भावना शर्मा
नारीवाद वह विचारधारा है जो महिलाओं को समाज में समानता दिलाने की बात करती है। नारीवाद से अभिप्राय केवल अधिकार सुनिश्चित करना ही नहीं बल्कि उन अधिकारों को व्यवहार में लाना और देश के कोने-कोने तक हर व्यक्ति को इन अधिकारों से अवगत कराना नारीवादी विचारधारा का लक्ष्य है। नारीवाद शब्द के अर्थ को कई लोग समझते हैं कि यह वह विचारधारा है जो केवल महिलाओं को सशक्त बनाने पर बल देती है लेकिन यह केवल एक मिथ्य है। सच यह है कि यह विचारधारा हर उस समुदाय के अधिकार की बात करती है जो शोषित और वंचित है, वे अधिकार जो उन्हें आजतक नहीं मिले। लेकिन वहही अधिकार पुरुषों के लिए आम बात है। इसलिए नारीवाद उन अधिकारों को महिलाओं के लिए सुनिश्चित करने पर बल देता है, जिन अधिकारों का उपभोग पुरुष जन्म से करता आया है।
इंटरसेक्शनल फेमिनिज़म है ज़रूरी
इंटरसेक्शनल फेमिनिज़म यानी समावेशी नारीवाद वह विचारधारा है जो केवल महिला और पुरुष के बीच बराबरी की ही बात नहीं करता बल्कि समाज के हर उस तबके को समानता दिलाने पर बल देता है जो हाशिए पर है। अगर हम केवल नारीवाद की बात करें तो यह महिलाओं की व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक समानता की बात करता है और हर उस बाधा को हटाने पर ज़ोर देता है जो इन महिला और पुरुषों के बीच असामनता पैदा करती है। दूसरी तरफ समावेशी नारीवाद की बात करें तो यह समाज में व्याप्त हर नस्ल, लिंग, रंग, जाति, धर्म, वर्ग, यौनिकता के आधार पर लोगों को समान अधिकार और समान अवसर प्रदान करने पर बल देता है।
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इंटरसेक्शनल फेमिनिज़म को पहली बार अमरीकी प्रोफेसर किंबर्लेे क्रेंशाव ने साल 1989 में परिभाषित किया था। उन्होंने साफ स्पष्ट किया कि महिलाएं अनेक स्तर पर दमन का शिकार होती हैं प्रत्येक महिला के साथ होने वाला भेदभाव समान होता है लेकिन उस भेदभाव के आधार अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए गोरे रंग की महिला को भी यौन शोषण का सामना करना पड़ता है, उसके साथ भी हिंसा होती है। वहीं, दूसरी तरफ ब्लैक महिला पर लोग हंसते हैं, उनके रंग के आधार पर उनके साथ हर जगह भेदभाव होता है, कार्यस्थल पर भी उन्हें अपने रंग के कारण अधिक काम कम वेतन पर करना पड़ता है। यहां पर दोनों महिलाओं के साथ भेदभाव होता है लेकिन अलग-अलग आधार पर। इसलिए इंटरसेक्शनल फेमिनिज़म समाज की प्रताड़ित महिलाओं को समाज में समानता एवं सम्मान दिलाने की बात करता है।
समावेशी नारीवाद सभी के लिए है। यह समाज के प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति के अधिकारों पर बात करता है। समावेशी नारीवाद ना केवल अधिकार बल्कि उन अधिकारों को व्यवहार में लाने पर बल देता है।
भारत के परिपेक्ष्य में समावेशी नारीवाद
नारीवाद को सिर्फ पश्चिमी देशों के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। इस पर अध्ययन के दौरान अलग-अलग सभ्यताओं और संस्कृतियों के नजरिए को ध्यान में रखना चाहिए। आइए अब हम समावेशी नारीवाद को भारत के परिपेक्ष्य में समझने का प्रयास करते हैं। भारत में समावेशी नारीवादी विचारधारा समाज की सभी महिलाओं के साथ-साथ हाशिए पर होने वाली महिला संबंधित मुद्दों को रेखांकित करती है। इसके तहत इस चुनौती का सामना किया जाता है कि किस तरह सामाजिक ढांचे में अलग-अलग आधारों पर महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। अलग-अलग आधारों जैसे जाति, वर्ग, धर्म, यौनिकता, विकलांगता आदि के आधार पर स्वयं को महिला और अन्य अल्पसंख्यक, पिछड़े, दमित-शोषित वर्ग परिभाषित करते हैं। इन्हीं आधारों का अध्ययन समावेशी नारीवाद में किया जाता है।
समावेशी नारीवाद सभी के लिए है। यह समाज के प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति के अधिकारों पर बात करता है। समावेशी नारीवाद ना केवल अधिकार बल्कि उन अधिकारों को व्यवहार में लाने पर बल देता है। भारत में पितृसत्ता का बोलबाला है। पितृसत्ता एक ऐसी कुरीति है जो लाभ तो पुरुष को देती है लेकिन इसका प्रचार करने वालो की संख्या में पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाएं भी हैं। इंटरसेक्शनल फेमिनिज़म इन सभी आधारों पर होने वाले भेदभाव और हिंसा को चुनौती देता है। आमतौर पर नारीवाद को पश्चिम की विचारधारा समझा जाता है लेकिन यह सच नहीं है। नारीवाद हर उस समाज की स्थिति पर चिंतन करता है, हर उस व्यक्ति का समर्थन करता है जो अधीन है। भारत में सती प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, नस्लीय भेदभाव, जातिगत हिंसा और भेदभाव ब्राह्मणवादी पितृसत्ता आदि समस्याएं हमेशा ही हावी रही हैं। इन सभी का विरोध और समानता स्थापित करने का अध्ययन समावेशी नारीवाद करता है।
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(यह लेख भावना शर्मा ने लिखा है, जो मिरांडा हाउस में बीए की छात्रा हैं)
तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए
Well written✨✨