“महिलाएं एक-दूसरे की सहेली कभी नहीं हो सकती। औरतें ही औरतों की सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं।” ऐसी बातें हम सब ने कभी न कभी सुनी हैं। सास-बहु की खिट-पिट वाले धारावाहिक और बॉलीवुड सिनेमा से हम आम जीवन में इस सिद्धांत को इस्तेमाल करने के तरीके सीख लेते हैं। साधारणतः यह मान लिया जाता है कि औरतें एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करेंगी, ईर्ष्या करेंगी और सही मायनों में एक-दूसरे का साथ नहीं देंगी। महिलाओं के बीच इस स्त्रीद्वेष का जन्म समाज के उस रवैये से हुआ है जो महिलाओं को कमतर समझता है और इसकी बागडोर पुरुषों के हाथों सौंप दी है। पितृसत्ता के बाज़ार में, पुरुषत्व के माध्यम से दूसरे जेंडर को अपने अधीन रखने के लिए यह ज़रूरी है कि महिलाएं एकजुट ना हो। पितृसत्ता का लक्ष्य है कि आंतरिक स्त्रीद्वेष आराम से महिलाओं के बीच मतभेद पैदा करता रहे। यह प्रवृत्ति हमारी हिन्दी फिल्मों में आम है।
साधारण जीवन में पितृसत्ता इस आंतरिक स्त्रीद्वेष की आड़ में महिलाओं को उन कामों के लिए प्रेरित करता है जो उनके सहूलियत के अनुसार हो। अंग्रेजों की ‘डिवाइड एण्ड रूल’ पॉलिसी के बारे में तो हम सब जानते हैं लेकिन बदलती हुई दुनिया में स्त्रीद्वेष का जन्म इस नीति के जैसी ही है। मिसाल के तौर पर, बोहरा समुदाय की माएं या घर की दूसरी औरतें अपनी बेटियों को फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम) के लिए लेकर जाती हैं। हालांकि इसका दबाव घर के पुरुषों की तरफ से होता है। पुरुषों को ‘मेन विल बी मेन’ होने से कोई तकलीफ नहीं होती। असल में, दूसरे जेन्डर से किसी सवाल या विरोध का सामना ना करना पड़े और उन्हें अपना पुरुषत्व दिखाने की छूट मिले, इसके लिए महिलाओं में स्त्रीद्वेष का होना जरूरी है। महिलाएं खुद ‘मेन विल बी मेन’ कहकर पुरुषों के उन आचरणों का समर्थन करती हैं जो हानिकारक है। कॉलेज के दिनों में मेरी क्लास की एक सहेली ने अपनी शादी के विडीयो का जिक्र करते हुए कहा कि जब वह वीडियो में उसने अपने नाम के आगे अपने पति का सरनेम देखा, तो गुस्से में वीडियो शूट करने वाले को ना सिर्फ डांटा बल्कि कसैट सुधारने के लिए भी कह दिया। इतना सुनते ही, बाकी लड़कियों ने उसके विरुद्ध राय बना ली और उसे ‘घमंडी, नकचढ़ी, गुस्सैल, दिखावा करनेवाली’ जैसी उपाधियां दे दी गई। यह आंतरिक स्त्रीद्वेष ही है जो महिलाओं द्वारा पितृसत्ता का विरोध करना बर्दाश्त नहीं कर सकता। ऐसे माहौल में महिलाओं को दूसरे जेंडर से ही नहीं बल्कि अपनी बिरादरी से भी आलोचना सुननी पड़ती है।
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बॉलीवुड पर इसकी नींव रखे जाने के समय ही पुरुषों का हावी होना, महिलाओं के बीच स्त्रीद्वेष के प्रचार-प्रसार का एक प्रमुख कारण है। मसलन, बॉलीवुड के गानों को लीजिए। इनमें हम महिलाओं की एक ही छवि देखते हैं। कोमल, सुंदर या नाजुक महिलाओं की विशेषताओं के पर्यायवाची हैं तो दिलफेंक, मेहनती, शक्तिशाली और कर्मठ पुरुषों के। स्त्रीत्व से दूरी या अत्यधिक लगाव भी इस प्रवृत्ति की उपज है। महिलाएं चाहे ना चाहे, उन्हें सैलून में जाते ही सुंदर दिखने के तरीकों पर सीख दी जाती है। आकर्षक दिखना महिलाओं के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पुरुषों के लिए मर्दाना दिखना। सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से हुई मौत के बाद, उनकी मौत या अवसाद के दुष्परिणामों से ज्यादा रिया चक्रवर्ती की आलोचना होना भी एक तरह से समाज के आंतरिक स्त्रीद्वेष का ही उदाहरण है। किसी महिला से यह उम्मीद रखना कि वह अकेले ही अपने साथी की सभी परेशानियों और दुख को समाप्त कर देगी और खुशियों का संचार करेगी, एक बेतुकी शर्त है। सुशांत जैसे लोकप्रिय और सफल अभिनेता का अवसाद से ग्रस्त होने की खबर पितृसत्तात्मक समाज हजम नहीं कर पाया। यह तथ्य कि अवसाद किसी को भी हो सकता है, समाज में किसी को मंजूर नहीं था। ऐसे में, महिलाएं खुद रिया का चारित्रिक विश्लेषण करने पर उतर आईं और बतौर गर्लफ्रेंड/पार्टनर अपनी ज़िम्मेदारी को ना निभा पाने का प्रमाणपत्र उन्हें थमा दिया गया।
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स्त्रीद्वेष के अधीन महिलाएं अपने बीच अनचाही प्रतिस्पर्धा का भी सामना करती हैं। ज्यादा सुंदर, अधिक घरेलू, बेहतर रसोइया या दफ्तर में अलग-अलग स्तरों और स्वरूप में यह लड़ाई देखी जा सकती है। कई बार महिलाएं दूसरी महिलाओं को उनके कपड़े, उठने-बैठने, यौनिकता, बातचीत करने के ढंग या शारीरिक बनावट के लिए स्लट शेम करती हैं। पितृसत्ता की उपज इस स्लट शेमिंग का दायरा सिर्फ सास, बहु, सहकर्मी या बॉस से प्रतिस्पर्धा तक ही सीमित नहीं है। पुरुषों के तय किए गए मानदंड महिलाओं को ना तो गलत लगते हैं ना ही अस्वाभाविक। यह चलन भारत में परिवारनियोजन के अभियानों या कंडोम के विज्ञापनों से बखूबी समझी जा सकती है जहां महिलाओं को उनकी सहेली, ननद, बहन या कोई दूसरी महिला नियोजन के तरीके अपनाने को कहती है। मूलतः यह संदेश दिया जाता है कि ना सिर्फ परिवार नियोजन की जिम्मेदारी महिलाओं की है बल्कि पुरुषों के यौन इच्छा का खयाल रखना भी महिलाओं का कर्तव्य है। एक औरत के स्त्रीत्व के कायदों के अंतर्गत सेक्स के लिए पुरुषों को मना करने की आज़ादी की धारणा का अस्तित्व है ही नहीं। इसलिए साधारणतः महिलाएं “मेन आर आलवेज़ हॉर्नी “ की पितृसत्तात्मक सोच को पूरा करती रहती हैं और इस रीति के विरुद्ध बोलने वाली महिलाओं को दोषी ठहराया जाता है।
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आंतरिक स्त्रीद्वेष को बढ़ावा देती फिल्में और टीवी सीरियल
बॉलीवुड हमेशा से पुरुष प्रधान रहा है यानी निर्देशक, निर्माता, सिनेमॅटोग्राफर, तकनीशियन से लेकर संगीतकार और कोरीओग्राफर, हर क्षेत्र में पुरुषों का बोलबाला है। इसलिए सिनेमा में अधिकतर फिल्मों पुरुषों की दृष्टि से कहानियों को हमारे सामने रखा गया। इस चकाचौंध की दुनिया में पितृसत्ता की जड़ें किस हद तक घर कर चुकी हैं, यह फिल्मी गानों या महिला केंद्रित फिल्मों में नायकों को कहानीकार की भूमिका थमा देने की आदत से समझा जा सकता है। वहीं, भारतीय धारावाहिकों या सिनेमा पर ध्यान दें, तो कुछ गिनी-चुनी कहानी ही मिलेगी जहां महिलाओं को एक-दूसरे की हितैषी के रूप में चित्रित किया गया हो। अकसर सिनेमा और धारावाहिकों के प्रभाव से महिलाओं के ‘स्त्रीत्व’ की अवधारणा वैसी होती है जैसा पितृसत्तात्मक समाज चाहता है। सास-बहु या ननद और भाभी के चरित्रों के नकारात्मक स्वरूप को मशहूर और मजबूत करने में फिल्मों, टीवी धारावाहिक और गानों की बहुत अहम भूमिका रही है।
धारावाहिकों में सास और बहू के रिश्ते को कड़वाहट भरा दिखाने का चलन सामान्य है। इनमें ससुर, देवर या दामाद को विलेन के तौर पर नहीं दिखाया जाता। बल्कि साली आधी घरवाली कहकर और देवर-भाभी के दोस्ती के नाम पर पुरुषों के भद्दे मज़ाक का भी सामान्यीकरण कर दिया जाता है। माधुरी दीक्षित और सलमान खान के फिल्म का यह गाना देखिए। ‘दीदी तेरा देवर दीवाना, कुड़ियों को डाले दाना। धंधा है ये उसका पुराना, हाय राम, कुड़ियों को डाले दाना।’ अधिकतर यह देखा गया है कि पति के भाई या किसी साथी के ख़िलाफ़ पत्नी का ऐसी शिकायत करना काम नहीं आता। ठीक वैसे ही, हमेशा बेटे या पति की दिखाए राह पर चलने वाली मां को सास बनने पर, स्त्रीद्वेष से जन्मी ईर्ष्या के कारण बहु के गुण नहीं दिखते। चाहे घर में बेटे का शासन क्यों ना हो, घर की चाबी सास के पास होने से बहु को आपत्ति रहती है। पुरुष सदस्यों का प्रभुत्व होने के बावजूद घर की महिलाओं के बीच सत्ता के लिए द्वेष आम हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि मात्र महिला होने से सब कुछ अच्छा हो जाता है। किसी भी रिश्ते में महिला या पुरुष, दोनों की नकारात्मक भूमिका होना संभव है। लेकिन पुरुषों के लिए यह नहीं कहा जाता कि पुरुष ही पुरुषों के दुश्मन हैं। हिन्दी सीरियल्स और फिल्मों के विपरीत कई अंग्रेजी फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों में महिलाओं की दोस्ती और साथ को दिखाया जाता रहा है। ‘फ़्रेंड्स या फ्लीबैग’ जैसे टीवी या वेब सीरीज इसका उदाहरण हैं। निश्चित ही हमें डोर जैसी फिल्मों की ज़ीनत और मीरा जैसी पात्रों की जरूरत है जहां औरतें एक-दूसरे का साथ देती हैं। महिलाओं को पितृसत्ता की राजनीति से बचना होगा। साथ ही यह समझना होगा कि आंतरिक स्त्री द्वेष से महिलाएं एक-दूसरे और खुद को भी कम और पितृसत्तात्मक रीति-रिवाजों को अधिक महत्व देती हैं। यह जरूरी है कि हम खुद को या किसी दूसरी महिला को पितृसत्तात्मक नजरिये से ना देखें और पुरुषों को उनके गलत आदतों और दोषों के लिए सवाल करें। आंतरिक स्त्रीद्वेष को रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनने से रोकने में हिन्दी सिनेमा और टेलीविजन को भी अपनी भूमिका निभानी होगी।
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तस्वीर साभार : Take Part