नारीवाद चौथाई ज़िंदगी के भ्रमित नारीवादी विचार

चौथाई ज़िंदगी के भ्रमित नारीवादी विचार

मेरा नारीवादी यूटोपिया है कि मैं निडर होकर मेहंदी लगे हाथों से किताब पढ़ रही हूं किसी पब्लिक पार्क की हरी दूब पर बैठकर। मेरे अंगूठों में मेरे ही नाम के चांदी के छल्ले हैं। मेरे पांव पर थोड़ी-सी धूप है और थोड़ी-सी धूल है और मुझे अपनी ख़ुशी और आज़ादी इसी बात पर मंज़ूर है कि सबको मिले।

आजकल ऐसा लगता है कि दिन का हर काम औरत होने की चेतना के साथ होता है। ज़्यादातर दिन औरत होना बुरा नहीं लगता। समाज के स्थूल और सूक्ष्म उत्पीड़न का इतिहास मेरे शरीर से होकर गुज़रता है, ये उत्पीड़न और उपेक्षा को समझना आसान बना देता है। मेरा शरीर मेरी राजनीति है, अपने शरीर से बाहर निकलना मेरी राजनीति है। इसी अंदर-बाहर के प्रपंच से जब राहत मिलती है, तो अध्यात्म मिलता है, धर्म मिलता है। यही पूरा जत्था है। पर कई दिन लगता है धरती फटे और समा जाऊं, भविष्य में कोई आकांक्षा, कोई आशा नहीं दिखती। बचपन से कितनी बार सुना है कि रामायण राम की आदर्श, मार्मिक मानव कथा है, अब लगता है कि वह सीता का डिस्टोपियन काफ़्कानुमा उपन्यास है। वह मिथक मन में घूमता रहता है जब घर से बाहर निकलती हूं और अपनी सुरक्षा के लिए इतना सारा सामान लेकर जाती हूं। अपनी सहेलियों को अपनी लाइव लोकेशन भेजती हूं और लगातार मैप्स पर रास्ते को देखती हूं। जब रात में किसी ट्रेन स्टेशन पर अकेली सिमटकर अपनी गाड़ी का इंतज़ार करती हूं, या सुबह पौ फ़टने से पहले कहीं से कहीं पहुंचने की कोशिश करती हूं तो हार-सी जाती हूं। यूं लगता है कि जीवन इसी डर में निकल जाना है। उस वक़्त सारे पुराण, आख्यान, किताबी ज्ञान, संविधान सब बेकार की बात लगती है। ऐसी निराशा में अपनी नागरिकता, रिश्तेदारी, सामाजिक करार सब पर सवाल उठने लगते हैं। 

लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं ख़्वाबों के बारे में। जो मेरे जीवन में घट सकता है, वह अक्सर मेरे ख़्वाबों में घट जाता है। मैं अक्सर उठती हूं और ख़ुद को तसल्ली देती हूं, “देखो तुम बिलकुल अकेली पड़ी हो अपने बिस्तर पर। इस शहर में ज़्यादातर लोग अंजान हैं। यहां तुम बच जाओगी शायद।” अकेले रहने की महत्त्वाकांक्षा का क्या किया जाए। अपने कमरे में कई बार याद आता है कि इस शनिवार को भी मेरे परिवार के लोग अपनी किसी प्रार्थना में मुझे ताड़ना की अधिकारिणी मान रहे होंगे। फिर वे दीये की साक्षी रोशनी में मेरे साथी नागरिकों की जगह अपनी सामाजिक संरचना में पढ़ देंगे। ये लोग कौन हैं और मैं कौन हूं? मैं किस पक्ष में खड़ी हूं, मैं किसके पहलू में पड़ी हूं। जो लोग मेरा भला चाहते हैं, वे मुझे कब तक बचाएंगे और किससे? यूं तो मुझे किसी ने कभी नहीं बचाया। अपने घर में, अपने शहर में कितनी बार मैंने क्या-क्या देखा। उन सबको कितनी जल्दी माफ़ी अता हो गई। ये लोग आज मुझ पर पारिवारिक, धार्मिक और सामाजिक सत्ता जताते हैं तो मैं उसका क्या जवाब दूं।

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जब मैं समाज और सार्वजनिक विमर्श में अपनी भागीदारी दर्ज़ करती हूं, तो मुझे आसानी से ख़ारिज कर दिया जाता है। इसके साथ मेरी पात्रता पर सवाल खड़े करने के लिए पुराने टेम्पलेटों का सहारा लिया जाता है। मेरे पढ़ने-लिखने पर ख़ेद जताना एक रोज़मर्रा की गतिविधि है। पहली बार आश्चर्य हुआ, दूसरी बार हंसी आई, तीसरी बार गुस्सा आया और उसके बाद से निराशा होती है। कोशिश होती है कि मेरे पूरे सफ़र को भ्रम जता दिया जाए। यूं तो किताबों में भी कोई सच नहीं होता और अनुभव भी बदलते रहते हैं, पर इनकी बिना पर तैयार की गई अपनी समझ पर भरोसा रखना मेरा नारीवाद कृत्य है। 

मेरा नारीवादी यूटोपिया है कि मैं निडर होकर मेहंदी लगे हाथों से किताब पढ़ रही हूं किसी पब्लिक पार्क की हरी दूब पर बैठकर। मेरे अंगूठों में मेरे ही नाम के चांदी के छल्ले हैं। मेरे पांव पर थोड़ी-सी धूप है और थोड़ी-सी धूल है और मुझे अपनी ख़ुशी और आज़ादी इसी बात पर मंज़ूर है कि सबको मिले।

घर से निकलने के किस कदम पर देश शुरू होता है, ये नहीं जानती पर देश का हर कोना घर लगता है। देश की नींव तो समानता पर रखी गई, हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने हमें बराबरी के अधिकार दिए। देश की आज़ादी में औरतों की आज़ादी का एक अलग पहलू साथ चल रहा था। बचपन में जब पॉलिटिकल साइंस की किताब में पहली बार पढ़ा था कि मूल अधिकार सिर्फ़ देश से लिए जा सकते हैं, लोगों से नहीं। तब भी मेरी नारीवादी चेतना ने तय किया था की देश की नागरिक बनना मेरे लिए प्राथमिक होगा। पर देश की सत्ता और घर की सत्ता साथ-साथ चलती हैं। जो लोग अपनी जाति, क़ौम, लिंग के आधार पर अपना स्वामित्व स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, वो देश में भी हैं और घर में भी। सत्ता से सहानुभूति रखने का भी यही तरीका है, उससे लड़ना अपनों से लड़ना है। 

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पर कई बार एक अंधा रोष पेट से आग की तरह उठता है। इस गुस्से का क्या करूं? रोज़ कितना समय, कितने प्रयास लगते हैं इस गुस्से से जूझने में। क्यों मेरी भतीजी के जन्म पर दुख है? क्यों किसी ने मेरी मां की जन्मतिथि दर्ज़ करना ज़रूरी नहीं समझा? क्यों मेरी बहनें दहेज़ के सामने सिर टेककर बैठी हैं? क्यों मैंने पूरे जीवन अपनी निरक्षर दादी-नानी को कृपा की दृष्टि से देखा? मेरी अच्छी सहेलियां जो सबके लिए अच्छी औरतें बनना चाहती थीं, क्यों निराशा और दुख से घिरी रहती हैं? क्यों मुझे सतही अनुभव जीने पड़ते हैं? क्यों मेरे कपड़ों में जेब नहीं है? क्यों मेरे पैर कुर्सी के नीचे तक नहीं पहुंचते? मेरा परिवार, मेरा शहर, मेरा देश मेरी ज़िन्दगी की हर शह को जंग क्यों बना देता है? क्यों मेरे घर की औरतों का काम, काम नहीं है?  मेरा सबसे पसंदीदा कवि नारी द्वेषी क्यों है? मेरी संस्कृति जाति की ऊंच-नीच पर क्यों टिकी है? जिन आदमियों ने हमें उत्पीड़न के घूंट पीने की समझ दी, हम क्यों उनके सामने अपनी सहमति के संबंधों का सत्यापन करने की गुहार करते हैं? मुझे अपनों की वफ़ा से ज़्यादा अंजानों की भलाई की हाजत क्यों है? सवालों की एक पगडंडी है जो एक कुंए तक जाती है। 

इस प्रपंच के केंद्र में शादी है। आदमी द्वारा अपनी कथित ज़िम्मेदारी, औरतों को दूसरे आदमियों को सौंपकर अपने जीवनयज्ञ का निबटारा करना। पहले तोड़ना पैर, फिर हाथ पकड़कर चलने का वादा करना। ऐसे वादे वफ़ा करने की उम्मीद का क्या अर्थ है? पहले अकेले होने का शदीद डर पैदा करना, फिर आधुनिक सभ्यता के साथ मिलकर अकेलेपन का एक ख़ाली माहौल तैयार करना। इनके ख़ून की पवित्रता के यज्ञ में अपना ख़ून क्यों मिलाने का क्या पुण्य है  और जो आदमी जाग गए हैं हमारी स्थिति पर, जो हमारे साथी बनना चाहते हैं उनकी नादानी पर कभी प्यार आता है, कभी गुस्सा। ओ अच्छे आदमियों! तुम नहीं हो मेरे नगर के नागरिक। तुम मेरे साथी नहीं हो। मैं तुम्हें देखती हूं तो पहली बार तुम पर शक़ ही करती हूं। तुम्हारे उत्पीड़क होने की संभावना पर ग़ौर करती हूं। मेरे घर के आदमी, मेरे सारे दोस्त, मेरे जानने वाले आदमी कई औरतों के लिए ख़तरनाक साबित हुए हैं। तुम ख़तरनाक नहीं निकलते तो मुझे ऐसा सोचने के लिए बुरा लगता है, ग्लानि होती है। हम बराबरी का तकाज़ा कैसे करें? मैं हर तरह से तुम्हारे साथ न्याय करना चाहती थी। पर हमारे बीच कितना छरहरा भरोसा है। हमारा साथी होना मुश्किल प्रक्रिया है, मेरे दोस्त। इतना क्या कम है कि मैं तुम्हारी दुनिया में जी रही हूं। 

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साथ का ख़याल भी मुझे तसल्ली नहीं देता। मैंने साथ रहने की हिंसा देखी है जीवनभर। सोचती हूं तो मेरी खाल की रंगत बदल जाती है। हिंसा के साथ समझौता करना औरतों की निजी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा है। उसकी स्मृति हमेशा के लिए एक कड़वाहट घोल जाती है पर हिंसा का सीधा रिश्ता अक्सर “घर की शांति” और “सबकुछ ठीक हो जाने की उम्मीद” जैसी अहिंसक भावनाओं से होता है। घर और उम्मीद हमारे लिए आसान नहीं हैं। मैं ख़ुद से वादा करती हूँ कि मैं उन लोगों से नफ़रत नहीं करूँगी, जिन्हें भला बनने के लिए कोई प्रलोभन नहीं मिला। जब घर-परिवार में वह सब हो रहा था तो स्कूल की किताबों में ग़लत था, गुनाह था तो निजात यही थी कि किसी दिन लिखूंगी। जब निराशा में लगता है कि लिखने से कुछ नहीं होगा, तब लिखना शुरू करती हूं। नारीवादी पर्चों को पढ़ती हूं तो हिम्मत मिलती है। सत्ता और संपत्ति से दूर ऐसी कई जगह हैं जहां जाऊंगी और निखरकर लौटूंगी। अब ऐसा तो होगा नहीं कि शादी की उम्र हो गई है तो फेंक दूंगी अपने पुराने जामे और एकदम राजा रवि वर्मा की तस्वीर हो जाऊँगी। जिन औरत-आदमियों ने यहाँ खड़ा किया, उनको धप्पा बोलकर किसी सुरंग में नहीं छिप पाऊंगी। मेरा गांव है, मेरा शहर है, मेरा देश है, इसको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। यहीं पढूंगी अपने मंत्र, भजन, पैम्फलेट, गीत, उपन्यास, कविता, कहानी, इतिहास, मिथक, राजनीति। मैं रहूंगी घर में, रसोई में, बैठक में, आंगन में, रास्तों पर। 

मैं ही आऊंगी और ख़ुद को बचाऊंगी। मुझे अगर सफ़र में नहीं मिल गए होते अपने पांव, तो किस पर रखती अपना धड़ और हमेशा ख़यालों से लबरेज़ ये दिमाग़। मैं इतनी भ्रमित भी नहीं कि भूल जाऊं कि मेरी लड़ाई बहुत बहुत छोटी है। मैं भी कोई साहसी स्टॉइक बन जाना चाहती हूं, ये औरत की ज़िंदगी का रोना भी आख़िर रोना है। एक दिन निगल जाएगी अपनी ही आग। मैं भी चाहती हूं कि एक दिन औरत न रहूं। मेरा नारीवादी यूटोपिया है कि मैं निडर होकर मेहंदी लगे हाथों से किताब पढ़ रही हूं किसी पब्लिक पार्क की हरी दूब पर बैठकर। मेरे अंगूठों में मेरे ही नाम के चांदी के छल्ले हैं। मेरे पांव पर थोड़ी-सी धूप है और थोड़ी-सी धूल है और मुझे अपनी ख़ुशी और आज़ादी इसी बात पर मंज़ूर है कि सबको मिले।

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तस्वीर साभार : GenderIT

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