेमाल करना है, यह सब सीखा और इस तरह से भारत के पहले फिल्म राजा हरिश्चंद्र की एडिटिंग सरस्वती बाई फाल्के ने की। इन सबके अलावा इस पितृसत्ता समाज में वह एक औरत थी तो उनकी खुद की जिम्मेदारियां तो थी ही। लेकिन उन्होंने कभी भी उन जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा।
बहुत कोशिश और खोज करने के बाद भी जब दादा साहब को अपनी फिल्म के लिए कोई अभिनेत्री नहीं मिल रही थी तो वह चाहते थे की सरस्वती बाई फाल्के ही उनकी फिल्म में बतौर अभिनेत्री अभिनय करें। लेकिन उन्होंने यह कहकर इस पात्र के लिए मना कर दिया कि यदि मैं अभिनय करूंगी तो बाकी यह सारे कार्य जो मैं कर रही हूं वह कौन करेगा। तब दादा साहब ने एक पुरुष को ही अभिनेत्री बनाया। 1944 में दादा साहब फाल्के की मौत के बाद सरस्वती बाई ने उनके साथ अपने जीवन के सफर पर एक आत्मकथा लिखी थी जो दुर्भाग्यवश कहीं खो गई। उनके बिना दादा साहब का फिल्म बनाने का सपना कभी पूरा नहीं हो पाता। लेकिन फिर भी इस पुरुष-प्रधान समाज में उन्हें वह पहचान नहीं मिल पाई जो दादा साहब को मिला। उनके कठिन परिश्रम को आमतौर पर पति का सेवा का नाम दे दिया गया।
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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया