संस्कृतिपरंपरा होली के महिला विरोधी दस्तूर बदलने के लिए ‘बुरा मानना ज़रूरी है’| नारीवादी चश्मा

होली के महिला विरोधी दस्तूर बदलने के लिए ‘बुरा मानना ज़रूरी है’| नारीवादी चश्मा

होली के दिन सहमति के मायनों को न भूलें और महिलाओं से ये आग्रह करूँगीं कि ‘बुरा मान जाइएगा आप इसबार, जब कोई आपकी सहमति को नज़रंदाज़ करें।‘

फ़्रांस की रहने वाली एनी (बदला हुआ नाम) ने हमेशा भारत में मनाए जाने वाले होली के त्योहार के बारे में सुना था। जब उसे भारत आने का मौक़ा मिला तो उसने होली के आसपास का समय चुना, जिससे वो होली के त्योहार का अनुभव कर सके। लेकिन ये उसके लिए बेहद डरावना अनुभव बन गया, जब उसे होली के दिन रंग लगाने के बहाने यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा। इसके लिए हमेशा लोग एनी की गलती निकालते है, वे ये कहते हैं कि होली के दिन उसे घर से बाहर निकलने की ज़रूरत क्या थी? एनी ने इसके ख़िलाफ़ कार्यवाई की कोशिश भी की लेकिन त्योहार, भीड़ और अलग-अलग बहानों के साथ पुलिस ने कोई सख़्त कार्यवाई नहीं की। एनी के साथ ऐसा तब हुआ जब वो अपने होटल से निकलकर अपने कुछ दोस्तों के घर होली का त्योहार मनाने जा रही थी। पर इस बेहद बुरे अनुभव के बाद एनी ने दुबारा कभी भारत न आने का फ़ैसला कर लिया।  

हर देश की संस्कृति उस देश की पहचान होती है। वहाँ के त्योहार, रिवाज और उनके पीछे की कहानियाँ हमेशा उस संस्कृति को आगे बढ़ाने और उनके महत्व को क़ायम रखने में अहम भूमिका अदा करती है। ऐसा ही एक त्योहार है – ‘होली’, जो भारतीय संस्कृति की पहचान भी है। लेकिन बदलते समय के साथ इस त्योहार के रंग में महिला हिंसा का भंग इस कदर घुल चुका है कि अब त्योहार के नामपर डीजे पर महिला यौन हिंसा केंद्रित अश्लील गानों पर थिरकते लोग किसी भी महिला के साथ यौन हिंसा करने से तनिक भी नहीं कतराते है। भेदभाव और द्वेष मिटाने का संदेश देने वाला त्योहार अब मानो महिला हिंसा का पोषक बनता जा रहा है।

होली के बहाने घर से यौन हिंसा की शुरुआत

बुरा न मानो होली है। ये कहकर अपनी हर गंदी हरकतों को सही करार देने की संस्कृति मानो इस त्योहार की संस्कृति का अटूट हिस्सा बन चुकी है। भाभी, साली और सरहज जैसे अलग-अलग रिश्तों के नामपर रिश्तेदार पुरुष होली के दिन मानो महिलाओं के साथ यौन हिंसा या सरल भाषा में मनमानी करने का दिन मान लेते है। कई बार अपने परिवारों या फिर आसपास ऐसा देखने को मिलता है जब बिना किसी सहमति के रिश्तेदार पुरुष महिलाओं के साथ ज़ोर जबरदस्ती करते है और महिलाएँ रिश्ते व त्योहार के तथाकथित दस्तूर के नामपर कुछ नहीं बोल पाती और घर की यही मज़ाक़ की संस्कृति सड़कों पर महिला हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देती है।  

होली के दिन सहमति के मायनों को न भूलें और महिलाओं से ये आग्रह करूँगीं कि ‘बुरा मान जाइएगा आप इसबार, जब कोई आपकी सहमति को नज़रंदाज़ करें।‘

त्योहार के नामपर सड़कों पर अश्लील गानों पर थिरकते और नशे में चूर पुरुष किसी भी महिला पर भद्दे कमेंट या फिर रंग फेंकने से पीछे नहीं हटते, जिससे त्योहार का ये दिन घर के बाहर महिला सुरक्षा का एक बड़ा सवाल बन जाता है। एनी अकेली नहीं जब उसके साथ हुई हिंसा के लिए उसे ही दोषी करार दिया गया। ऐसा हम लड़कियों को अक्सर सुनने को मिलता है। लेकिन इन सबके बीच सवाल ये है कि आख़िर कब तक त्योहार और उत्सव के नामपर महिला हिंसा को पोसने और इसे सही करार देने की संस्कृति साथ चलती रहेगी।

और पढ़ें : होली के रंग में घुला ‘पितृसत्ता, राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता का कुंठित मेल’

महिला विरोधी दस्तूर बदलने के लिए ‘बुरा मानना ज़रूरी है’

‘सहमति’ यूँ तो हमारे समाज में महिलाओं के संदर्भ में अक्सर नज़रंदाज़ कर दी जाती है, नतीजतन रिश्ते, त्योहार, संस्था और संस्कृति के नामपर हमेशा महिलाओं को पुरुषों के लिए वस्तु की तरह उपलब्ध बताया व दिखाया जाता है, जो महिला हिंसा की एक अहम वजह है। जिसपर कई आयामों में काम करने और लागू करने की सख़्त ज़रूरत है। हमें ये बेहद स्पष्ट तरीक़े से समझना होगा कि किसी भी इंसान की सहमति के बिना उसके साथ किसी भी तरह का व्यवहार करना ग़लत है। इसके साथ ही अगर किसी इंसान ने किसी काम या व्यवहार के लिए अपनी सहमति दी भी है तो हमें अच्छी तरह समझना होगा कि उसकी तय सीमा क्या है, जिसका हमें सम्मान करना भी सीखना होगा।

हम सिर्फ़ इसलिए किसी महिला को ज़बरदस्ती रंग लगाए क्योंकि वो मेरी भाभी लगती है, ये बिलकुल ग़लत है। हमें अपने मन में बेहद साफ़ रखना होगा कि सहमति के बिना किया गया कोई भी काम या व्यवहार ग़लत है। आपको लग रहा होगा कि मैं होली के ख़िलाफ़ हूँ तो आपको बता दूँ मैं होली के मनाने के महिला विरोधी तरीक़े से ख़िलाफ़ हूँ। किसी महिला के साथ यौन हिंसा कर ‘बुरा न मानो होली है’ कहने की संस्कृति के ख़िलाफ़ हूँ। इसलिए होली के दिन समाज से यही कहूँगी कि त्योहार के दिन भी सहमति के मायनों को न भूलें और महिलाओं से ये आग्रह करूँगीं कि ‘बुरा मान जाइएगा आप इसबार, जब कोई आपकी सहमति को नज़रंदाज़ करें।‘ हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारी सहमति को स्थापित करने के लिए अपनी असहमति दर्ज़ करना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि कभी-कभी घटिया दस्तूरों को बदलने के लिए बुरा मानना ज़रूरी होता है।   

और पढ़ें : मज़ाक़ के रिश्ते से बढ़ती बलात्कार की संस्कृति| नारीवादी चश्मा 


तस्वीर साभार : thewire.in

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content