कोरोना की वजह से लोगों के बीच बढ़ती दूरी और बंद स्कूल-कॉलेजों के कारण बीते साल लोगों ने डिजिटल दुनिया के महत्व को और अधिक समझा और इसका इस्तेमाल किया। आज घर बैठकर पढ़ाई और ज़ूम कॉल से ऑफिस से जुड़ना नया दस्तूर बन गया है। हमारी ज़िंदगी पहले से कहीं ज्यादा डिजिटल माध्यमों पर निर्भर हो गई है। चीन के बाद सब से ज्यादा इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या भारत में है लेकिन मौजूदा हालात और अलग-अलग आंकड़ों से यह स्पष्ट हो गया है कि डिजिटल दुनिया भी विभिन्न स्तरों और पैमानों पर भेदभाव करती है। कोरोना महामारी में बच्चों की ऑनलाइन क्लास के कारण देश की ग्रामीण और हाशिये पर जी रहे परिवारों के बच्चे अलग-थलग पड़ गए। भारत में आय और लोगों की संसाधनों तक असमान पहुंच के कारण भी डिजिटल दुनिया का यह विशाल अंतर और गहराता नजर आ रहा है। पिछले साल ऑनलाइन क्लास शुरू होते ही, केरल के मलप्पुरम जिले के वलन्चेरी में, दसवीं की एक दलित छात्रा के पास यह सुविधा ना होने की वजह से उसकी आत्महत्या से मौत का कारण बन गई। केरल स्टूडेंट्स यूनियन सहित अन्य छात्र कार्यकर्ताओं ने घटना के विरोध में डिजिटल दुनिया की असमानता पर चिंता व्यक्त करते हुए बताया कि ऑनलाइन क्लास सभी की पहुंच में नहीं है और ऐसे में गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थियों का ऑनलाइन सीखने की संभावना बहुत कम है।
बता दें कि केरल इंटरनेट के इस्तेमाल को ‘एक बुनियादी मानवाधिकार’ घोषित करने वाला भारत का पहला राज्य है। 75वें राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसएसओ) के अनुसार देश की आधी से ज्यादा आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है। 32.8 शहरी आबादी के मुकाबले 67.2 प्रतिशत आबादी ग्रामीण भारत में रहती है। वहीं, 23 प्रतिशत शहरी और महज 4 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास कंप्यूटर है। भारत के केवल 9.5 प्रतिशत छात्र-छात्राएं कंप्यूटर और आईटी (इनफार्मेशन टेक्नॉलजी) में किसी भी प्रकार का कोर्स कर रहे हैं। द प्रिन्ट में छपी नगालैंड की एक घटना डिजिटल दुनिया की असमानता और समाज के विशिष्ट वर्गों का इसपर अधिकार को उजागर करती है। इंटरनेट की दुनिया से कटी ज़ुन्हेबोतो जिले की आठ वर्षीय हिविका झिमोमी को अपने गांव के एक घने जंगल के बीच पहाड़ी पर चढ़कर परीक्षाएं देनी पड़ती है। रिपोर्ट कहती है कि पूरे गांव में यह एकमात्र क्षेत्र है जहां नेटवर्क कनेक्टिविटी रहती है। गांव के सभी बच्चे इसी स्थान पर बारी-बारी से परीक्षा देते हैं। मौजूदा हालात में ग्रामीण आबादी और डिजिटल दुनिया की दूरी के कारण शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक तरक्की प्रभावित हो रही है। डिजिटल दुनिया में बढ़ती असमानता को लेकर शिक्षाविदों और नीति निर्माताओं ने लगातार चिंता व्यक्त की है।
ऑनलाइन शिक्षा और व्यापार के प्रचलन से डिजिटल गैप के साथ-साथ शैक्षिक और आर्थिक असमानता भी बढ़ सकती है। आज घरों में मोबाईल पर क्लास की सुविधा बच्चों के शिक्षा का भले एकमात्र उपाय बन गया हो पर यह ग्रामीण भारत के पिछड़ने का मूल कारण बनकर उभर सकती है। मोबाइल के माध्यम से ऑनलाइन कारोबार या लेन-देन के लिए सरकार ही नहीं निजी कंपनियां भी जोर दे रही हैं। ग्लोबल सिस्टम ऑफ मोबाइल कम्यूनिकेशन्स (जीएसएमए) के द्वारा जारी की गई साल 2020 की मोबाइल जेन्डर गैप रिपोर्ट बताती है कि विश्व में पुरुषों की तुलना में महिलाएं 20 फ़ीसद तक कम मोबाइल इंटरनेट का उपयोग करती हैं। भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पुरुषों की तुलना में 300 मिलियन से भी कम महिलाएं मोबाइल इंटरनेट का इस्तेमाल कर रही हैं। जीएसएमए के इस अध्ययन के अनुसार, इन देशों में महिलाओं का पुरुषों की तुलना में खुद का मोबाइल फोन होने की संभावना आठ प्रतिशत तक कम है। रिपोर्ट कहती है भारत के 79 फीसद पुरुषों के मुकाबले 63 फीसद महिलाओं के पास मोबाइल फोन पर मालिकाना अधिकार है। वहीं मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल के मामले में यह अंतर 50 फीसद है। गौरतलब हो कि 37 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले मात्र 14 प्रतिशत महिलाएं स्मार्टफोन का उपयोग करती हैं।
कोरोना महामारी में बच्चों की ऑनलाइन क्लास के कारण देश की ग्रामीण और हाशिये पर जी रहे परिवारों के बच्चे अलग-थलग पड़ गए। भारत में आय और लोगों की संसाधनों तक असमान पहुंच के कारण भी डिजिटल दुनिया का यह विशाल अंतर और गहराता नजर आ रहा है।
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इंटरनेट की स्थिति का जायज़ा बिहार के एक छोटे से जिले मुंगेर की हालत से लेते हैं। मैं अपना अनुभव साझा करूं तो, शहरों में जहां साइबर कैफे का व्यवसाय मंदा हो चुका है, यहां आज भी युवा लड़के-लड़कियां अपनी जरूरतों के लिए कैफे पर निर्भर करते हैं। रेलवे की टिकट, जाति प्रमाणपत्र, कोई नई फिल्म या गाने से लेकर सर्विस कॉमिशन तक के सारे ऑनलाइन काम मूलतः इन कैफे के मालिकों द्वारा की जाती है। राज्य की आर्थिक सरोकारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते बिहार ग्रामीण बैंक खुद अपने ग्राहकों को साल 2019 तक इंटरनेट बैंकिंग की सुविधा नहीं दे पाई थी। जीएसएमए की रिपोर्ट के आधार पर मोबाइल इंटरनेट सुविधा पर जागरूकता की बात करें, तो साल 2019 तक महिलाएं पुरुषों से 20 प्रतिशत पीछे थीं। घरों में इंटरनेट उपलब्धता पर गौर करें तो साल 2017-18 में देश के सिर्फ 24 फीसदी परिवारों के पास इंटरनेट की पहुंच थी। इनमें 15 प्रतिशत ग्रामीण परिवार के तुलना में 42 प्रतिशत शहरी घर शामिल थे। हालांकि इंटरनेट तक पहुंच और प्रभावी पहुंच दोनों अलग-अलग हैं। डिजिटल साक्षरता में किसी व्यक्ति को विभिन्न डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लेखन और अन्य मीडिया के माध्यम से स्पष्ट जानकारी खोजने, मूल्यांकन और रचना करने की क्षमता को चिह्नित की जाएगी। डिजिटल रूप से साक्षर व्यक्ति कंप्यूटर या टैबलेट, स्मार्ट फोन, आदि संचालित करने, ईमेल भेजने और प्राप्त करने, इंटरनेट ब्राउज़ करने, सरकारी सेवाओं को प्राप्त करने, सूचना की खोज करने, ऑनलाइन आर्थिक लेनदेन आदि का संचालन करने में सक्षम होगा।
भारत में साक्षरता का अंतर सिर्फ ग्रामीण और शहरी, महिलाओं और पुरुषों के बीच ही नहीं बल्कि जातिगत भी है। एनएसएस के आंकड़ों के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता दर 73.5 प्रतिशत है। वहीं शहरी क्षेत्रों में यह 87.7 प्रतिशत पाया गया। 81.5 प्रतिशत ग्रामीण पुरुषों की तुलना में मात्र 65 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। शहरी इलाकों में 82.8 फीसदी महिलाओं की तुलना में 92.2 फीसदी पुरुष साक्षर हैं। दुर्भाग्यवश देश की दलित महिलाओं की साक्षरता दर आज भी 63.9 प्रतिशत है। रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जनजाति के पुरुषों का साक्षरता दर 77.5 और महिलाओं का देश का न्यूनतम 61.3 प्रतिशत है। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में डिजिटल साक्षरता की बात जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही सभी समुदाय को इसमें शामिल करना। सदियों से चले आ रहे जातिवाद के कारण कई समुदाय हाशिए पर जी रहे हैं। डिजिटल दुनिया के बगैर आज जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। खराब साक्षरता दर, सामाजिक कुप्रथाएं, रूढ़िवादी विचार और संसाधनों की कमी और असमानता देश की बदहाल स्थिति में इजाफ़ा कर सकती है। देश में ग्रामीण आबादी की अधिकता के बावजूद, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक विकास में ये छूटते नजर आते हैं। कश्मीर पर लोकतंत्र में लगाया गया सबसे लंबा इंटरनेट शटडाउन से डिजिटल दुनिया के ठप होने का दुष्परिणाम का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
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शहरी क्षेत्रों के 32.4 प्रतिशत के एवज में 9.9 फीसदी ग्रामीण जनता को कंप्यूटर चलाने का ज्ञान है। जहां गावों में सर्वेक्षण के समय 13 फीसदी लोग इंटरनेट का प्रयोग करने में सक्षम थे, वहीं शहरी इलाकों में यह आंकड़ा 37 प्रतिशत था। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा डिजिटल इंडिया के लिए प्रधान मंत्री डिजिटल साक्षरता अभियान (पीएमजीदिशा) के तहत साल 2020 तक भारत के हर परिवार के एक सदस्य को ‘डिजिटली लिट्रेट’ बनाने की महत्वाकांक्षी कार्यक्रम से सभी समुदाय और जेन्डर का सर्वांगीण विकास की बात विडंबना ही लगती है। समझा जा सकता है कि इस योजना के तहत जिन 6 करोड़ ग्रामीण आबादी को सिर्फ 20 घंटे ट्रेनिंग देकर डिजिटली साक्षर बनाने की योजना की गई है, वह कितनी मुमकिन है।
वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम कहता है कि कोरोना के दौरान वैश्विक इंटरनेट उपयोग में 70 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। अलग-अलग सेवाओं के लिए मोबाईल पर निर्भर होने के कारण मोबाइल एप्लिकेशन का उपयोग दोगुना हो गया है। वॉयस कॉल तिगुना और अनेक वीडियो-स्ट्रीमिंग सेवाएं कई गुना बढ़ गई। ऑनलाइन बाजार, ऑनलाइन भुगतान और संचार सेवाओं में दुनिया केंद्रित हो रही है। एनएसएस रिपोर्ट बताती है कि 76 प्रतिशत परिवारों में कम से कम एक छात्र ग्रामीण भारत से है। बीते वर्ष यूनिसेफ द्वारा जारी रिमोट लर्निंग रिचाबिलिटी रिपोर्ट ने ऑनलाइन शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे आर्थिक रूप से वंचित परिवारों के बच्चों पर चिंता व्यक्त की थी। ऐसे में साक्षरता दरों में अंतर डिजिटल साक्षरता को प्रभावित करेगी और एक नए डिजिटल रूप से ‘पिछड़े वर्ग’ का जन्म हो सकता है। जबकि यूनाइटेड नेशन इंटरनेट की सुविधा को मौलिक अधिकार बनाने की वकालत करती है, हमारे देश की महिलाएं और ग्रामीण वर्ग इंटरनेट की पहुंच और जागरूकता के अभाव से ग्रस्त है। मौजूदा व्यवस्था इंटरनेट को भी विलासिता की सामग्री बना दी है। कोरोना ने भारत में जेन्डर गैप को बढ़ा दिया है। ग्रामीण और पिछड़ी आबादी को देश के विकास में हिस्सेदार बनाने के लिए हमें व्यापक नीतियों की आवश्यकता है। कोरोना के कारण आय में कमी, बेरोजगारी और हर क्षेत्र में महिलाओं के अधिक प्रभावित होने को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
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तस्वीर साभार : ommcom news