हमारे संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर ने कहा था, “किसी समाज की प्रगति को उसकी महिलाओं की प्रगति से आंकना चाहिए”, यानी किसी भी सरकार की सफलता की कहानी समाज के महिलाओं और हाशिए पर जी रहे समुदायों के विकास से परखनी चाहिए। पिछले कुछ दिनों से विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र पश्चिम बंगाल में महिलाओं के विकास का नारा बुलंद होते हुए देखा गया है। हालांकि यह राज्य कोरोना काल से ही अलग-अलग विवादों से घिरा था पर चुनाव को लेकर राज्य में अलग-अलग नेताओं का अपने पद से इस्तीफा देना, दूसरी पार्टी में जाना, व्यक्तिगत रिश्तों में उतार-चढ़ाव और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर हमले की खबर से बंगाल लगातार सुर्खियों में बना हुआ है। चुनाव से पहले राजनीतिक लाभ के मद्देनजर सामाजिक मुद्दों को उठाना या अलग-अलग विकास योजनाओं की घोषणा करना भारत में अब प्रथा बन चुकी है। लेकिन चुनाव के यह पहली बार था जब पश्चिम बंगाल अधिकतर महिलाओं के मुद्दों में उलझा हुआ है। गौरतलब हो कि ये मुद्दे महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा या रोजगार से जुड़े नहीं हैं। ये उन बहुचर्चित नेताओं के व्यक्तिगत जीवन की सार्वजनिक तू-तू मैं-मैं वाली घटनाएं हैं। इस विधानसभा चुनाव में जहां, महिलाओं के विकास के मुद्दों पर जोर देती राजनीतिक पार्टियां जहां बुनियादी मुद्दों से भटक रही हैं, वहीं टीवी चैनलों के प्राइम टाइम ने भी इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी है।
बंगाल की लगभग 49 फीसद महिला मतदाताओं की भूमिका को सभी राजनीतिक दल समझ चुके हैं। शायद इसलिए राजनीतिक सभाओं और रैलियों में महिलाओं के सशक्तिकरण की योजनाओं को महत्व देते पाया जा रहा है। लेकिन इन सब के बीच अलग-अलग पार्टियों के नेताओं द्वारा एक-दूसरे के निजी जीवन को महत्व देने और उस पर छींटाकसी करने की एक नई परंपरा की शुरुआत हुई। हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के सांसद और पश्चिम बंगाल युवा मोर्चा के प्रमुख सौमित्र खान की पत्नी सुजाता मंडल खान को तब झटका लगा जब उनके तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने के महज एक दिन बाद ही उनके पति ने उन्हें तलाक का नोटिस भेजा दिया। कई हफ्तों तक सुर्खियों में रही इस खबर ने ऐसा तूल पकड़ा कि उनके व्यक्तिगत जीवन की कहानी पूरा भारत जान चुका था। एक सफल लोकतंत्र और महिलाओं की सशक्तिकरण का ताल ठोकती बीजेपी के नेता की उनकी पत्नी के प्रतिद्वंद्वी दल में शामिल होने मात्र से, दस सालों की रिश्ते की सार्वजनिक घोषणा, महिलाओं के विचार, उनके फैसलों की अहमियत और लोकतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगाता नजर आया।
और पढ़ें : क्या राजनीतिक विचारधारा अलग होने से शादियां टूट सकती हैं ?
बंगाल की राजनीतिक पार्टियां इतने पर भी नहीं रुकी और दोबारा बीजेपी नेता शोभन चैटर्जी, उनकी पत्नी रह चुकी रत्ना चैटर्जी और वर्तमान साथी बैसाखी बनर्जी के विवादों से घिरी रही। साल 2019 में भाजपा में शामिल होने से पहले टीएमसी में रह चुके शोभन पूर्व बेहाला की अपनी पारंपरिक विधानसभा सीट से टिकट न मिलने के कारण बीजेपी से अपना इस्तीफा दे दिया। मीडिया में आई खबरों के अनुसार पार्टी ने उनकी साथी बैसाखी बनर्जी के बेहला पश्चिम से टिकट दिए जाने की उनकी मांग को खारिज कर दिया था। राज्य की राजनीति ने पिछले कुछ वर्षों से शोभन और रत्ना के विवादों में सक्रिय भूमिका निभाई है। इस जोड़े का एक-दूसरे पर छींटाकसी करने या शोभन के उनके वर्तमान साथी से संबंध की खबरें दोबारा राजनीतिक आवरण पहनी और चैनलों की मुख्य खबर में नज़र आई।
बहरहाल, पश्चिम बंगाल ने सांस्कृतिक पतन में एक नई छलांग तब लगाई जब बंगाल के मुख्यमंत्री पर हमले की घटना हुई। सभी चैनल ब्रेकिंग न्यूज दिखाने के चक्कर में घटना में घायल हुईं ममता बनर्जी को घटनास्थल पर घेरे हुए थे। कुछ ही दिनों पहले ही इस राज्य ने जहां बेबाक ममता को चुप कराता ‘जय श्री राम’ का नारा सुना था। वहीं अब यह ‘दीदी एकटु बांग्लाए बोलबेन’ (दीदी थोड़ा बांग्ला में बोलिए) सुन रहा था। निस्संदेह ही आगे बढ़ने की होड़ में लगभग सभी टीवी चैनल महिलाओं की सुरक्षा, स्वास्थ्य या शिक्षा जैसे अहम मुद्दे भूल चुका था। इन्हीं विवादों के बीच ममता बनर्जी का पुरुलिया में एक सभा को संबोधित करते हुए 18 से 60 वर्ष से ऊपर तक की विधवाओं के लिए पेंशन योजना की घोषणा और महिलाओं के रोजगार को बढ़ाने के लिए स्वयं सहायता समूह के अंतर्गत 25 करोड़ तक की बैंक लोन की बात करना उम्मीद की किरण है। वहीं, उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी का यह कहना कि उन्होंने बीजेपी सरकार को ‘जय श्री राम’ के बजाए ‘जय सिया राम’ कहने पर मजबूर कर दिया है, दकियानूसी सोच ही दर्शाता है। जिस सामाजिक व्यवस्था में राम हमेशा मर्यादा पुरुषोत्तम ही रहते हैं और सीता अग्निपरीक्षा प्रार्थी, वहां महिलाओं के असल सशक्तिकरण पर सवाल उठना लाज़मी है।
और पढ़ें : बात पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ‘दीदी’ उर्फ़ ममता बनर्जी की
पश्चिम बंगाल हमेशा से अपने कला, संस्कृति, खान-पान, क्रांतिकारी विचारों और महिला सशक्तिकरण के लिए प्रसिद्ध रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर अगर हम गौर करें तो बंगाल को एक अहम भूमिका निभाते हुए पाएंगे। यह वही बंगाल है जहां प्रीतिलता वद्देदार और मातांगनी हाज़रा जैसी क्रांतिकारियों का जन्म हुआ। नक्सल आंदोलन में पुलिस के अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठाने की बात हो या ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वाधीनता की लड़ाई हो या महिलाओं की अधिकारों की बात हो, बंगाल की महिलाओं को हमेशा मुखर होते पाया गया है।
ऐसे में, पिछले दस सालों से एक महिला मुख्यमंत्री के राज्य में शासन के बावजूद चुनावों में महिलाओं का केवल वस्तु विशेष या चुनावी चेहरे की तरह इस्तेमाल किया जाना किसी भी राज्य के लिए बदकिस्मत ही नहीं उसके विकास में बाधा भी बन सकती है। बंगाल की राजनीति में यह पहली बार नहीं है जब टॉलीवुड सितारों को टिकट दिया गया हो। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी टीएमसी की नुसरत जहान को लेकर ऐसे ही विवाद और पार्टियों के बीच कहासुनी नजर आई थी। नुसरत जहान को मंदिर में दुर्गा पूजा में भाग लेने के लिए न सिर्फ मुस्लिम समुदाय बल्कि दूसरे पार्टियों से भी आलोचना का सामना करना पड़ा था। पिछले चुनाव के दौरान मिमी चक्रबर्ती और नुसरत जहान के नाम घोषित होने के बाद तुरंत ही उनके पहनावे, उनके काम को लेकर उन्हें बहुत ट्रोल किया गया था।
राज्य के विकास के मुद्दों को छोड़ व्यक्तिगत मुद्दों का राजनीतिकरण न सिर्फ शर्मनाक है बल्कि इन घटनाओं के पीछे समाज की उस पितृसत्तात्मक सोच की झलक देखने को मिलती है। जहां महिलाओं के जीवन या मूल्यों का किसी पुरुष के मार्गदर्शन या अगवाई के बिना कोई महत्व नहीं। ऐसे ढांचे में महिला के व्यक्तिगत, राजनीतिक या सामाजिक निर्णय किसी पुरुष संरक्षक के इर्द-गिर्द घूमती रहेगी। भले ही गत महिला दिवस पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने महिला कार्यकर्ताओं के साथ पदयात्रा निकाली हो या गृहमंत्री अमित शाह ने बीजेपी के जीतने पर महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की बात की हो, बंगाल को ‘शोनार बांग्ला’ बनाने की चाहत महिलाओं के राजनीतिक और सामाजिक सहभागिता, रोजगार और शिक्षा से ही संभव हो सकती है।
तस्वीर साभार : The Hindu