कहने को हम स्वतंत्र समाज में जी रहे हैं। हम आज़ाद हैं लेकिन जब बात महिलाओं की आती है तो हक़ीक़त कुछ और ही सामने आती है। कुछ ऐसा ही उदाहरण पेश किया है उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने। उन्होंने महिलाओं के कपड़ों पर टिप्पणी कर यह साबित किया है कि इस तथाकथित आज़ाद समाज में हम महिलाएं सिर्फ़ कहने को आज़ाद हैं। लड़कियों की रिप्ड जींस पर बयान देने के बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की सोशल मीडिया पर बेहद आलोचना हुई। उन्होंने बयान अपने बयान में कहा था, “आजकल महिलाएं फटी जीन्स पहनकर चल रही हैं, क्या ये सब सही है, ये कैसे संस्कार हैं। बच्चों में कैसे संस्कार आते हैं। ये अभिभावकों पर निर्भर करता है। मामला कुछ यह है कि तीरथ सिंह रावत एक बार जहाज में जब बैठे थे तो उनके बगल में एक महिला बैठी हुईं थी। तीरथ ने उनको देखा तो नीचे गमबूट थे, जब और ऊपर देखा तो घुटने फटे हुए थे हाथ देखे तो कई कड़े थे। इस पर रावत ने कहा, ”जब घुटने देखे तो फ़टी हुई जीन्स से घुटने दिख रहे थे। दो बच्चे साथ में दिखे तो पूछने पर पता चला कि पति जेएनयू में प्रोफेसर हैं और वह खुद कोई एनजीओ चलाती हैं। रिप्ड जीन्स पहनने वाली महिला जो एक एनजीओ चलाती हैं, समाज के बीच में ऐसे कपड़े पहनकर जाती हैं। बच्चों को क्या संस्कार देंगी?” अब इनके इस बयान से साफ ज़ाहिर है कि इस पितृसत्तात्मक समाज का दृष्टिकोण कैसा है हम महिलाओं के लिए। इनको महिला की रिप्ड जीन्स तो दिखी, इन्होंने फ़टी जीन्स का मुआयना तो कर लिया लेकिन वह महिला एनजीओ चलाती है, इस बारे में उसके सामर्थ्य, उसकी शक्ति और उसकी हिम्मत को अनदेखा कर दिया गया, जो कि यह समाज हमेशा से करता ही आया है। यह पुरुष प्रधान समाज महिलाओं की तरक्की देख ही नहीं सकता, डरता है उनकी तरक्की से। इस समाज को बस हम महिलाओं के हक़ों को छीनना, उन पर अपनी मन मर्ज़ी थोपना आता है।
इससे पहले कैबिनेट मिनिस्टर गणेश जोशी ने भी कहा, “औरतों को बच्चों को अच्छे से पालने पर ध्यान देना चाहिए, औरतें बातें करती हैं कि उन्हें जीवन में क्या-क्या करना है पर सबसे ज़रूरी चीज़ उनके लिए है अपने परिवार और बच्चों को संभालना।” कैबिनेट मिनिस्टर का यह कहना साफ-साफ रूढ़िवादी स्त्री द्वेषी मानसिकता को दर्शाता है। कहने को तो समाज ने प्रगति की है लेकिन आज भी कहीं न कहीं बात घूम-फिर कर यहीं आ जाती है कि औरत का मुख्य काम है घर संभालना, बच्चे पैदा करना। औरतों को बच्चे पैदा करने की मशीन समझा जाता है। जहां हम एक तरफ छोटा परिवार सुखी परिवार जैसे विचारों को बढ़ावा देने की जद्दोजहद में हैं, वहीं तीरथ जी कुछ अलग ही उदारहण पेश करते हुए नज़र आ रहे हैं। रिप्ड जीन्स पर दिए गए अपने विवादित बयान के बाद तीरथ सिंह रावत ने एक बार फिर विवादित बयान देते हुए कहा, “जिनके 10 बच्चे हैं उन्हें 50 किलो अनाज मिला, जिनके 20 हैं उन्हें एक क्विंटल अनाज मिला, जिनके 2 बच्चे हैं उन्हें 10 किलो मिला। जब वक़्त था तो बच्चे पैदा किए नहीं अब कम अनाज मिलने पर जलन कैसी फिर?” इनके इस बयान से हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति का अंदाजा साफ साफ लगाया जा सकता है।
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अमिताभ बच्चन की नातिन नव्या नवेली से लेकर अभिनेत्री गुल पनाग से लेकर ने टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी, कांग्रेस प्रवक्ता गरिमा दसौनी आदि ने भी तीरथ सिंह के बयान की जमकर आलोचना की। सीएम तीरथ सिंह रावत के फटी जीन्स पहनने वाली महिलाओं को लेकर विवादित बयान जहां महिला नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया दी है, वहीं ट्विटर पर भी यह खूब ट्रेंड कर रहा। अब लखनऊ विश्वविद्यालय के तिलक गर्ल्स हॉस्टल प्रशासन ने छात्राओं को एक अजीब फरमान सुनाया है। विश्वविद्यालय का कहना है कि शॉर्ट्स, मिनी स्कर्ट, माइक्रो स्कर्ट पहनने पर जुर्माना लगेगा। इसके लिए बकायदा एक नोटिस लगाया गया है। इसमें लिखा है कि कोई भी लड़की अपने ब्लॉक के आसपास शॉर्ट्स या घुटनों से ऊपर की ड्रेस पहनकर नहीं घूमेगी। स्पैगेटी या ‘वल्गर ड्रेस’ पहनकर बाहर आने की अनुमति नहीं है। शॉर्ट्स, मिनी स्कर्ट, माइक्रो स्कर्ट पहनने पर भी पाबंदी है। हालांकि, टेलिग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक प्रशासन के मुताबिक यह नोटिस आधिकारिक नहीं था।
यह पितृसत्तात्मक समाज इतना आगे निकल गया है कि यहां महिलाएं हमेशा भागती हुई ही नज़र आती हैं। वे भागती हैं अपनी स्वत्रंत्रता के लिए, वे भागती हैं अपने हक के लिए, वे भागती हैं इस समाज के रूढ़िवादी सोच से, वे भागती हैं खुद पर थोपे गए फैसलों से।
हम महिलाओं के कपड़ों को लेकर उठे ये सवाल पहली दफ़ा नहीं है। इससे पहले भी साल 2013 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने भी महिलाओं के जीन्स पहनने,और एक से ज्यादा मोबाइल फ़ोन रखने पर पाबंदी लगाई थी,उनका कहना था कि लड़कियों को डिसेंट कपड़े जैसे सलवार कमीज पहनना चाहिए और एक से ज्यादा मोबाइल फोन नहीं रखने चाहिए, लेकिन छात्रों के विरोध के बाद इस सर्किुलर को हटा लिया गया था। पाबंदियों का सफ़र यहीं नही थमा बल्कि 2016 में मुंबई के कुछ जाने-माने कॉलेज में लड़कियों के रिप्ड जीन्स, शॉर्ट्स पहनने पर पाबंदी लगा दी थी। उनका मानना था कि रेप जैसे क्राइम इस तरह के कपड़े पहनने की वजह से ही होते हैं और कॉलेज में ऐसी कोई घटना न हो इसलिए रिप्ड जीन्स और शॉर्ट्स को बैन कर दिया गया। इतना ही नहीं हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर की एक खाप पंचायत ने भारतीय संस्कृति का हवाला देते हुए महिलाओं के जीन्स और पुरुषों के शॉर्ट्स पहनने पर पाबंदी लगा दी है।
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अब सोचने वाली बात यह भी है कि क्या हमारी तथाकथित भारतीय संस्कृति की जड़ें वाकई इतनी कमजोर हैं कि फटी जींस या छोटी स्कर्ट पहनने से हिल जाए? क्या वाकई इन कपड़ों में इतनी ताकत है कि ये यौन हिंसा से लेकर ड्रग्स की बिक्री तक बढ़ा सकती है या असल में ये सिर्फ इन संस्कृति के ठेकेदारों के लिए अपनी दिमाग की फटी हुई सोच में पैबंद लगाने का सस्ता ज़रिया है, जिसकी आड़ में ये अपने मन की भड़ास निकालते रहते हैं। सिर्फ नेता, विधायक या पंचायतें ही नहीं, कई बार तो हमारे-आपके बीच की राह चलती कोई औरत, पड़ोस वाली आंटी तक इन कपड़ों को हथियार बनाकर लड़कियों पर निशाना साध देती हैं। जैसे पिछले साल अभिनेत्री संयुक्ता हेगड़े के साथ हुआ। संयुक्ता को स्पोर्ट्स ब्रा पहनकर एक्सरसाइज करने पर फब्तियों, तानों के साथ मारपीट तक का सामना करना पड़ा। इसी तरह, गुड़गांव के शॉपिंग मॉल में एक अधेड़ उम्र की महिला ने वहां मौजूद दो लड़कियों को छोटे कपड़े पहनने पर उनका रेप कर दिए जाने की वीभत्स बात कही। यही नहीं, उस महिला ने वहां मौजूद लड़कों से भी कहा कि अगर आप छोटे कपड़े पहने लड़कियों को देखें, तो उनका बलात्कार कर दो। कोलकाता में टीशर्ट और स्कर्ट पहनकर शॉपिंग करने वाली एक 25 वर्षीय लड़की को भी एक महिला ने धमकी देते हुए कहा कि तुम्हारा तो रेप होना चाहिए। जब लड़की ने इसका विरोध किया, तो उसके साथ मारपीट हुई।
सवाल उठता है कि अगर छोटे कपड़ों की वजह से ही ब्लात्कार होते हैं तो 21 अप्रैल 2018 को मध्यप्रदेश इंदौर में हुई घटना पांच महीने की बच्ची के साथ उसके चचेरे भाइयों ने किया दुष्कर्म का कारण भी वस्त्र ही रहे होंगे क्योंकि छोटी बच्चियों को तो हम पूरी तरह से ढके हुए कपड़े तो पहनाते ही नहीं है। इस पुरुष प्रधान समाज के अनुसार तो करना ऐसा चाहिए कि जैसे ही बच्ची जन्म ले उसको साड़ी पहना देनी चाहिए ताकि कहीं पुरुषों का मन का संतुलन न बिगड़ जाए। छोटे कपड़े नहीं बल्कि ब्लात्कार का कारण इस समाज की छोटी सोच है। रिप्ड जीन्स नहीं बल्कि बैन करना है तो रिप्ड सोच को बैन कीजिए। रिप्ड जीन्स नहीं बल्कि समाज की रिप्ड सोच संस्कृति को दर्शाती है।
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आपका पहनावा आपके व्यक्तित्व को दर्शाता है। ये बात जितनी महिलाओं पर लागू होती है उतनी पुरुषों पर भी महिलाएं। डैमेज जीन्स, छोटे कपड़े नहीं पहन सकती लेकिन पुरुषों पर ऐसी कोई रोक-टोक नहीं है। हम महिलाएं क्या पहनें क्या नहीं इस पर सवाल उठाने वाला यह पुरूष-समाज कौन होता है? महिलाओं के कपड़ों पर रोक-टोक लगाकर ये पितृसत्तात्मक समाज अपने अहम का परिचय हमेशा से देता आया है। लड़कियों के पहनावे को लेकर किए गए फैसलों से साफ़ ज़ाहिर है कि इस अंतरिक्ष युग में समाज का दृष्टिकोण कैसा है। यह पितृसत्तात्मक समाज इतना आगे निकल गया है कि यहां महिलाएं हमेशा भागती हुई ही नज़र आती हैं। वे भागती हैं अपनी स्वत्रंत्रता के लिए, वे भागती हैं अपने हक के लिए, वे भागती हैं इस समाज के रूढ़िवादी सोच से, वे भागती हैं खुद पर थोपे गए फैसलों से। कपड़े संस्कार दर्शाते है क्या? औरत को अपने मन स्वरूप कपड़े पहनने देना क्या उन्हें बिगाड़ना होता है? वैसे तो कहा जाता है कि सभी को हक़ है अपने हिसाब से जीने और कम से कम अपने मन के कपड़े पहनने का। लेकिन यही हक की बात जब औरत पर आती है तो ये बातें सिर्फ़ कागज़ी रह जाती हैं। स्त्री हो या पुरुष आप उनके कपड़ों से उनके संस्कारों को नहीं नाप सकते। कपड़े, हमारे शरीर, जगह, पसंद और माहौल की ज़रूरत होते हैं न कि उनके चरित्र का प्रमाणपत्र।।
औरत सिर्फ़ अपने घर-परिवार तक सीमित नहीं है। उसके अपने सपने हैं, अपने लक्ष्य हैं। यह कहना कि उन्हें इसके बारे में बात ना कर अपने परिवार को संभालना चाहिए उन्हें वही पितृसत्तात्मक बंदिशों में बांधना होता है और क्या घर उसके अकेले की जिम्मेदारी है? उसके जीवनसाथी का क्या, जिसने हर चीज़ में भागीदार होने के वादे किए थे? आज की औरत सब कुछ कर सकती है। वह अपना घर, परिवार, बच्चे, काम, अपने सपने, लक्ष्य सब एक साथ संभाल सकती हैं और वे भी अपने मन चाहे कपड़ों में। जो महिलाएं नहीं कर सकती वह सिर्फ़ मर्दों को उनके जीवन और उनकी जिम्मेदारियों पर टिप्पणीयाँ सुनना। क्या यही लोग जो आज औरत को बता रहे हैं कि उन्हें क्या पहना चाहिए और उनकी जिम्मेदारियां क्या हैं, यही चीज़ पुरुषों को भी कहेंगे?
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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया